बुधवार, दिसंबर 20, 2006

कबीर दास का चिट्ठाकाल

आज से ६०० वर्ष पूर्व १३९८ एडी मे कबीर दास का जन्म भारत में हुआ. कहा जाता है कि वो १२० वर्ष की उम्र में १५१८ में समाधिस्त हुये. यही भक्तीकाल का शुरुवाती समय माना गया है. व्यवसाय से जुलाहे होते हुये भी, जिस काम का उस वक्त मशीनीकरण नहीं हुआ था और बहुत मेहनत करना होती थी, कबीर दास जी ने चिट्ठाजगत के लिये इतने दोहे लिखे कि इससे हम सबको सबक लेना चाहिये जबकि हम तो दिन भर कम्प्यूटर पर कार्य करते है और कोई शारीरिक परिश्रम भी ज्यादा नहीं करते.

अब जब उस जमाने में कबीर दास ने अपने सारे दोहे हिन्दी चिट्ठाकारों के लिये लिखे, तो हिन्दी चिट्ठाकार तो रहे ही होंगे नहीं तो क्या उन्हें उस समय सपना आया था? इसका अर्थ यह हुआ कि भक्तिकाल में ही चिट्ठाकाल की भी शुरुवात हुई या उससे भी पहले.

वो तो कतिपय चिट्ठा विरोधी ताकतों ने उन्हें सामाजिक कवि का दर्जा दे दिया कि सब समाज के लिये लिखा गया. सही कहा मगर चिट्ठा समाज के लिये कहते तो बिल्कुल सही होता.

अब इतने सारे दोहे चिट्ठाकारों की समझाइश के लिये लिख गये हैं कि सबकी व्याख्या करना तो यहाँ संभव नहीं है, उदाहरण के लिये ७ दोहों की व्याख्या कर दे रहा हूँ. बाकि कुछ और आगे की जायेगी या यदि आप किसी कबीर दास के खास दोहे पर हमारा व्याख्यान चाहते हों तो टिप्पणी के माध्यम से बतायें, हम कर देंगे. समाज सेवा में तो कभी पीछे हटने का सवाल ही नहीं, यह तो आप सबको पता ही है. :)



आग जो लगी समुंद्र में, धुआं न परगट होए
सो जाने जो जरमुआ जाकी लागे होए.


भावार्थ: जब किसी चिट्ठाकार का कम्प्यूटर या इंटरनेट कनेक्शन खराब हो जाता है तो उसके दिल में चिट्ठाजगत से दूर होने पर ऐसी विरह की आग लगती है कि धुँआ भी नहीं उठता. इस बात का दर्द सिर्फ़ वही जान सकता है जो इस तकलीफ से गुजर रहा हो. बाकी लोगों को तो समझ भी नहीं आता कि वो कितना परेशान होगा अपनी छ्पास पीड़ा की कब्जियत को लेकर.


ऐसी वाणी बोलीए, मन का आपा कोए
अपना तन शीतल करे, औरन को सुख होए.


भावार्थ: जब भी कोई पोस्ट या टिप्पणी लिखो तो उसे रात में लिखकर रख लो, सुबह उठकर फिर पढ़ो कि कहीं भावावेश तो कुछ नहीं लिख गये और तब पोस्ट करो. इससे जहाँ दूसरों का सुख मिलेगा, आपको भी काफी शीतलता का अनुभव होगा. और चिट्ठा लेखन का उद्देश्य भी यही है.अन्यथा तो भडभडाहट वाली पोस्टों और टिप्पणियां ने किस किस तरह के तांडव नृत्य इसी चिट्ठाजगत में करवाये हैं.


बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर


भावार्थ: चिट्ठालेखन में कोई उम्र से छोटा बड़ा नही होता. उम्र भले ही ८० साल हो मगर यदि आप अच्छा नहीं लिखेंगे तो न तो कोई पढ़ेगा और न ही टिप्पणी मिलेंगी. तो आपका लिखना भी बेकार, आपका समय जो खराब हुआ सो तो हुआ ही (खैर जब ऐसा लिखोगे तो वो तो कौडी का नहीं होगा) और अगर किसी ने गल्ती से पढ़ लिया तो उसका समय और आपकी छ्बी भी खराब. अतः भले ही उम्र से कम और छोटे हो, मगर अगर अच्छा लिखोगे तो पूछे जाओगे. सिर्फ उम्र में बड़ा होने से कुछ नहीं होता है.


बुरा जो देखण मै चला, बुरा न मिलया कोए
जो मन खोजा आपणा तो मुझसे बुरा न कोए


भावार्थ:यह चिट्ठाजगत बहुत विशाल है. इसमें अगर खराब पोस्ट खोजने निकलोगे तो खोजते रह जाओगे और अंत में पाओगे कि सबसे खराब पोस्ट तो तुम्हारी स्वंय की है और तुम व्यर्थ ही यहां वहां टहलते रहे. बस अपने लिखन को चमकाओ और दूसरों की लेखनी में बुराईयां खोजने मत निकलो. जब तुम बहुत अच्छा लिखने लगोगे तो दूसरी तो उससे कम अच्छी अपने आप हो जायेंगी तो खोजने जाने की क्या जरुरत है.


धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होए
माली सींचे सौ घड़ा, रितु आए फल होए


भावार्थ: इन पंक्तियों मे कवि ने सभी चिट्ठाकारों से धीरज रखने की सलाह दी है. अगर आप किसी वरिष्ठ चिट्ठाकार की पोस्ट पर टिप्पणियां और वाह वाही देखकर अपनी पोस्ट को कमजोर समझें और मन उदास होने लगे कि मुझे क्यूँ नहीं इतनी वाह वाही. तो आपको धीरज धरने को कहा गया है. धीरे धीरे सब होगा, उन्होंने भी महिनों सालों मेहनत की है, कई सौ पोस्ट लिखी है, तब जा कर उनका वट वृक्ष टिप्पणी रुपी फल से लहरा रहा है. आपका भी मौसम आयेगा, फल मिलेगा, मगर सब धीरे धीरे होगा, धीरज धरो.


काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
पल में परलय होएगी, बहूरी करोगे कब.


भावार्थ: यह खास तौर पर इन बातों को ध्यान मे रखकर लिखी गई है जैसे बिना बताये बिजली कई कई दिन तक गायब रहती है या इन्टरनेट कनेक्शन नहीं मिलता. कम्पयूटर सुधारक नहीं मिलते आदि आदि. तो अगर आज सब ठीक चल रहा है, तो आज ही लिखकर पोस्ट कर दो, कल पर मत टालो. क्या पता कल बिजली गायब रुपी, कनेक्शन गायब रुपी या कम्प्यूटर खराब रुपी परलय आ जाये, तो बस पोस्ट धरी की धरी रह जायेगी, फिर कब छापोगे क्या मालूम और नारद की रेटिंग से जाओगे, सो अलग.

चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोए
दुई पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए


भावार्थ: देखिये, एक दूसरे पर टीका टिप्पणी, परिचर्चा के ज्वलंत मुद्दे, बात के बतंगड बनाने वालों को देखकर कबीर दास रो दिये. झगड़ा दो पाटन के बीच मचा और बाकी भी सब कुद कुद कर एक एक की तरफ हो गये और सब पीस गये. निवेदन है कि कबीर दास जी, जो सब चिट्ठाकारों के लिये इतना कुछ लिख रहे हैं, उन्हें न रुलाया जाये.


तो, अब तो आप मान गये कि और भी दोहे सुनाऊँ. :)


-समीर लाल 'समीर'

18 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामी12/20/2006 09:21:00 pm

    यह तो एकदम अलग तरह का भावार्थ रहा. आज तक ज्ञान आधा था, अब लगने लगा है. अच्छा किया समझा दिया वरना हम अज्ञानी मर जाते.

    --खालिद

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  2. बेनामी12/20/2006 09:52:00 pm

    समीर भाई, कल बाजार से जा रहा था तो एक पेंटर बोर्ड बना रहा था। बोर्ड पर उसे लिखना था विदेशी मुद्रा, लिख रहा था बिदेशी मुद्रा। मैंने कह दिया बिदेशी नहीं भाई विदेशी होता है तो यूं देखने लगा जैसे कहा रहा हो मेरा बोर्ड है तुम्हे क्या? तो मुझे कहना पड़ा 'कृपया अन्यथा न लें '

    आपसे हम कितना कुछ सीखते हैं। दोहों के यह अर्थ तो ज्ञान देने वाले हैं। आज कबीर खुश हो रहे होंगे सच्चा पाठक उन्हे आज ही मिला :)
    बहुत खूब :D

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  3. बेनामी12/20/2006 10:21:00 pm

    समीर जी मजा आ गया भावार्थ का, पहले तो लगा क्या फिर से कबीर लेकिन जब पढना शुरू किया तो पता चला "खोदा कुँआ निकला तेल" यानि कि पानी की तलाश में उससे भी कीमती वस्तु मिल गयी। मुहावरा और भावार्थ दोनों अपना ही है समझ में ना भी आये तो समझ गये दिखाईयेगा।

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  4. बेनामी12/20/2006 10:24:00 pm

    लेकिन आपका २० को लिखा ये चिट्ठा २१ को दो चिट्ठों के बीच कैसे एडजेस्ट हो गया। पहले का ड्राफ्ट था क्या? या कनाडा भारत के बीच का समय का अंतर।

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  5. कहाँ है प्रभू चरण आपके? बहुत खुब, दोहो के अर्थ को चिट्ठो के सन्दर्भ में खुब ढ़ाला. बहुत ही सुन्दर. अन्य दोहो पर भी लिखने पर विचार करें.
    आप तो लालाजी से बाबाजी बन गए.

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  6. Kisi bhi vishay ko chiththe par vyang bana dene ka agrah apki pichali kayi posts se dekh raha hun. vyang ka dayra chota mat kijiye.
    Kavirdaas ke dohon ka bhavarth chithagiri ke paripreksh me padh kar majaa aayaa.

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  7. हाँ एक और दोहा तर्कसंगत है ना... लिखा तो रहिम ने है...

    रहिमन धागा प्रेम का मत तोडो चटकाय
    टुटे फिर जुडे नहीं जुडे गाँठ पड जाए।

    (शायद महापुरूष पढ लें)

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  8. मान गए 'गुरू' !

    खाता बही बंद कर साहित्य पढ़ाना प्रारंभ कीजिए. यकीन मानिए, बहुत से और चेले आपका लोहा मानेंगे.

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  9. बेनामी12/21/2006 02:12:00 am

    वाह! क्या बात है . कबीर की साखियों का एकदम नये ढंग का चिट्ठायुगीन भावार्थ प्रस्तुत किया है . सभी आधुनिक कबीर-प्रेमी लाभान्वित होंगे . अब अगर बनारस में बैठे कबीर-विशेषज्ञ शुकदेव सिंह नाराज हों तो होते रहें .

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  10. कबिरा खड़ा बजार में, सब की मांगे खैर।
    ना काहू सै दोस्ती ,ना काहू सै बैर॥

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  11. कबिरा ( नारद ) खड़ा है जाल पर, लिये लुकाटी हाथ
    जो सच ही चिट्ठालिखे, चले हमारे साथ
    उड़न तश्तरी उड़ रही बिना पंख, बिन डोर
    बैठे बाकी के सभी ठोक रहे हैं माथ

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  12. आपकी आज का लेख बहुत ही अच्‍छा था, इस लेख को पढ़ने के बाद काफी अच्छा महसूस हुआ, किसी व्‍यर्थ की बातो मे जो प्रलाप किया जाता है उसका कोई अर्थ नही है। किसी के उपर अक्षेप करना ठीक नही है। कबीर के माध्‍यम से आपने आज काफी कुछ सीख दी है।
    आपकी उड़नतश्‍तरी पर बैठ कर काफी कुछ सीखने को मिल जाता है। आप लिखते नही है बॉंचते है, समझाते है।
    कृपया अन्‍यथा न लिजियेगा की कडी मे एक और अन्‍यथा ले लिजिये स्‍माइली के साथ '' अरे-अरे समीर जी आप खडे(चुनाव) क्‍यो है बैठ जाईये, कहे को इस भारी शरीर के भार से पैरो को तकलीफ दे रहे है।

    :-) नोट कर ले।

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  13. बेनामी12/21/2006 09:15:00 am

    ' मैदा इक पकवान बहु , बैठ कबीरा जीम '

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  14. वाह वाह!! मजा आ गया. मेरा पसंदीदा दोहा ये है (पता नही कबीरदास जी का है या नही).
    "निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छबाय,
    बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय!!"
    और सब चिट्ठाकारों का स्वभाव निर्मल हो ही गया होगा, क्यों कि खूब सारे निन्दक हैं आस पास मे!

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  15. चिट्ठाजगत के परिपेक्ष्य में अच्छा विवेचन किया है आपने कबीर के दोहों का ।

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  16. जबरदस्त है भाई साहब, एक नम्बर।

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  17. बेनामी12/23/2006 06:58:00 am

    आपने तो मेरी व्यथा (तीन दिन की ऑफलाइन कैद « ई-पंडित) को दोहा नंबर- एक में उदघाटित कर दिया। मेरा प्रणाम स्वीकार करें कविश्रेष्ठ।

    कबीर जी स्वर्ग में बैठे अपने संगणक पर इस पोस्ट को पढ़कर अत्यंत हर्षित होंगे। धन्य हैं हे कवीन्द्र आप, इसी लिए तो कहा गया है - "जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि"

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