शुक्रवार, अप्रैल 14, 2006

मंदिर से अज़ान

आज़ फ़िर एक धमाका, अबकी मज्जिद मे.
एक महिने के भीतर,
कभी मंदिर और कभी मज्जिद,
मगर मरेंगे तो पहले इंसान,
फ़िर ही तो होंगे वो हिंदू या मुसलमान:

मंदिर से अज़ान

अमन की चाह मे
दुनिया नई बना दी जाये
रामायण और कुरान छोड के
इन्सानियत आज पढा दी जाये.

जहां मे रोशनी करता
चिरांगा आसमां का है
सरहद को बांटती रेखा
क्यूँ ना आज मिटा दी जाये.

रिश्तों मे दरार डालती
सियासी ये किताबें हैं
ईद के इस मौके पे इनकी
होली आज जला दी जाये.

आपस मे बैर रखना
धर्म नही सिखाता है
मंदिर के कमरे से 'समीर'
अज़ान आज लगा दी जाये.

--समीर लाल 'समीर'

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी कवितायें है, परन्तु हम सब जानते हैं कि कुत्ते कि दुम कभी सीधी नहीं होती उसी तरह मंदिरों और मस्जिदों में धमाका करने वाले कभी सुधर नहीं सकते, ये कल्पना करना भी मुश्किल प्रतीत होता है कि "मंदिर के कमरे से अजान या मस्जिद में आरती गाई जाये. काश आपकी आशा सफ़ल हो और इन्सानियत फ़िर से जिन्दा हो.

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  2. सागर जी

    अब सोच जागी है तो कभी उसके पूरा होने की उम्मीद भी है.

    धन्यवाद
    समीर

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  3. बेनामी4/14/2006 03:49:00 pm

    अति सुन्दर ।

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  4. आप बहुत अच्छी कविता करते हैं.
    - मास्साब

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  5. मास्साब ने जब पास कर दिया, तब तो हम ग्रेजुयेट हो गये.
    बहुत धन्यवाद
    समीर लाल

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  6. जहां मे रोशनी करता
    चिरांगा आसमां का है
    सरहद को बांटती रेखा
    क्यूँ ना आज मिटा दी जाये.

    समीर जी क्या लिखा हैं|||
    आप ऐसे ही कलम चलाते रहिये, कभी तो इन नासमझों को
    समझ आयेगी। काश कि बिस्फोट करने से पहले ये साम्प्रादायिक लोग
    आपकी कविता पढ़े होते, मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि इन घटनाओं की
    नौवत ना आती।

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  7. शैलेश भाई
    विचारों की अभिव्यक्ति कर एक प्रयास मात्र है कि शायद कोई अलख कहीं कुछ रास्ता दिखाये.
    धन्यवाद आपका कि आपको कुछ आशा की किरण की उम्मीद है, रचना सफ़ल हुई.
    समीर लाल

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  8. सही कह रहे हैं आप, महावीर जी.
    रचना पसंद करने के लिये आभारी हूँ आपका.
    समीर लाल

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