थक गये भाई पूछ पूछ कर.
जिसको देखो बस एक लाइन बोल कर भाग जाता है कि साहित्य नहीं रचा जा
रहा है आजकल
मगर कोई ये बताने तैयार ही नहीं कि आखिर साहित्य होता क्या है, क्या है इसकी परिभाषा और हमें क्या करना होगा कि साहित्य रच पायें.
बहुत बार और बहुत जगह जाकर पूछा, रिरिया कर पूछा, गिड़गिड़ा कर पूछा मगर जैसे ही पूछो कि आखिर साहित्य है क्या, भाग जाते हैं. बताते ही नहीं. मानो सरकार बता रही हो कि भारत का
विकास हो रहा है. पूछो कहाँ, तो भाग जाते हैं? आप खुद खोजो.
अरे, हम खुद ही खोज
या जान पाते तो आपको इतना कहने की तकलीफ भी न देते कि साहित्य नहीं रचा जा रहा है.
रच ही रहे होते और तब आप इतना बोलने के पहले ही भाग लिये होते. प्रेम चन्द के गुजर
जाने का दुख आज से पहले कभी इतना ज्यादा नहीं हुआ. वो होते तो उनसे पूछ लेते.
बहुत शोध किया. यहाँ वहाँ पढ़ा. एक दो वीरों ने इसे परिभाषित करने की
नाकाम कोशिश भी की. पिछले वाक्य में नाकाम अंडरलाइन मानें. कर नहीं रहे बस आप
मानें. जब वो बिना ’साहित्य क्या है’ बताये बता सकते हैं कि ’यह साहित्य नहीं है’
तो हम भी बिना अंडरलाइन लगाये बता दे रहे हैं कि नाकाम शब्द अंडरलाइन है. इस पर भी
मन न भरा हो तो और लो, बोल्ड भी है.
भारत के विकास को लेकर सोचता हूँ कई बार इसी तरह. किसको विकास मानूँ:
बढ़ती महँगाई को, अव्यवस्था में आये इजाफे को, बिजली पानी की अनुपलब्धता की बढ़ती दर को, गिरते
सेन्सेक्स को, एकता कपूर के सीरियलस में बढ़ते
एक्स्ट्रा मेरिटल अफेयरर्स को, बढ़ती किसानों की
खुदकुशी को या फिर बढ़ती नेताओं की ढिठाई और उनके बढ़ते भ्रष्टाचार को.
जैसे साहित्य की परिभाषा हो वैसे ही कोई ज्ञानी बता जाता है कि भारत
भी विकास की राह पर है. विनती बस इतनी सी है कि मुम्बई, दिल्ली, कलकत्ता, मद्रास और
बैंगलोर को ही भारत मानें और उसकी भी पाँच प्रतिशत आबादी को. विकास के आकलन में कृपया
ट्रेफिक जाम, बिजली, पानी
आदि को रोड़ा न बनायें, वह इस आंकलन में
शामिल नहीं है. यह सब सामान्य परिस्थियाँ हैं जिसके आप सब आदी हैं. इसमें सिर्फ
मॉल, कॉल सेन्टर (प्राफिट वाले), अदानी
अंबानी लेवल के उद्योगपति, साहब लेवल के
नेता, लीलावती अस्पताल का वीआईपी एरिया, अम्बे वेली पूणे का रहवासी इलाका, बिग
सिनेमा, नेता घराने के नव नेता, भाजपा का नया
दफ्तर, अंग्रेजी में हुआ भारतीय हिन्दी सिनेमा का समारोह,
चीयर बालायें (२०-२० कुछ दिन इस लिस्ट से अलग किया गया है), पेज ३ पार्टियाँ आदि
को शामिल माना जाये. देखिये, भारत कितना
विकास कर गया है.
कहते हैं जल्दी ही विकसित भारत में व्यक्ति को नाम की बजाय यूनिक
नम्बर आईडेन्टिटी से जाना जायेगा. अरे, जहाँ
इंसान परेशान हो कर चन्द रुपये में किडनी बेच दे रहा है, वहाँ
नम्बर कब तक सहेजे रहेगा? पुलिस की गोली
से मरेगा कोई और जेब से प्राप्त आईडी से मृत दर्ज होगा कोई. खैर, उम्मीद तो अच्छे की ही होना चाहिये, तब
अच्छा ही होगा.
जरूरत सिर्फ चिंतित रहने की है.
चिंता है तो कभी न कभी निवारण भी होगा ही, यही
एक आशा की किरण है जो जिन्दा रखे है इस अफलातूनी लेखन को.
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार मार्च 6, 2022 के अंक में:
http://epaper.subahsavere.news/c/66633249
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