वो दूर से भागता हुआ आया था इतनी सुबह...शायर की भाषा में अल सुबह और
गर मैं कहूँ तो कहूँगा सुबह तो इसे क्या..क्यूँकि अभी तो रात की गिरी ओस मिली भी
नहीं थी उस उगने को तैयार होते सूरज की किरणों से...विलिन हो जाने को उसके भीतर-
खो देने को अपना अस्तित्व उसकी विराटता में समाहित हो कर खुशी खुशी.
देखा था मैने कि वो हांफ रहा था मगर कोशिश थी कि सामान्य नज़र आये और
कोई सुन भी न पाये उसकी हंफाई.... दिखी थी मुझे ....उसकी दोनों मुठ्ठियाँ भिंची
हुई थी और चेहरे पर एक विजयी मुस्कान......एक दिव्य मुस्कान सी शायद अगर मेरी सोच
के परे किसी भी और परिपेक्ष्य में उसे लिया जाये तो...मगर मुझे वो उसकी वो मुस्कान
एक झेंपी सी मुस्कान लगी.. जब मैने उससे कहा कि क्या ले आये हो इस मुठ्ठी में बंद
कर के ..जरा मुट्ठी तो खोलो...अभी तो सूरज भी आँख ही मल रहा है और तुम भागते हुए
इतनी दूर से जाने क्या बंद कर लाये हो इन छोटी सी मुट्ठियों में...मुझे मालूम है
कि कुछ अनजगे सपने होंगे सुबह जागने को आतुर-इस सोच के साथ कि शायद सच हो जायें.,..दिखाओ न...हम भी तो देखें...
खोल दो न अपनी मुट्ठी......
वो फिर झेंपा और धीरे से...कुछ सकुचाते हुए...कुछ शरमाते हुए..आखिर
खोल ही दिये अपनी दोनों मुठ्ठियाँ में भरे वो अनजगे सपने… मेरे सामने...और वो सपने
आँख मलते अकबका कर जागे.. मुझे दिखा कुछ खून......सूर्ख लाल खून.. उसकी कोमल
हथेलियों से रिसता हुआ और छोटे छोटे ढेर सारे काँटे गुलाब के..छितराये हुए उन
नाजुक हथेलियों पर..कुछ चुभे हुए तो कुछ बिखरे बिखरे हुए से....न चुभ पाने से
उदास...मायूस...
-अरे, ये
क्या?- इन्हें क्यूँ ले आये हो मेरे पास? मुझे तो गुलाब पसंद हैं और तुम ..ये काँटे .. ये कैसा मजाक है? मैं
भला इन काँटों का क्या करुँगी? और ये खून?...तुम जानते हो न...मुझे खून देखना पसंद नहीं है..खून देखना मुझे
बर्दाश्त नहीं होता...लहु का वो लाल रंग...एक बेहोशॊ सी छा जाती है मुझ पर..
यह लाल रंग..याद दिलाता है मुझे उस सिंदूर की...जो पोंछा गया था बिना
उसकी किसी गल्ती के...उसके आदमी के अतिशय शराब पीकर लीवर से दुश्मनी भजा लेने की
एवज में...उस जलती चिता के सामने...समाज से डायन का दर्जा प्राप्त करते..समाज की
नजर में जो निगल गई थी अपने पति को.....बस!! एक पुरुष प्रधान समाज...यूँ लांछित
करता है अबला को..उफ्फ!
तुम कहते कि मुझे पता है कि खून तुमसे बर्दाश्त नहीं होता मगर
तुम्हारी पसंद वो सुर्ख लाल गुलाब है. मै नहीं चाहता कि तुम्हें वो जरा भी बासी
मिले तो चलो मेरे साथ अब और तोड़ लो ताज़ा ताज़ा उस गुलाब को ..एकदम उसकी लाल
सुर्खियत के साथ...बिना कोई रंगत खोये...
बस, इस कोशिश में तुम्हे कोई काँटा न
चुभे .तुम्हारी ऊँगली से खून न बहे..वरना
कैसे बर्दाश्त कर पाओगी तुम...और तुम कर भी लो तो मैं..
बस यही एक कोशिश रही है मेरी..कि... मेरा खून जो रिसा है हथेली से
मेरी...वो रखेगा उस गुलाब का रंग..सुर्ख लाल...जो पसंद है तुम्हें..ओ मेरी पाकीज़ा
गज़ल!!
बस. मत देख इस खून को जो रिसा है मेरी हथेली से लाल रंग का.....और
बरकरार रख मुझसे विश्वास का वो रिश्ता ..जिसे लेकर हम साथ चले थे उस रोज...और जिसे
सीने से लगाये ही हम बिछड़े थे उस रोज...
याद है न वो दोनों दिन...तारीखें क्या थी वो दोनों.....चलो!!! तुम
बताओ!!
है यार मेरा अपना शाईर जो मेरे दिल के अंदर रहता है
तड़प के वो है पूछ रहा, तू
आखिर जिन्दा कैसे रहता है
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार सितंबर 3, 2023 के अंक में:
https://epaper.subahsavere.news/clip/6659
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