मैथली शरण गुप्त ने लिखा है कि राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है। इस पर आपातकाल के दौरान बंद नेताओं के छुटने पर उनकी काव्य प्रतिभा का देश को एकाएक ज्ञान हुआ जिसमें अटल बिहारी बाजपेयी के कवि होने पर हरि शंकर परसाई कहते हैं, कि कारागार निवास स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है। मेरा मानना है कि विदेश प्रवास स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है। तो बस उसी काव्य धारा में, प्रवासी पीड़ा को दर्शाती मेरी यह प्रस्तुति:
बहुत खुश हूँ फिर भी न जाने क्यूँ
ऑखों में एक नमीं सी लगे
मेरी हसरतों के महल के नीचे
खिसकती जमीं सी लगे
सब कुछ तो पा लिया मैने
फिर भी एक कमी सी लगे
मेरे दिल के आइने पर
यादों की कुछ धूल जमीं सी लगे
जिंदा हूँ यह एहसास तो है फिर भी
अपनी धडकन कुछ थमीं सी लगे
खुद से नाराज होता हूँ जब भी
जिंदगी मुझे अजनबी सी लगे
कुछ चिराग जलाने होंगे दिन मे
सूरज की रोशनी अब कुछ कम सी लगे
चलो उस पार चलते हैं
जहॉ की हवा कुछ अपनी सी लगे.
--समीर लाल 'समीर'
--ख्यालों की बेलगाम उड़ान...कभी लेख, कभी विचार, कभी वार्तालाप और कभी कविता के माध्यम से......
हाथ में लेकर कलम मैं हालेदिल कहता गया
काव्य का निर्झर उमड़ता आप ही बहता गया.
मंगलवार, नवंबर 28, 2006
शनिवार, नवंबर 25, 2006
बर्थ-डे बेबी के श्रीमुख से.....
आज तरकश के तीर या यूँ कहें, तरकश के खोल(इसी में तो सारे तीर थमें हैं) का जन्म दिन है. सोचा था, इस शुभ दिन पर इनकी कुछ बर्थ-डे बम्पिंग की जायेगी. रवि कामदार ने दोस्ती का यह फर्ज हमसे पहले ही कूद कर निभा दिया, लोकल है भाई. हम तो हर मौकों पर देर से ही पहूँच पाते हैं. फिर सोचा, चलो केक कटवायेंगे, तो वो भी सागर भाई निपटा गये. अब हम क्या करें, सोचा, इस स्वपन देखने वाले बालक की भविष्य की योजनाओं पर ही कुछ लिखें, तो तब तक ये खुद ही वो भी लिख मारे और हम फिर कलम कागज लेकर बैठे रह गये. फिर हमने सोचा, समय समय पर अपने बडे भाई संजय के भक्त बालक पंकज से हुई बातचीत को ही उनकी आत्मकथा का रुप में पेश कर देते है, बिना कोई कैंची चलाये...वाकई, एक भी बोल, जैसे पंकज के श्रीमुख से निकले, नहीं बदले, बस एक गठरी में बाँधे और आप के लिये ले आये हैं:
चेतावनी: थोड़ा रुमाल वगैरह साथ में लेकर बैठियेगा.कभी आँख भर आयी तो काम आयेगा और कभी हंसी आयेगी, तो भी रुमाल से मुँह दबाकर रोक सकते है. नींद आ जाये तो उससे मुँह ढककर सो जायें!!
बचपन में 6 साल तक बिदासर नामक कस्बे में रहता था जो राजस्थान में है। मुझे बचपन की धुन्धली धुन्धली तस्वीरें याद हैं। पापा तब कोलकाता में व्यवसाय करते थे और गाँव में मै माँ, दादी और भैया के साथ रहता था।
मैं बहुत ही शरारती था और कामचोर भी था। भैया को मैने जितना परेशान किया है शायद ही किसी को किया होगा। और भैया शुरू से ही मेरा इतना ध्यान रखते आए हैं कि क्या कहुँ। मुझे याद है इतना बडा हो गया था फिर भी भैया की पीठ पर ही सवारी करता था चाहे कहीं भी जाना हो। कभी पैदल नहीं चलता था। कई बार भैया को उल्लु भी बनाता था और उनको वचन देता था कि बाज़ार में पैदल चलुंगा पर फिर बाज़ार आते ही अड जाता था कि अब मुझे गोदी लो। भैया बेचारे फिर मुझे लादकर चलते थे। मैं था भी गोलमटोल मोटा ताजा। आज जैसा नही था।
एक बार तो भैया गिर पडे मैरे बोझ से और उनके घुटने छिल गए। आज शर्म आती है मुझे पर उस वक्त तो बडा बेशर्म था क्योंकि उसके बाद भी बाकी का रास्ता भैया पर लदकर ही पुरा किया था। :)
मेरे जीन में फिल्म और विज्ञापन है। छोटा था ना तब से अन्दर का कीडा कुलबुलाने लगा था।
तब तो गाँव में सिनेमा क्या टीवी भी नहीं थी। शायद बिजली ही नही थी। पर मेरा दिमाग फिर भी कैमरा एंगल की तरह से सोचता था।
मैरे पास प्लास्टीक का लाल रंग का हाथी था पहिए वाला। मुझे बडा प्यारा था। मैं रेत के टीले बनाता फिर उसपर से उसको चलाता। कभी एक आँख बन्द करके देखता। फिर दुसरी फिर जो एंगल अच्छा लगता उससे देखता। :)
माँ को भी बहुत परेशान करता था। हमारे यहाँ पक्का शौच नही था। सुबह में मैरे घर के बाहर खुल्ली जगह में पैखाने से लक्ष्मण रेखा बनाता था, और माँ को सब साफ करना पडता था।
भैया की चित्रकारी की पदर्शनी गाँव की दिवारों पर देखने को मिलती थी और मैं कोयले से बनाई उनकी कलाकृतियों की समिक्षा करता था।
फिर हम सब सूरत आ गए। यहाँ भी बचपन से ही बहुत एक्सेपेरीमेंट किया करता था, स्कूल में भी घर में भी।
एक अलमारी के नीचे गत्ते लगाकर पुरा अन्धेरा करता फिर अलमारी के नीचे एकदम अन्दर सफेद काग़ज लगाता। फिर फिल्मों की छोटी रील के टुकडे ( जो हम कहीं से लाते थे ) की सीरीज बनाता और टार्च से प्रोजेक्शन करता। निर्देशक भी मैं, प्रोजेक्टर भी मैं, अल्मारी वाला मल्टीप्लेक्स भी मेरा और दर्शक भी मैं। कभी कभी मेरी छोटी बहन खुशी भी मेरी फिल्मे देखती थी और मुझे यश चोपडा से कम नही समझती थी।
मैं पापा से बहुत डरता था, आज भी डरता हूँ। माँ से कभी नहीं -याद ही नही कभी उन्होने डाण्टा भी हो।
मुझे अस्थमा था, बहुत बुरा अनुभव है वो तो। अस्थमा है भी वैसे तो पर अब दौरा नही पडता। तब तो इन्हेलर का अविष्कार ही नही हुआ था। मै फल नही खा सकता था, चोकलेट नही खा सकता था, तली चिजे नही खा सकता था, कोल्ड ड्रिंक, दूध, वेफर, मावा मिठाई कुछ नही कुछ नही।
संतो की तरह जीया इस मामले में तो। पुरे बचपन में एकाध बार ही चोकलेट चखी। केले का तो स्वाद ही नहीं पता था, दो चार साल पहले ही पता चला। :)
रात को दौरा पडता था, सांस नहीं आता था। पुरी रात बैठा रहता था, जैसे तैसे सांस लेता था।
पता है, मैं हँस भी नही सकता था। क्योंकि बहुत हंस लेता तो शरीर में हवा की मात्रा कम हो जाती और दमे का दौरा पड जाता और मेरी लग जाती। मैं रो भी नही सकता था, क्योंकि रोने से हिचकी बन्ध जाती और दमे का दौरा पड जाता था।
आज वो दिन याद करके रो सकता हुँ। :) क्योंकि अब नही पडता दौरा।
हम जब सूरत आए तो हमारे पास एक सुटकेश ही थी। उसमे कुछ बर्तन और कुछ कपडे थे। बस।
मैने गरीबी को बहुत करीब से देखा है। और सिखा है कि जिन्दगी की भयावहता कैसी होती है। पर माँ ने कभी शिकायत नही की और यह अहसास भी नही होने दिया कि हम अभाव मे हैं।
पापा तो मेरे लिए कुछ भी कर सकते थे। उन्होने मेरी फरमाइश पर घर में टीवी लगाई जब तब की बेंक में टीवी जितने ही पैसे थे। :) (यह बात माँ ने बताई बाद में)
घर में केबल टीवी भी मेरी फरमाइश पर लगा। मैं टीवी पर विज्ञापन देखता था। सिर्फ विज्ञापन। पागलों की तरह।
बस फिर युँही कटती रही...... सूरत से आसाम फिर अब अहमदाबाद।
भविष्य की योजनाएँ:
मुझे छवि को भारत की अग्रणी डिजायन कम्पनी बनाना है। तरकश.कॉम को सबसे लोकप्रिय हिन्दी साइट बनाना है। डिजायन वर्क्स, अपूर्व जिसमें मैं पार्टनर हुँ को भी देखना है।
करीबी मित्र रवि के सारे ड्रीम प्रोजेक्टस जैसे कि गो शोपी, ब्युगल बिजनेस वगैरह की ब्रान्डिग करनी है। जनवरी से हमारी इ-कोमर्स शोपिंग साइट की लोंचिंग करनी है।
फिर भविष्य में मुझे रेस्टोरेंट खोलना है, कोफी शोप खोलनी है। नाम वगैरह सब सोच रखे हैं। :)
और बिल्कुल मुझे फिल्म बनानी है। और टीवी धारावाहिक भी। मैं नागेश कुकुनुर टाइप की फिल्में बनाउंगा। मसाला फिल्मे शायद ना बनाऊँ।
बहुत काम है... आज एक और जन्मदिन आ गया... अभी तो इतने काम पडे हैं।
मै कभी रिटायर नही होने वाला।
भारत के बारे में:
मुझे मेरे देश से बहुत प्यार है। मै इसे छोडकर कभी नही जाउंगा। बल्कि इसे फिर से सोने की चिडीया बनाना है। भारत को शेर बनना है। हमें कायरों की तरह नहीं जीना। हमे दुनिया से लोहा लेना है और पुरी दुनिया को झुकाना है।
मैं सपने बहुत देखता हुँ। रोज देखता हुँ। मुझे यह भी करना है वो भी करना कितना कुछ करना है।
मुझे गुस्सा नही आता, बहुत शांत रहता हुँ। सिर्फ छः बजे के बाद मनमोहन सिह पर गुस्सा आता है।
क्योंकि इन लोगों ने मेरे देश का बंटाढार करके रखा है।
और क्या बताऊँ? मै आपसे बहुत कुछ कहना चाहता हुँ पर कैसे?
बस एक आखिरी बात... हम संघर्ष कर रहे हैं और सारी जिन्दगी करते रहेंगे।
मै हार नही मानने वाला।
//बालक पंकज को जन्म दिन की ढ़ेरों शुभकामनाऐं एवं बहुत बहुत बधाई.//
नोट: पंकज के विषय में काफी जानकारी निरंतर के पिछले अंक में भी अनूप शुक्ल जी के द्वारा दी गई थी.
चेतावनी: थोड़ा रुमाल वगैरह साथ में लेकर बैठियेगा.कभी आँख भर आयी तो काम आयेगा और कभी हंसी आयेगी, तो भी रुमाल से मुँह दबाकर रोक सकते है. नींद आ जाये तो उससे मुँह ढककर सो जायें!!
बचपन में 6 साल तक बिदासर नामक कस्बे में रहता था जो राजस्थान में है। मुझे बचपन की धुन्धली धुन्धली तस्वीरें याद हैं। पापा तब कोलकाता में व्यवसाय करते थे और गाँव में मै माँ, दादी और भैया के साथ रहता था।
मैं बहुत ही शरारती था और कामचोर भी था। भैया को मैने जितना परेशान किया है शायद ही किसी को किया होगा। और भैया शुरू से ही मेरा इतना ध्यान रखते आए हैं कि क्या कहुँ। मुझे याद है इतना बडा हो गया था फिर भी भैया की पीठ पर ही सवारी करता था चाहे कहीं भी जाना हो। कभी पैदल नहीं चलता था। कई बार भैया को उल्लु भी बनाता था और उनको वचन देता था कि बाज़ार में पैदल चलुंगा पर फिर बाज़ार आते ही अड जाता था कि अब मुझे गोदी लो। भैया बेचारे फिर मुझे लादकर चलते थे। मैं था भी गोलमटोल मोटा ताजा। आज जैसा नही था।
एक बार तो भैया गिर पडे मैरे बोझ से और उनके घुटने छिल गए। आज शर्म आती है मुझे पर उस वक्त तो बडा बेशर्म था क्योंकि उसके बाद भी बाकी का रास्ता भैया पर लदकर ही पुरा किया था। :)
मेरे जीन में फिल्म और विज्ञापन है। छोटा था ना तब से अन्दर का कीडा कुलबुलाने लगा था।
तब तो गाँव में सिनेमा क्या टीवी भी नहीं थी। शायद बिजली ही नही थी। पर मेरा दिमाग फिर भी कैमरा एंगल की तरह से सोचता था।
मैरे पास प्लास्टीक का लाल रंग का हाथी था पहिए वाला। मुझे बडा प्यारा था। मैं रेत के टीले बनाता फिर उसपर से उसको चलाता। कभी एक आँख बन्द करके देखता। फिर दुसरी फिर जो एंगल अच्छा लगता उससे देखता। :)
माँ को भी बहुत परेशान करता था। हमारे यहाँ पक्का शौच नही था। सुबह में मैरे घर के बाहर खुल्ली जगह में पैखाने से लक्ष्मण रेखा बनाता था, और माँ को सब साफ करना पडता था।
भैया की चित्रकारी की पदर्शनी गाँव की दिवारों पर देखने को मिलती थी और मैं कोयले से बनाई उनकी कलाकृतियों की समिक्षा करता था।
फिर हम सब सूरत आ गए। यहाँ भी बचपन से ही बहुत एक्सेपेरीमेंट किया करता था, स्कूल में भी घर में भी।
एक अलमारी के नीचे गत्ते लगाकर पुरा अन्धेरा करता फिर अलमारी के नीचे एकदम अन्दर सफेद काग़ज लगाता। फिर फिल्मों की छोटी रील के टुकडे ( जो हम कहीं से लाते थे ) की सीरीज बनाता और टार्च से प्रोजेक्शन करता। निर्देशक भी मैं, प्रोजेक्टर भी मैं, अल्मारी वाला मल्टीप्लेक्स भी मेरा और दर्शक भी मैं। कभी कभी मेरी छोटी बहन खुशी भी मेरी फिल्मे देखती थी और मुझे यश चोपडा से कम नही समझती थी।
मैं पापा से बहुत डरता था, आज भी डरता हूँ। माँ से कभी नहीं -याद ही नही कभी उन्होने डाण्टा भी हो।
मुझे अस्थमा था, बहुत बुरा अनुभव है वो तो। अस्थमा है भी वैसे तो पर अब दौरा नही पडता। तब तो इन्हेलर का अविष्कार ही नही हुआ था। मै फल नही खा सकता था, चोकलेट नही खा सकता था, तली चिजे नही खा सकता था, कोल्ड ड्रिंक, दूध, वेफर, मावा मिठाई कुछ नही कुछ नही।
संतो की तरह जीया इस मामले में तो। पुरे बचपन में एकाध बार ही चोकलेट चखी। केले का तो स्वाद ही नहीं पता था, दो चार साल पहले ही पता चला। :)
रात को दौरा पडता था, सांस नहीं आता था। पुरी रात बैठा रहता था, जैसे तैसे सांस लेता था।
पता है, मैं हँस भी नही सकता था। क्योंकि बहुत हंस लेता तो शरीर में हवा की मात्रा कम हो जाती और दमे का दौरा पड जाता और मेरी लग जाती। मैं रो भी नही सकता था, क्योंकि रोने से हिचकी बन्ध जाती और दमे का दौरा पड जाता था।
आज वो दिन याद करके रो सकता हुँ। :) क्योंकि अब नही पडता दौरा।
हम जब सूरत आए तो हमारे पास एक सुटकेश ही थी। उसमे कुछ बर्तन और कुछ कपडे थे। बस।
मैने गरीबी को बहुत करीब से देखा है। और सिखा है कि जिन्दगी की भयावहता कैसी होती है। पर माँ ने कभी शिकायत नही की और यह अहसास भी नही होने दिया कि हम अभाव मे हैं।
पापा तो मेरे लिए कुछ भी कर सकते थे। उन्होने मेरी फरमाइश पर घर में टीवी लगाई जब तब की बेंक में टीवी जितने ही पैसे थे। :) (यह बात माँ ने बताई बाद में)
घर में केबल टीवी भी मेरी फरमाइश पर लगा। मैं टीवी पर विज्ञापन देखता था। सिर्फ विज्ञापन। पागलों की तरह।
बस फिर युँही कटती रही...... सूरत से आसाम फिर अब अहमदाबाद।
भविष्य की योजनाएँ:
मुझे छवि को भारत की अग्रणी डिजायन कम्पनी बनाना है। तरकश.कॉम को सबसे लोकप्रिय हिन्दी साइट बनाना है। डिजायन वर्क्स, अपूर्व जिसमें मैं पार्टनर हुँ को भी देखना है।
करीबी मित्र रवि के सारे ड्रीम प्रोजेक्टस जैसे कि गो शोपी, ब्युगल बिजनेस वगैरह की ब्रान्डिग करनी है। जनवरी से हमारी इ-कोमर्स शोपिंग साइट की लोंचिंग करनी है।
फिर भविष्य में मुझे रेस्टोरेंट खोलना है, कोफी शोप खोलनी है। नाम वगैरह सब सोच रखे हैं। :)
और बिल्कुल मुझे फिल्म बनानी है। और टीवी धारावाहिक भी। मैं नागेश कुकुनुर टाइप की फिल्में बनाउंगा। मसाला फिल्मे शायद ना बनाऊँ।
बहुत काम है... आज एक और जन्मदिन आ गया... अभी तो इतने काम पडे हैं।
मै कभी रिटायर नही होने वाला।
भारत के बारे में:
मुझे मेरे देश से बहुत प्यार है। मै इसे छोडकर कभी नही जाउंगा। बल्कि इसे फिर से सोने की चिडीया बनाना है। भारत को शेर बनना है। हमें कायरों की तरह नहीं जीना। हमे दुनिया से लोहा लेना है और पुरी दुनिया को झुकाना है।
मैं सपने बहुत देखता हुँ। रोज देखता हुँ। मुझे यह भी करना है वो भी करना कितना कुछ करना है।
मुझे गुस्सा नही आता, बहुत शांत रहता हुँ। सिर्फ छः बजे के बाद मनमोहन सिह पर गुस्सा आता है।
क्योंकि इन लोगों ने मेरे देश का बंटाढार करके रखा है।
और क्या बताऊँ? मै आपसे बहुत कुछ कहना चाहता हुँ पर कैसे?
बस एक आखिरी बात... हम संघर्ष कर रहे हैं और सारी जिन्दगी करते रहेंगे।
मै हार नही मानने वाला।
//बालक पंकज को जन्म दिन की ढ़ेरों शुभकामनाऐं एवं बहुत बहुत बधाई.//
नोट: पंकज के विषय में काफी जानकारी निरंतर के पिछले अंक में भी अनूप शुक्ल जी के द्वारा दी गई थी.
शुक्रवार, नवंबर 24, 2006
बस्ती से दूर....
चलो, बस्ती से दूर चलें!!!!
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कृप्या पंक्तियों के भीतर भावनाओं को पढ़िये:
बस्ती में जब भी आग लगी
भग निकले तब शैतान सभी
मरने वालों मे वो भी थे
जिनको कहते भगवान कभी.
कल को वो फिर से लौटेंगे
जब आग बुझा दी जायेगी
इस बस्ती की सूरत भी तब
बद से बदत्तर हो जायेगी.
कोई रोको इनको आने से
या बच बच कर भग जाने से
इनका है हमसे मेल नहीं
बस्ती में रहना खेल नहीं.
--समीर लाल 'समीर'
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कृप्या पंक्तियों के भीतर भावनाओं को पढ़िये:
बस्ती में जब भी आग लगी
भग निकले तब शैतान सभी
मरने वालों मे वो भी थे
जिनको कहते भगवान कभी.
कल को वो फिर से लौटेंगे
जब आग बुझा दी जायेगी
इस बस्ती की सूरत भी तब
बद से बदत्तर हो जायेगी.
कोई रोको इनको आने से
या बच बच कर भग जाने से
इनका है हमसे मेल नहीं
बस्ती में रहना खेल नहीं.
--समीर लाल 'समीर'
सोमवार, नवंबर 20, 2006
ताली पुराण
मित्रों
ताली पुराण की मुण्ड़लियाँ लिखते समय मेरे दिल में यह ख्याल कतई नहीं था कि जब हम कविता पाठ करें तो लोग तालियां बजायें. यह तो मैने महज इसकी उपयोगिता और फायदों को मद्दे नजर रख कर जनहित मे लिखी है. यह एक ऐसा साज है कि जिस किसी के भी दोनों हाथ सलामत हैं, वो इसे बजा सकता है. और आजकल तो अगर एक खास तरीके से आप इसे बजाना सीख जायें तो पटना नगर निगम में नौकरी भी मिल सकती है. तो चलिये सुनते हैं, इस गुणों की खान, मुफ्त में उपलब्ध और बिना खास रियाज के बजने वाले इस वाद्य, ताली का पुराण:
ताली पुराण
नेता, कवि, महात्मा कि गायक गीत सुनाय,
बिन ताली सब सून है, रंग न जमने पाय.
रंग न जमने पाय, ताली से मच्छर हैं मरते
डेंगू, गुनिया, मलेरिया, पास आने से डरते.
गुरु मंत्र लो; तुम डिप्रेशन को दूर भगाओ
सुन कर मेरे कवितायें, ताली खुब बजाओ.
हाथों में गर हो झुनझुनी, ताली से मिट जाय
गठिया वात के रोग में, झट ही आराम लगाय.
झट ही आराम लगाय कि औषधी है ये गुणकारी
डॉक्टर साहब बतलायेंगे, तो दवा न बिके बेचारी
जड़ी बुटियां और कितनी भी कसरत करते जाओ
सब मर्जों की बस एक दवा है, ताली खुब बजाओ.
ताली के अंदाज में, हैं छुपे हुये कई राज
किसकी भद्द उतार दे, किसको दे दे ताज.
किसको दे दे ताज, इसको मै शीश नवाता
ताली बजती जाये, सोच कर गीत सुनाता
सन्नाटे का राज हो, अगर यह धर ले मौन
इसका बस है आसरा, वरना हमको पूछे कौन.
खैनी कभी मत खाईये, बिन ताली मारे आप
कितना भी हो घिस चुके, आता नहीं वो स्वाद
आता नहीं वो स्वाद, ताली करवाती सब काज
बच्चा हो या बड़ा कोई, रहा ताली का मोहताज
हम जो लिख कर लाये हैं, वो कैसा लगा श्रीमान
जब ताली की आवाज उठे, तब हम भी लेंगे जान.
याददाश्त पर आपकी, हमको पूरा है विश्वास
मानव ही तो हैं आप भी, थकने का इतिहास
थकने का इतिहास कि इसकी चिंता न करना
हाथ हिला कर बतलाऊँगा कब ताली है भरना
कहते है कविराय कि तुम बस डूब के सुनना
जब मजा बहुत आ जाये, तब तुम ताली धुनना.
ताली का विस्तार देखिये, सारे जग में आज
भाषा का मोहताज नहीं, ऐसा है यह साज
ऐसा है यह साज कि हर धुन में बजता है
बच्चे, बुढ़े और जवान, सबहि पर फबता है
कहे समीर, इस बाजे में लागे न एक भी पैसा
खुल कर खुब बजाईये, इसमें शरमाना कैसा.
सदियों का इतिहास है, इस पर हमको नाज
मानव की पहली खोज में, आता है यह साज
आता है यह साज कि हरदम मंदिर में बजता
भजन, कीर्तन या आरती, जब भक्त है करता
इसकी ही सुर ताल है जो सबको रखे जगाये
वरना अखंड रामायण में, भक्त सभी सो जाये.
चुन्नु का है बर्थ-डे, अब इसकी महिमा देख
ताली की आवाज बिन, कभी न कटता केक
कभी न कटता केक , न ही कोई फीता कटता
शिलान्यास का मौका हो, तब भी यह बजता
बिन इसके नहीं कोई बंदर भी नाच नाचता
फिर मेरी कहाँ बिसात जो मैं लिखा बांचता.
सरदी लगती आपको, ताली से गरमी आये
निपट अकेले जो आप हों, डर को दूर भगाये
डर को दूर भगाये कि बहुत ही है हितकारी
गूँगों की आवाज भी, यही तो बनी बिचारी
कहे समीर कविराय कि कितनी महिमा गाऊँ
खुद बजा कर देखिये, मैं भी क्या क्या बतलाऊँ.
--समीर लाल ‘समीर’
// अब यहाँ ब्लाग पर ताली का मतलब टिप्पणी होता है, यह तो सभी सुधीजनों को विदित ही है.//
ताली पुराण की मुण्ड़लियाँ लिखते समय मेरे दिल में यह ख्याल कतई नहीं था कि जब हम कविता पाठ करें तो लोग तालियां बजायें. यह तो मैने महज इसकी उपयोगिता और फायदों को मद्दे नजर रख कर जनहित मे लिखी है. यह एक ऐसा साज है कि जिस किसी के भी दोनों हाथ सलामत हैं, वो इसे बजा सकता है. और आजकल तो अगर एक खास तरीके से आप इसे बजाना सीख जायें तो पटना नगर निगम में नौकरी भी मिल सकती है. तो चलिये सुनते हैं, इस गुणों की खान, मुफ्त में उपलब्ध और बिना खास रियाज के बजने वाले इस वाद्य, ताली का पुराण:
ताली पुराण
नेता, कवि, महात्मा कि गायक गीत सुनाय,
बिन ताली सब सून है, रंग न जमने पाय.
रंग न जमने पाय, ताली से मच्छर हैं मरते
डेंगू, गुनिया, मलेरिया, पास आने से डरते.
गुरु मंत्र लो; तुम डिप्रेशन को दूर भगाओ
सुन कर मेरे कवितायें, ताली खुब बजाओ.
हाथों में गर हो झुनझुनी, ताली से मिट जाय
गठिया वात के रोग में, झट ही आराम लगाय.
झट ही आराम लगाय कि औषधी है ये गुणकारी
डॉक्टर साहब बतलायेंगे, तो दवा न बिके बेचारी
जड़ी बुटियां और कितनी भी कसरत करते जाओ
सब मर्जों की बस एक दवा है, ताली खुब बजाओ.
ताली के अंदाज में, हैं छुपे हुये कई राज
किसकी भद्द उतार दे, किसको दे दे ताज.
किसको दे दे ताज, इसको मै शीश नवाता
ताली बजती जाये, सोच कर गीत सुनाता
सन्नाटे का राज हो, अगर यह धर ले मौन
इसका बस है आसरा, वरना हमको पूछे कौन.
खैनी कभी मत खाईये, बिन ताली मारे आप
कितना भी हो घिस चुके, आता नहीं वो स्वाद
आता नहीं वो स्वाद, ताली करवाती सब काज
बच्चा हो या बड़ा कोई, रहा ताली का मोहताज
हम जो लिख कर लाये हैं, वो कैसा लगा श्रीमान
जब ताली की आवाज उठे, तब हम भी लेंगे जान.
याददाश्त पर आपकी, हमको पूरा है विश्वास
मानव ही तो हैं आप भी, थकने का इतिहास
थकने का इतिहास कि इसकी चिंता न करना
हाथ हिला कर बतलाऊँगा कब ताली है भरना
कहते है कविराय कि तुम बस डूब के सुनना
जब मजा बहुत आ जाये, तब तुम ताली धुनना.
ताली का विस्तार देखिये, सारे जग में आज
भाषा का मोहताज नहीं, ऐसा है यह साज
ऐसा है यह साज कि हर धुन में बजता है
बच्चे, बुढ़े और जवान, सबहि पर फबता है
कहे समीर, इस बाजे में लागे न एक भी पैसा
खुल कर खुब बजाईये, इसमें शरमाना कैसा.
सदियों का इतिहास है, इस पर हमको नाज
मानव की पहली खोज में, आता है यह साज
आता है यह साज कि हरदम मंदिर में बजता
भजन, कीर्तन या आरती, जब भक्त है करता
इसकी ही सुर ताल है जो सबको रखे जगाये
वरना अखंड रामायण में, भक्त सभी सो जाये.
चुन्नु का है बर्थ-डे, अब इसकी महिमा देख
ताली की आवाज बिन, कभी न कटता केक
कभी न कटता केक , न ही कोई फीता कटता
शिलान्यास का मौका हो, तब भी यह बजता
बिन इसके नहीं कोई बंदर भी नाच नाचता
फिर मेरी कहाँ बिसात जो मैं लिखा बांचता.
सरदी लगती आपको, ताली से गरमी आये
निपट अकेले जो आप हों, डर को दूर भगाये
डर को दूर भगाये कि बहुत ही है हितकारी
गूँगों की आवाज भी, यही तो बनी बिचारी
कहे समीर कविराय कि कितनी महिमा गाऊँ
खुद बजा कर देखिये, मैं भी क्या क्या बतलाऊँ.
--समीर लाल ‘समीर’
// अब यहाँ ब्लाग पर ताली का मतलब टिप्पणी होता है, यह तो सभी सुधीजनों को विदित ही है.//
गुरुवार, नवंबर 16, 2006
सबको 'तरकश' सलाम
सुबह सुबह उठे, नहाये, पूजा किये और कंम्प्युटर पर आ गये. अभी ठीक से लोग इन भी नहीं किये थे और न ही गणेश जी वाला वाल पेपर लोड हो पाया था कि डिंग डांग.... "क्या हो रहा है, मै, पंकज बैगाणी 'तरकश'."
हम थोड़ा घबराये. इस तरह वो पहले कभी अवतरीत नहीं हुए थे. हमने कहा, " मैं समझ गया कि आप पंकज हैं. गुगल चैट में दिखता है कि किसने मैसेज भेजा."
वे बोले, " पंकज नहीं, पंकज बैंगाणी 'तरकश' कहो, आज से यही नाम है. और हाँ, यह मत समझना कि हमने 'सहारा ग्रुप' या अमर सिंग से कोई समझौता किया है. यह हमारा अन्नु मलिक की तरह मौलिक प्रयास है और आप, चूँकि कोर टीम में हैं, तो आप भी अपने नाम के आगे तरकश लगाया करें. नये कार्ड छपवायें और अपना नाम रखें, समीर लाल 'तरकश'. संजय और बाकी सदस्यों को भी बता दिया गया है."
और चेतावनियों का दौर जारी रहा कि कल से यह नमस्कार, प्रणाम आदि न सुनाई दे, बस 'तरकश सलाम'.
हम तो घबराये थे सो हाँ करते चले गये.
लेकिन पंकज बैंगाणी 'तरकश' तो बस तीर की तरह चलते रहे और रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे.
अगला तीर आया कि "कोर टीम में पोस्ट लेते समय तो बड़ॆ खुश दिख रहे थे, कोई सरकारी कापरेटिव समझ रखा है क्या. कि बस अध्यक्ष बन गये, लाल बत्ती की गाड़ी मिल गई, अब ऐश करो, काम करने की क्या जरुरत."
बोले, "हमारे यहाँ ऐसा नही चलेगा, काम करोगे तो ही प्रसाद मिलेगा. न तो लिखते हो और न ही लिखने वालों को लाते हो.सब कुछ क्या मेरी जिम्मेदारी है? एक तो मेरी लाल बत्ती की गाड़ी ले गये, विदेश घुम रहे हो और जवाबदारी के नाम पर, 'बड़ा शून्य'."
हमने कहा, 'चिंता न करें, जल्दी ही लिख कर कुछ भिजवाते हैं."
बोले, " क्या भिजवाते-भिजवाते लगा रखा है. अरे, और लोगों को जोड़ो. नये लोगों को लाओ. तुम्हारा लिखा तो भगवान का रचा है. न जाने क्या क्या लिखते हो. वो ख्वाबों की रानी, न जाने क्या लिख कर चैंप दिया, एक्को टिप्पणी नहीं आई. ऐसा ही लिखते रहे तो एक दिन भजिये की दुकान में भजिया तलते नजर आओगे. मैं हितैषी हूँ सो बता भी दे रहा हूँ, वरना आज की दुनिया में कौन बताता है. आगे से इस तरह के पर्सलन मैटर घर में ही सुलटाया करो, पब्लिक में लाने की जरुरत नहीं है. इसके लिये नहीं दी है आपको लाल बत्ती की गाड़ी."
हम तो भाव विभोर हो गये. आँख से आँसू टपक गये. चैट पर ही पैर पड़ लेने का मन हुआ, मगर मुआ स्क्रिन आड़े आ गया.
मैने हिम्मत जुटा कर कहा, "महाराज, हम अकेले थोड़े ही हैं, जो लाल बत्ती लिए घुम रहे हैं, आप संजय को तो कुछ नहीं कहते. और तो और न निधी जी, न सागर, न शुएब, न रवि, सब ऐश कर रहे हैं और जवाबदारी सिर्फ हमारी. यह तो गलत बात है."
बोले, "अभी सब की क्लास ले रहा हूँ, तुम पहले हो वैसे कोई बचने न पायेगा."
मैने कहा, "और आप खुद? आपको कौन कुछ कहेगा."
कहने लगे, "ज्यादा न बोला करो, और कई छिपी चीज जिस पर हम दिन रात जुटे रहते हैं, वो भी देखा करो. जाओ, देखो, कैसा मध्यांतर मस्ती में विभिन्न प्रकार के खेल लाये हैं हम, सुडोकु और शतरंज और अभी एक मेहमान लेखक कॉलम भी ला रहे हैं, एक से एक ब्लागर उसमें लगे हैं लिखने को."
हम तो उनके प्रयास पर नतमस्तक हो गये, अब आप लोग भी देखें और तरकश के लिये भी लिखें, अपने ब्लाग के सिवाय भी.
अब देखिये, परसों ही यह बात हुई और सबकी क्लास ली गई, तो संजय 'तरकश' और रवि 'तरकश' तुरंत हाजिर हुये अपनी बेहतरीन प्रस्तुति के साथ और हम यहाँ, हाजिर ही समझो. भईया, डंडे से खुदा डरता है मगर हमारा शुएब नहीं डरा. अब तक कुछ नहीं भेजा और न ही निधी और सागर ने.
अब चलते हैं, सबको 'तरकश सलाम'.
-समीर लाल 'तरकश'
हम थोड़ा घबराये. इस तरह वो पहले कभी अवतरीत नहीं हुए थे. हमने कहा, " मैं समझ गया कि आप पंकज हैं. गुगल चैट में दिखता है कि किसने मैसेज भेजा."
वे बोले, " पंकज नहीं, पंकज बैंगाणी 'तरकश' कहो, आज से यही नाम है. और हाँ, यह मत समझना कि हमने 'सहारा ग्रुप' या अमर सिंग से कोई समझौता किया है. यह हमारा अन्नु मलिक की तरह मौलिक प्रयास है और आप, चूँकि कोर टीम में हैं, तो आप भी अपने नाम के आगे तरकश लगाया करें. नये कार्ड छपवायें और अपना नाम रखें, समीर लाल 'तरकश'. संजय और बाकी सदस्यों को भी बता दिया गया है."
और चेतावनियों का दौर जारी रहा कि कल से यह नमस्कार, प्रणाम आदि न सुनाई दे, बस 'तरकश सलाम'.
हम तो घबराये थे सो हाँ करते चले गये.
लेकिन पंकज बैंगाणी 'तरकश' तो बस तीर की तरह चलते रहे और रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे.
अगला तीर आया कि "कोर टीम में पोस्ट लेते समय तो बड़ॆ खुश दिख रहे थे, कोई सरकारी कापरेटिव समझ रखा है क्या. कि बस अध्यक्ष बन गये, लाल बत्ती की गाड़ी मिल गई, अब ऐश करो, काम करने की क्या जरुरत."
बोले, "हमारे यहाँ ऐसा नही चलेगा, काम करोगे तो ही प्रसाद मिलेगा. न तो लिखते हो और न ही लिखने वालों को लाते हो.सब कुछ क्या मेरी जिम्मेदारी है? एक तो मेरी लाल बत्ती की गाड़ी ले गये, विदेश घुम रहे हो और जवाबदारी के नाम पर, 'बड़ा शून्य'."
हमने कहा, 'चिंता न करें, जल्दी ही लिख कर कुछ भिजवाते हैं."
बोले, " क्या भिजवाते-भिजवाते लगा रखा है. अरे, और लोगों को जोड़ो. नये लोगों को लाओ. तुम्हारा लिखा तो भगवान का रचा है. न जाने क्या क्या लिखते हो. वो ख्वाबों की रानी, न जाने क्या लिख कर चैंप दिया, एक्को टिप्पणी नहीं आई. ऐसा ही लिखते रहे तो एक दिन भजिये की दुकान में भजिया तलते नजर आओगे. मैं हितैषी हूँ सो बता भी दे रहा हूँ, वरना आज की दुनिया में कौन बताता है. आगे से इस तरह के पर्सलन मैटर घर में ही सुलटाया करो, पब्लिक में लाने की जरुरत नहीं है. इसके लिये नहीं दी है आपको लाल बत्ती की गाड़ी."
हम तो भाव विभोर हो गये. आँख से आँसू टपक गये. चैट पर ही पैर पड़ लेने का मन हुआ, मगर मुआ स्क्रिन आड़े आ गया.
मैने हिम्मत जुटा कर कहा, "महाराज, हम अकेले थोड़े ही हैं, जो लाल बत्ती लिए घुम रहे हैं, आप संजय को तो कुछ नहीं कहते. और तो और न निधी जी, न सागर, न शुएब, न रवि, सब ऐश कर रहे हैं और जवाबदारी सिर्फ हमारी. यह तो गलत बात है."
बोले, "अभी सब की क्लास ले रहा हूँ, तुम पहले हो वैसे कोई बचने न पायेगा."
मैने कहा, "और आप खुद? आपको कौन कुछ कहेगा."
कहने लगे, "ज्यादा न बोला करो, और कई छिपी चीज जिस पर हम दिन रात जुटे रहते हैं, वो भी देखा करो. जाओ, देखो, कैसा मध्यांतर मस्ती में विभिन्न प्रकार के खेल लाये हैं हम, सुडोकु और शतरंज और अभी एक मेहमान लेखक कॉलम भी ला रहे हैं, एक से एक ब्लागर उसमें लगे हैं लिखने को."
हम तो उनके प्रयास पर नतमस्तक हो गये, अब आप लोग भी देखें और तरकश के लिये भी लिखें, अपने ब्लाग के सिवाय भी.
अब देखिये, परसों ही यह बात हुई और सबकी क्लास ली गई, तो संजय 'तरकश' और रवि 'तरकश' तुरंत हाजिर हुये अपनी बेहतरीन प्रस्तुति के साथ और हम यहाँ, हाजिर ही समझो. भईया, डंडे से खुदा डरता है मगर हमारा शुएब नहीं डरा. अब तक कुछ नहीं भेजा और न ही निधी और सागर ने.
अब चलते हैं, सबको 'तरकश सलाम'.
-समीर लाल 'तरकश'
बुधवार, नवंबर 15, 2006
हैप्पी मधुमेह दिवस
कल विश्व मधुमेह दिवस था। मैं शाम भाभी जी के घर पहूँचा तो बड़ी खूश नजर आ रहीं थी। मेरे पहुँचते ही तपाक से बोलीं, “हैप्पी मधुमेह दिवस, भाई साहब।“
और फिर एक प्लेट में सजी मिठाई इस दिवस के उपलक्ष्य में मेरी तरफ बढ़ा दी गई।
मैने दोनो हाथ जोड़कर क्षमायाचना की और कहा, “भाभी जी, अफसोस कि मै आपकी खुशी में शामिल नहीं हो पा रहा हूँ, जबकि यह त्यौहार विश्व स्तरीय है। मेरी अपनी मजबूरियाँ हैं, मुझे डॉक्टर ने मधुमेह की वजह से ही मिठाई न खाने की हिदायत दे रखी है।“
भाभी जी के चहेरे पर मुस्कान की जगह वाया उदासी, आश्चर्य ने ले ली। कहने लगीं, “जरुर किसी इंडियन डॉक्टर के चक्कर में हैं, आप?”
मैने कहा, “जी, हैं तो वह भारतीय ही, मगर फिर भी है काबिल।“ वैसे यह भी उनके लिये आश्चर्य की ही बात थी, मगर इस वक्त विषय वस्तु मिठाई थी, न कि डॉक्टर।
बोलीं, “अरे भाई साहब, इनको कुछ नहीं मालूम। आजकल डाईट (लो शुगर) मिठाईयाँ आने लगी हैं, और ये सब हिन्दुस्तानी डॉक्टर इससे बेखबर हैं, बस मिठाई खाने को मना कर देते हैं।“
मन में आया कि कह दें, “वो डॉक्टर है, हलवाई नहीं।“
खैर, मैने भी शरमाते हुये और अंदर ही अंदर घबराते हुए मिठाई ले ली और बात का सिलसिला आगे बढ़ा. भाभी जी ने बताया कि कैसे उनके क्लब में मधुमेह दिवस पर विशेष गोष्ठी का आयोजन किया गया था और उसी में ‘शंकर मिठाईवाले’ ने लो शुगर पर कुछ रेसिपिस भी बताईं और अपनी दुकान पर विश्व मधुमेह दिवस के उपलक्ष्य मे लो शुगर की मिठाईयों की सेल भी लगाई थी. खुब जम कर बिक्री हुई.
मैने भी उन्हें नई तरीके की मिठाई सीख जाने की बधाई दी. भाभी जी ने मुस्कराते हुए बताया कि “उन्हें भी पिछले छः माह से मधुमेह है।“
उनका चेहरा देख कर लग रहा था कि मानो, कोई बड़ी उपलब्धी हासिल की हो, इस मधुमेह को पाल कर.
मैने सांत्वना जताई तो एकाएक लगभग भड़क सी पड़ी,” कैसी बात करते हैं आप भी। इसमें कोई दुख की बात थोड़े ही है।“
फिर सामान्य होते हुये, चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट और विजय भाव लाते हुए आगे कहने लगीं,“ आजकल तो मधुमेह का फैशन है, यहाँ पर। मुझे तो जब नहीं था, तब ही मैने क्लब में बता रखा था कि मुझे है, ताकि मैं कहीं ऑड-मेन-आऊट न हो जाऊँ। मैं तो तभी से लो-केलोरी डाइट और शूगर फ्री चाय अपने लिये आर्डर करती थी।“
“इसके कई फायदे हैं-आप किसी के घर जायें तो भी आपकी अलग से खातिर की जाती है। चाय अलग से बन कर आती है। आपको यह राजसी रोग है, यही आपको सोसाईटी में ऊँचा स्थान दिलाता है और साथ ही अगर रक्तचाप भी हो, तो क्या कहने, सोने में सुहागा” उन्होंने अपनी बात आगे जारी रखते हुए, एक आँख हल्की सी दबाते हुए, कहा, “ आप अभी भारत से नये आये हैं, थोड़ा समय लगेगा फिर यहाँ पर भारतीय समाज के भी चाल चलन समझ जायेंगे।“
मैने कहा, “सो तो लग रहा है। जल्दी जल्दी सीख भी रहा हूँ।“
भाभी जी की बात अभी पूरी नहीं हुई थी, सो आगे बोलीं,” वैसे हम यहाँ रहकर भी किसी आम भारतीय से कम भारतीय नहीं हैं। बल्कि यूँ कहें कि ज्यादा ही हैं। हम अपने सारे भारतीय त्यौहार इन्क्लूडिंग करवा-चौथ और छ्ट भी क्लब में सेलिब्रेट करते हैं, और विश्व स्तरीय जैसे यह मधुमेह दिवस और वैलेंटाईन डे आदि भी।“
मैने कहा, “आप जैसों पर ही हमें गर्व है, जो भारतीयता को जिंदा रखें हैं। वरना तो यह कब की दफन हो जाती। आपका बहुत साधुवाद। अब चलता हूँ, इजाजत दें।“
भाभी जी ने भी मुस्कुराते हुये नमस्ते किया और कहा, “ये आपको न्यू ईयर पार्टी का आमंत्रण भिजवा देंगे, आइयेगा जरुर, समाज के बाकी लोगों से भी आपका परिचय हो जायेगा।“
अपनी स्विकारोत्ति देकर मैं चल पड़ा मगर रास्ते भर यह प्रश्न मेरे दिमाग में गुंजता रहा; यह कैसा भारत के भारतियों से ज्यादा भारतीय समाज है, जो १४ नवम्बर को विश्व मधुमेह दिवस तो मनाता है, मगर नेहरु जी के जन्म दिन-बाल दिवस भूल जाता है।
खैर, जैसा भी है, अब तो मै भी उसी क्लब का सदस्य होने जा रहा हूँ, शायद मुझे देख और सुनकर भी कोई नया आया भारतीय कुछ सालों बाद यही प्रश्न उठाये।
और फिर एक प्लेट में सजी मिठाई इस दिवस के उपलक्ष्य में मेरी तरफ बढ़ा दी गई।
मैने दोनो हाथ जोड़कर क्षमायाचना की और कहा, “भाभी जी, अफसोस कि मै आपकी खुशी में शामिल नहीं हो पा रहा हूँ, जबकि यह त्यौहार विश्व स्तरीय है। मेरी अपनी मजबूरियाँ हैं, मुझे डॉक्टर ने मधुमेह की वजह से ही मिठाई न खाने की हिदायत दे रखी है।“
भाभी जी के चहेरे पर मुस्कान की जगह वाया उदासी, आश्चर्य ने ले ली। कहने लगीं, “जरुर किसी इंडियन डॉक्टर के चक्कर में हैं, आप?”
मैने कहा, “जी, हैं तो वह भारतीय ही, मगर फिर भी है काबिल।“ वैसे यह भी उनके लिये आश्चर्य की ही बात थी, मगर इस वक्त विषय वस्तु मिठाई थी, न कि डॉक्टर।
बोलीं, “अरे भाई साहब, इनको कुछ नहीं मालूम। आजकल डाईट (लो शुगर) मिठाईयाँ आने लगी हैं, और ये सब हिन्दुस्तानी डॉक्टर इससे बेखबर हैं, बस मिठाई खाने को मना कर देते हैं।“
मन में आया कि कह दें, “वो डॉक्टर है, हलवाई नहीं।“
खैर, मैने भी शरमाते हुये और अंदर ही अंदर घबराते हुए मिठाई ले ली और बात का सिलसिला आगे बढ़ा. भाभी जी ने बताया कि कैसे उनके क्लब में मधुमेह दिवस पर विशेष गोष्ठी का आयोजन किया गया था और उसी में ‘शंकर मिठाईवाले’ ने लो शुगर पर कुछ रेसिपिस भी बताईं और अपनी दुकान पर विश्व मधुमेह दिवस के उपलक्ष्य मे लो शुगर की मिठाईयों की सेल भी लगाई थी. खुब जम कर बिक्री हुई.
मैने भी उन्हें नई तरीके की मिठाई सीख जाने की बधाई दी. भाभी जी ने मुस्कराते हुए बताया कि “उन्हें भी पिछले छः माह से मधुमेह है।“
उनका चेहरा देख कर लग रहा था कि मानो, कोई बड़ी उपलब्धी हासिल की हो, इस मधुमेह को पाल कर.
मैने सांत्वना जताई तो एकाएक लगभग भड़क सी पड़ी,” कैसी बात करते हैं आप भी। इसमें कोई दुख की बात थोड़े ही है।“
फिर सामान्य होते हुये, चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट और विजय भाव लाते हुए आगे कहने लगीं,“ आजकल तो मधुमेह का फैशन है, यहाँ पर। मुझे तो जब नहीं था, तब ही मैने क्लब में बता रखा था कि मुझे है, ताकि मैं कहीं ऑड-मेन-आऊट न हो जाऊँ। मैं तो तभी से लो-केलोरी डाइट और शूगर फ्री चाय अपने लिये आर्डर करती थी।“
“इसके कई फायदे हैं-आप किसी के घर जायें तो भी आपकी अलग से खातिर की जाती है। चाय अलग से बन कर आती है। आपको यह राजसी रोग है, यही आपको सोसाईटी में ऊँचा स्थान दिलाता है और साथ ही अगर रक्तचाप भी हो, तो क्या कहने, सोने में सुहागा” उन्होंने अपनी बात आगे जारी रखते हुए, एक आँख हल्की सी दबाते हुए, कहा, “ आप अभी भारत से नये आये हैं, थोड़ा समय लगेगा फिर यहाँ पर भारतीय समाज के भी चाल चलन समझ जायेंगे।“
मैने कहा, “सो तो लग रहा है। जल्दी जल्दी सीख भी रहा हूँ।“
भाभी जी की बात अभी पूरी नहीं हुई थी, सो आगे बोलीं,” वैसे हम यहाँ रहकर भी किसी आम भारतीय से कम भारतीय नहीं हैं। बल्कि यूँ कहें कि ज्यादा ही हैं। हम अपने सारे भारतीय त्यौहार इन्क्लूडिंग करवा-चौथ और छ्ट भी क्लब में सेलिब्रेट करते हैं, और विश्व स्तरीय जैसे यह मधुमेह दिवस और वैलेंटाईन डे आदि भी।“
मैने कहा, “आप जैसों पर ही हमें गर्व है, जो भारतीयता को जिंदा रखें हैं। वरना तो यह कब की दफन हो जाती। आपका बहुत साधुवाद। अब चलता हूँ, इजाजत दें।“
भाभी जी ने भी मुस्कुराते हुये नमस्ते किया और कहा, “ये आपको न्यू ईयर पार्टी का आमंत्रण भिजवा देंगे, आइयेगा जरुर, समाज के बाकी लोगों से भी आपका परिचय हो जायेगा।“
अपनी स्विकारोत्ति देकर मैं चल पड़ा मगर रास्ते भर यह प्रश्न मेरे दिमाग में गुंजता रहा; यह कैसा भारत के भारतियों से ज्यादा भारतीय समाज है, जो १४ नवम्बर को विश्व मधुमेह दिवस तो मनाता है, मगर नेहरु जी के जन्म दिन-बाल दिवस भूल जाता है।
खैर, जैसा भी है, अब तो मै भी उसी क्लब का सदस्य होने जा रहा हूँ, शायद मुझे देख और सुनकर भी कोई नया आया भारतीय कुछ सालों बाद यही प्रश्न उठाये।
रविवार, नवंबर 12, 2006
गाँधीगिरि का क्या !!!
इधर जबसे लगे रहो मुन्ना भाई आई, गाँधीगिरि जोरों पर है. कोई देशद्रोही इसकी आड़ में चुनाव लड़ने की तैयारी मे है तो कोई गुंडा इसकी आड़ में जेल से छूटने की तैयारी कर रहा है. इसी की नज़र मेरी एक रचना, अब अगर कुत्ते को आप नेता समझें और बिल्ली को आम जनता, तो यह आपकी गल्ती है, मैने तो ऐसा नही कहा:
एक कुत्ते ने जब
लगे रहो मुन्ना भाई देखी
उसने भी बड़े दिल से सोचा
गाँधीगिरि कर-करें कुछ नेकी
एक बिल्ली को तुरंत
अपने सामने खड़े पाया
उसे बड़े प्यार से डर छोड़ने
गांधीगिरि का सबक सिखाया
बिल्ली को बड़ा मजा आया
और कुत्ते ने उसे मय परिवार
दावात का न्योता पकडा़या
नियत तिथी पर अपने
सब दोस्तों को भी
दावात पर बुलवाया
बिल्ली का परिवार भी
अपने मित्रों के संग आया
सारे कुत्तों ने मिल
खुब जश्न मनाया
और गाँधीगिरि के नये अध्याय को
नया आयाम दिलाया.
उन बिल्लियों का फिर कभी
कुछ पता न चल पाया.
-समीर लाल 'समीर'
एक कुत्ते ने जब
लगे रहो मुन्ना भाई देखी
उसने भी बड़े दिल से सोचा
गाँधीगिरि कर-करें कुछ नेकी
एक बिल्ली को तुरंत
अपने सामने खड़े पाया
उसे बड़े प्यार से डर छोड़ने
गांधीगिरि का सबक सिखाया
बिल्ली को बड़ा मजा आया
और कुत्ते ने उसे मय परिवार
दावात का न्योता पकडा़या
नियत तिथी पर अपने
सब दोस्तों को भी
दावात पर बुलवाया
बिल्ली का परिवार भी
अपने मित्रों के संग आया
सारे कुत्तों ने मिल
खुब जश्न मनाया
और गाँधीगिरि के नये अध्याय को
नया आयाम दिलाया.
उन बिल्लियों का फिर कभी
कुछ पता न चल पाया.
-समीर लाल 'समीर'
शुक्रवार, नवंबर 10, 2006
ऑफिस ऑफिस
एक बार कुछ माह पूर्व ऑफिस कुंण्डलियां और दोहा लिखने का प्रयास किया था. तब नया नया कुंण्डलियां लिखने का शौक जागा था, बड़े नियम कायदे कानून से लिखने का प्रयास होता था. समय बीता, और फिर समय के साथ नियम तोड़ने का साहस जुटने लगा और अब तो इन्हें कुंण्डलियां कहने की जुर्रत भी नहीं कर सकते तो आज नये नाम मुंडलियां (यह नामकरण संस्कार पंडित अनूप शुक्ल जी से करवाया गया है) की शुरुवात, इसी पुरानी श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुये कर रहा हूँ.
ऑफिस मुंडलियां-भाग २
(ध्यान दें इसे जनहित में प्रकाशित किया जा रहा है)
मैनेजर से मत लिजिये, कभी भी पंगा आप
जरा जरा सी बात पर, वो दे देता है श्राप.
दे देता है श्राप कि उसको खुश करते जाओ
प्रमोशन मिल जायेगा, साथ में बोनस पाओ
चमचागिरि का आप, नया इतिहास बनाना
जब भी वो घर जाये, उसी के बाद में जाना.
गल्ती कभी न मानिये, जब दफ्तर का हो काम
गल्ती तो स्वभाव है, आखिर तुम भी हो इंसान.
तुम भी हो इंसान कि दिल से यह मंत्र लगा लो
जो साथी छुट्टी पर हो, बस उसके नाम लगा दो
कहत समीर कि जब तक बंदा वापस आयेगा
बात हमारी मानिये, मामला खुद ठंडा जायेगा.
ऑफिस से जब घर चलो, फाइल लाद लो सारी
थोडी सी मेहनत लगे, पर इंप्रेशन पड़ता भारी
इंप्रेशन पड़ता भारी कि ऑफिस में नाम मिलेगा
घर के कामों से भी तो, तुमको आराम मिलेगा
बतलाया है गुर आपको, अपने तक रखना बात
जीवन भर सजती रहे, यूँ ही मस्ती की बारात.
ऑफिस में जब तक रहो , करते रहो आराम
फाइलों का जब ढ़ेर हो , तबहि मिले सम्मान
तबहि मिले सम्मान कि आज जो कीजे सारे काम
कल फिर ऑफिस में आकर, क्या करियेगा श्रीमान
कहत समीर कविराय कि आज की कल पर टालो
ऑफिस में आराम से, दनादन कवितायें रच डालो.
--समीर लाल समीर
ऑफिस मुंडलियां-भाग २
(ध्यान दें इसे जनहित में प्रकाशित किया जा रहा है)
मैनेजर से मत लिजिये, कभी भी पंगा आप
जरा जरा सी बात पर, वो दे देता है श्राप.
दे देता है श्राप कि उसको खुश करते जाओ
प्रमोशन मिल जायेगा, साथ में बोनस पाओ
चमचागिरि का आप, नया इतिहास बनाना
जब भी वो घर जाये, उसी के बाद में जाना.
गल्ती कभी न मानिये, जब दफ्तर का हो काम
गल्ती तो स्वभाव है, आखिर तुम भी हो इंसान.
तुम भी हो इंसान कि दिल से यह मंत्र लगा लो
जो साथी छुट्टी पर हो, बस उसके नाम लगा दो
कहत समीर कि जब तक बंदा वापस आयेगा
बात हमारी मानिये, मामला खुद ठंडा जायेगा.
ऑफिस से जब घर चलो, फाइल लाद लो सारी
थोडी सी मेहनत लगे, पर इंप्रेशन पड़ता भारी
इंप्रेशन पड़ता भारी कि ऑफिस में नाम मिलेगा
घर के कामों से भी तो, तुमको आराम मिलेगा
बतलाया है गुर आपको, अपने तक रखना बात
जीवन भर सजती रहे, यूँ ही मस्ती की बारात.
ऑफिस में जब तक रहो , करते रहो आराम
फाइलों का जब ढ़ेर हो , तबहि मिले सम्मान
तबहि मिले सम्मान कि आज जो कीजे सारे काम
कल फिर ऑफिस में आकर, क्या करियेगा श्रीमान
कहत समीर कविराय कि आज की कल पर टालो
ऑफिस में आराम से, दनादन कवितायें रच डालो.
--समीर लाल समीर
गुरुवार, नवंबर 09, 2006
त्रिवेणी: एक विधा
हमारे शिष्य गिरिराज पुनः परेशान नजर आये चैट पर कि त्रिवेणी विधा की कविता के विषय में जानकारी नहीं मिल रही है. हमने समझाया भी कि भाई, कुछ और लिख लो. कोई जरुरी तो नहीं कि त्रिवेणी ही लिखी जाये, जिसकी जरा भी जानकारी नहीं. मगर अब वो तो प्रयोगवादी जीव हैं, उन्हें न मानना था, न मानें. बस जुटे रहे कि आप बताईये, त्रिवेणी कैसे लिखते हैं.
अब हम तो जानते नहीं मगर शिष्य की बात कैसे टालें.
कुछ समय पूर्व अनूप भार्गव जी ने ई-कविता के सदस्यों के ज्ञानवर्धन के लिये त्रिवेणी के विषय में जानकारी प्रेषित की थी, उसी को यहां अनूप जी के साभार के साथ पेश कर रहा हूँ.
'त्रिवेणी' गुलज़ार साहब की अपनी खुद की ईज़ाद की हुई विधा है, जिसमें पहली दो पंक्तियां अपने आप में एक बात कहती हैं, तीसरी पंक्ति जरा घुमावदार होती है जो पहली दो पंक्तियों को एक नया अर्थ देती हैं.
इसे और समझने के लिये यूँ समझें:
त्रिवेणी में तीन मिसरे होते हैं, पहले दो में लगता है कि बात पूरी हो गई; जैसा कि एक गज़ल के शेर में होता है. शेर की तरह ही ये पहले दो मिसरे अपने आप में मुक्कमिल भी होते हैं. तीसरा मिसरा रोशनदान की तरह खुलता है, उसके आने से पहले दो मिसरों का मानी या तो बदल जाता है. या उनमें इज़ाफा हो जाता है. यह एक तरह की शोखी है, जो त्रिवेणी में ही मिलती है.
एक दुसरी जगह गुलज़ार साहब कहते हैं:
शुरु शुरु में जब यह फोर्म बनाई थी, तब पता नहीं था तह किस संगम तक पहूँचेगी- त्रिवेणी नाम इसलिये दिया था कि पहले दो मिसरे गंगा जमुना की तरह मिलते हैं, और एक ख्याल, एक शेर को मुक्कमिल करते हैं. लेकिन इन दो धाराओं के नीचे एक और नदी है- सरस्वती. जो गुप्त है. नजर नहीं आती; त्रिवेणी का काम सरस्वती दिखाना है. तीसरा मिसरा, कहीं पहले दो मिसरों में गुप्त है. छुपा हुआ है.
गुलजार साहब
अब यहां त्रिवेणी पर पढ़ी एक किताब से अनूप जी की पसंद की त्रिवेणियां:
इतनें लोगों में , कह दो आँखों को
इतना ऊँचा न ऐसे बोला करें
लोग मेरा नाम जान जाते हैं ।
*
शाम से शमा जली , देख रही है रास्ता
कोइ परवाना इधर आया नहीं देर हुई
सौत होगी जो मेरे पास में जलती होगी
*
रात के पेड पे कल ही देखा था
चाँद बस पक के गिरने वाला था
सूरज आया था , ज़रा उस की तलाशी लेना
*
उफ़ ये भीगा हुआ अखबार
पेपर वाले को कल से 'चेन्ज' करो
पाँच सौ गाँव बह गये इस साल
*
सामनें आये मेरे , देखा मुझे ,बात भी की
मुस्कुराये भी पुरानी किसी पह्चान की खातिर
कल का अखबार था , बस देख लिया ,रख भी दिया
*
--गुलज़ार
और फिर एक और:
आओ जबानें बाँट ले अपनी अपनी हम
न तुम सुनोगे बात , न हम को कुछ समझना है
दो अनपढों को कितनी मोहब्बत है अपनें अदब से ...
--गुलज़ार
फिर कुछ मेरी पसंद की, गुलजार साहब की लिखी हुई त्रिवेणियां:
तेरे गेसु जब भी बातें करते हैं,
उलझी उलझी सी वो बातें होती हैं.
मेरी उँगलियों की मेहमानगी, उन्हें पसंद नहीं.
*
मुझे आज कोई और न रंग लगाओ,
पुराना लाल रंग एक अभी भी ताजा है.
अरमानों का खून हुये ज्यादा दिन नहीं हुआ है.
*
ये माना इस दौरान कुछ साल बीत गये है
फिर भी आंखों में चेहरा तुम्हारा समाये हुये है.
किताबों पे धूल जमने से कहानी कहां बदलती है.
*
चलो आज इंतजार खत्म हुआ
चलो अब तुम मिल ही जाओगे
मौत का कोई फायदा तो हुआ.
*
क्या पता कब, कहां से मारेगी,
बस, कि मैं जिंदगी से डरता हूँ.
मौत का क्या है, एक बार मारेगी.
--गुलज़ार
नोट: रुपा एण्ड कं. ने गुलजार साहब की ६६ पन्नों की पुस्तक 'त्रिवेणी' प्रकाशित की है, जिसका की मुल्य १९५ रुपये निर्धारित किया है और ISBN No.:8171675123 है.
आशा है, अब जल्दी ही गिरिराज जी की शेरों से हट कर कुछ त्रिवेणियां पढ़ने मिलेंगी. शुभकामनायें.
लौटते हुये:
एक बार यह लेख लिख कर हम जा चुके थे, तब तक फुरसतिया जी ने बताया कि वो भी हमारी गैरहाजिरी में, जब जून में हम भारत यात्रा पर थे, तब त्रिवेणी के बारे में विस्तार से लिख चुके हैं, बहुत सी त्रिवेणियां वहां बह रही हैं, आप भी देखें. पता नहीं, हमारी नजरों से कैसे बचा रह गया यह लेख.
अब गिरिराज जो न करवा दें, सो कम. :) एक ही विषय पर फिर से लिखवाई दिये.
अब हम तो जानते नहीं मगर शिष्य की बात कैसे टालें.
कुछ समय पूर्व अनूप भार्गव जी ने ई-कविता के सदस्यों के ज्ञानवर्धन के लिये त्रिवेणी के विषय में जानकारी प्रेषित की थी, उसी को यहां अनूप जी के साभार के साथ पेश कर रहा हूँ.
'त्रिवेणी' गुलज़ार साहब की अपनी खुद की ईज़ाद की हुई विधा है, जिसमें पहली दो पंक्तियां अपने आप में एक बात कहती हैं, तीसरी पंक्ति जरा घुमावदार होती है जो पहली दो पंक्तियों को एक नया अर्थ देती हैं.
इसे और समझने के लिये यूँ समझें:
त्रिवेणी में तीन मिसरे होते हैं, पहले दो में लगता है कि बात पूरी हो गई; जैसा कि एक गज़ल के शेर में होता है. शेर की तरह ही ये पहले दो मिसरे अपने आप में मुक्कमिल भी होते हैं. तीसरा मिसरा रोशनदान की तरह खुलता है, उसके आने से पहले दो मिसरों का मानी या तो बदल जाता है. या उनमें इज़ाफा हो जाता है. यह एक तरह की शोखी है, जो त्रिवेणी में ही मिलती है.
एक दुसरी जगह गुलज़ार साहब कहते हैं:
शुरु शुरु में जब यह फोर्म बनाई थी, तब पता नहीं था तह किस संगम तक पहूँचेगी- त्रिवेणी नाम इसलिये दिया था कि पहले दो मिसरे गंगा जमुना की तरह मिलते हैं, और एक ख्याल, एक शेर को मुक्कमिल करते हैं. लेकिन इन दो धाराओं के नीचे एक और नदी है- सरस्वती. जो गुप्त है. नजर नहीं आती; त्रिवेणी का काम सरस्वती दिखाना है. तीसरा मिसरा, कहीं पहले दो मिसरों में गुप्त है. छुपा हुआ है.
गुलजार साहब
अब यहां त्रिवेणी पर पढ़ी एक किताब से अनूप जी की पसंद की त्रिवेणियां:
इतनें लोगों में , कह दो आँखों को
इतना ऊँचा न ऐसे बोला करें
लोग मेरा नाम जान जाते हैं ।
*
शाम से शमा जली , देख रही है रास्ता
कोइ परवाना इधर आया नहीं देर हुई
सौत होगी जो मेरे पास में जलती होगी
*
रात के पेड पे कल ही देखा था
चाँद बस पक के गिरने वाला था
सूरज आया था , ज़रा उस की तलाशी लेना
*
उफ़ ये भीगा हुआ अखबार
पेपर वाले को कल से 'चेन्ज' करो
पाँच सौ गाँव बह गये इस साल
*
सामनें आये मेरे , देखा मुझे ,बात भी की
मुस्कुराये भी पुरानी किसी पह्चान की खातिर
कल का अखबार था , बस देख लिया ,रख भी दिया
*
--गुलज़ार
और फिर एक और:
आओ जबानें बाँट ले अपनी अपनी हम
न तुम सुनोगे बात , न हम को कुछ समझना है
दो अनपढों को कितनी मोहब्बत है अपनें अदब से ...
--गुलज़ार
फिर कुछ मेरी पसंद की, गुलजार साहब की लिखी हुई त्रिवेणियां:
तेरे गेसु जब भी बातें करते हैं,
उलझी उलझी सी वो बातें होती हैं.
मेरी उँगलियों की मेहमानगी, उन्हें पसंद नहीं.
*
मुझे आज कोई और न रंग लगाओ,
पुराना लाल रंग एक अभी भी ताजा है.
अरमानों का खून हुये ज्यादा दिन नहीं हुआ है.
*
ये माना इस दौरान कुछ साल बीत गये है
फिर भी आंखों में चेहरा तुम्हारा समाये हुये है.
किताबों पे धूल जमने से कहानी कहां बदलती है.
*
चलो आज इंतजार खत्म हुआ
चलो अब तुम मिल ही जाओगे
मौत का कोई फायदा तो हुआ.
*
क्या पता कब, कहां से मारेगी,
बस, कि मैं जिंदगी से डरता हूँ.
मौत का क्या है, एक बार मारेगी.
--गुलज़ार
नोट: रुपा एण्ड कं. ने गुलजार साहब की ६६ पन्नों की पुस्तक 'त्रिवेणी' प्रकाशित की है, जिसका की मुल्य १९५ रुपये निर्धारित किया है और ISBN No.:8171675123 है.
आशा है, अब जल्दी ही गिरिराज जी की शेरों से हट कर कुछ त्रिवेणियां पढ़ने मिलेंगी. शुभकामनायें.
लौटते हुये:
एक बार यह लेख लिख कर हम जा चुके थे, तब तक फुरसतिया जी ने बताया कि वो भी हमारी गैरहाजिरी में, जब जून में हम भारत यात्रा पर थे, तब त्रिवेणी के बारे में विस्तार से लिख चुके हैं, बहुत सी त्रिवेणियां वहां बह रही हैं, आप भी देखें. पता नहीं, हमारी नजरों से कैसे बचा रह गया यह लेख.
अब गिरिराज जो न करवा दें, सो कम. :) एक ही विषय पर फिर से लिखवाई दिये.
मंगलवार, नवंबर 07, 2006
कब आओगे, प्रिये!!
अभी बस चांद उगता है, सामने रात बाकी है
बड़े अरमान से अब तक, प्यार में उम्र काटी है
पुष्प का खार में पलना,विरह की आग में जलना
चमन में खुशबु महकी सी, प्रीत विश्वास पाती है.
गगन के एक टुकडे़ को, हथेली में छिपाया है
दीप तारों के चुन चुनकर, आरती में सजाया है
भ्रमर के गीत सुनते ही, लजा जाती हैं कलियां भी
तुम्हारी राह तकते हैं, तुम्हें दिल में बसाया है.
तुम्हीं हो अर्चना मेरी, तुम्हीं हो साधना मेरी
प्यार के दीप जलते हैं, तुम्ही हो कामना मेरी
धरा से आसमां तक है यही विस्तार आशा का
तुम्हीं में मै समा जाऊँ, यही अराधना मेरी.
--समीर लाल 'समीर'
गुरुवार, नवंबर 02, 2006
कोई नाजुक बदन लड़की
चित्र साभार: रिपुदमन पचौरी, हमारे खास मित्र
मैं जो भी गीत गाता हूँ, वही मेरी कहानी है
मचल जो सामने आती, वही मेरी जवानी है
मैं ऐसा था नहीं पहले, मुझे हालात ने बदला
कोई नाजुक बदन लड़की, मेरे ख्वाबों की रानी है.
नहीं उसको बुलाता मैं, मगर वो रोज आती है
मेरी रातों की नींदों में, प्यार के गीत गाती है
मेरी आँखें जो खुलती हैं, अजब अहसास होता है
नमी आँखों में होती है, वो मुझसे दूर जाती है.
मगर ये ख्वाब की दुनिया, हकीकत हो नहीं सकती
थिरकती है जो सपने में, वो मेरी हो नहीं सकती
भुला कर बात यह सारी, हमेशा ख्वाब देखे हैं
न हो दीदार गर उसके, तो कविता हो नहीं सकती.
--समीर लाल ‘समीर’