रविवार, अप्रैल 09, 2023

सच बोलने की तमन्ना अब हमारे दिल में है

 


कल एक जरुरी काम से नेता जी के घर जाना हुआ. वहीं से उनकी डायरी का पन्ना हाथ लग गया, साहित्यकार बनने की फिराक में लगा शिष्टाचारी लेखक हूँ सो इस मैदान के सामान्य शिष्टाचारवश चुरा लाया. बहुत ही सज्जन पुरुष हैं. सच बोलना चाहते हैं मगर बोल नहीं पाते. देखिये, उनका आत्म मंथन-उन्हीं की लेखनी से (अभी साहित्यकार बनने की फिराक में लगा हूँ अतः ऐसा कहा अन्यथा लिखता मेरी लेखनी से):

झूठ बोलते बोलते तंग आ गया हूँ. कब मुझे इससे छुटकारा मिलेगा. क्या करुँ, प्रोफेशन की मजबूरियाँ हैं.

रोज सोचता हू कि झूठ को तिलांजलि दे दूँ. सच का दामन थाम लूँ. मगर कब कर पाया है मानव अपने मन की.

हर दो महिने में तो चुनाव आ जाते हैं और ऐसे वक्त इस तरह के भाव-क्या हो गया है मुझे? लुटिया ही डूब जायेगी चुनाव में अगर एक भी शब्द सच निकल गया तो. वैसे राजनीति में रहते रहते रियाज़ ऐसा हो गया है कि झूठ यूं ही निकलता रहता है अलबत्ता सच कहने के लिए शायद सजग प्रयास करना पड़े.

बुरा लगता है जब लोग मुझे कभी झुटठा, कभी फेंकूँ, कभी जुमलेबाज पुकारते हैं मगर क्या किया जाए? सच नकारा भी कैसे जाए? नकारने जाओ तो दूसरा झूठ सामने आ जाता है.

अपने झूठ को सच करने के लिए कागज दिखाओ तो कागज का सच भी सामने आ जाता है- करेले पर नीम चढ़ जाता है. उससे बेहतर तो कई बार लगता है कि करेले को करेला ही रहने दो, लोग जानते तो हैं ही – क्या झूठ को सच साबित करना.

मगर कभी अकेले में मन धिक्कारता है तब सोचता हूँ कि क्या सच कह दूँ जनता से??

-यह कि तुम जैसे गरीब हो वैसे ही रह जाओगे, हमारे बस में नहीं कि तुम्हें अमीर बनवा दें? हम जो भी कहते हैं वो सब जुमले होते हैं मगर तुम हो कि बता देने के बाद भी समझते ही नहीं तो मेरा क्या दोष?

-यह कि मँहगाई बढती ही जायेगी. आज तक कुछ भी सस्ता हुआ है जो अब होगा? दाम कभी नहीं गिरते. वस्तुओं के दाम और हम नेताओं के नैतिक मूल्यों में यही तो मूलभूत अंतर है कि दाम कभी नहीं गिरते और हमारे नैतिक मूल्यों के गिरते चले जाने की कोई सीमा नहीं है. पाताल ने भी अपने धरातल के द्वार खोल दिये हैं हमारे लिए कि हमसे भी परे जाने की अगर किसी में क्षमता है तो वो आप में.

-यह कि मैं तुम्हारे बीच ही रहूँगा? लोग इतना भी नहीं समझते कि अगर मैं उनके बीच रहा तो फिर दिल्ली कौन जायेगा, विदेशों में कौन घूमेगा? मित्रों को विदेशों में काम कौन दिलाएगा – उनके हवाई जहाज कौन इस्तेमाल करेगा?

-यह कि तुम्हारी समस्यायों से मुझे कुछ लेना देना नहीं. तुम जानो, तुम्हारा काम जाने. इतना तो समझो कि मेरे पास अपने खास मित्रों की समस्याओं का ही अंबार खत्म होने का नाम नहीं लेता तो तुम तो मेरे मित्र हो भी नहीं – किसे पहले देखूँ?

-यह कि मैं बिना घूस खाये अगर सब काम करता रहा तो चुनाव का खर्चा और विदेशों में पढ़ रहे मेरे बच्चों का खर्चा क्या तुम्हारा बाप उठायेगा. घूस तुमसे न भी लूँ तो मित्रों से हिसाब किताब का बोझ तो तुम पर पहुँच ही जाता है।

-यह कि मैँ हिन्दु मुसलमानों के बीच दरार डालूंगा ताकि मैं लगातार चुनाव जीतता रहूँ. इस पर तो कुछ भी क्या कहना? कौवा कान ले गया कहना ही काफी है और तुम बिना कान चैक किए कौवे की पीछे भागने लगते हो तो मैं भी क्या करूँ? छू लगाने का शौक तो मुझे बचपन से रहा है.

-यह कि ..यह कि..यह कि....

क्या क्या बताऊँ, लोग तो सभी ज्ञानी हैं, सब समझते हैं. मेरी मजबूरी भी समझ ही गये होंगे.

फिर मैं ही क्यूँ अपराध बोध पालूँ?

मुझे तो एक पुरोहित ने बताया है गंगा गंगोत्री से भले निकलती हो मगर लोग उसे दूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते- सबसे स्वच्छ और पवित्र – आँसू होते हैं और आप तो जानते ही हो मैं आँसू के दरिया में तो जब तब डुबकी लगा ही लेते हूँ -सारे पाप धूल जाते हैं.  

आज इतना ही, एक पार्टी में जाना है. देश हित में एक सौदे की बात है. मेरी नहीं- दोस्त की.

संपादकीय टिप्पणी: ध्यान दिया जाये कि नेता भाषण कितना भी लम्बा दे ले, लिखता जरा सा ही है.

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अप्रेल 9, 2023 के अंक में:

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4 टिप्‍पणियां:

  1. फिर मैं क्यों अपराध बोध पालूँ...।
    बेहतरीन व्यंग्य सर
    सादर।
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १४ अप्रैल २०२३ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. बहुत सुंदर लेखन

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