शनिवार, मार्च 19, 2022

मुझे यूँ ही उलझे रहना अच्छा लगता है!!

 

हम जब बड़े हो रहे थे तब हर गर्मी की छुट्टी, दीपावली-दशहरे की छुट्टी में ननिहाल या ददिहाल जाया करते थे. पूरे छुट्टी भर वहीं रहते.

नानी के घर गये तो सारे मामा-मामी, मौसी मौसा, उनके बच्चे, मम्मी के बुआ, मौसी, मामा-उनके बच्चे और जाने कितनी दूर दूर तक की रिश्तेदारी के सब लोग इक्कठा होते. वही हाल ददिहाल में चाचा चाची, बुआ और ऐसी भीड़ लगती कि मजा ही आ जाता.

फिर और भी कभी रिश्ते में शादी ब्याह पर ऐसा ही जमघट. ऐसा नहीं कि उस वक्त दोस्तों की दुनिया नहीं थी किन्तु रिश्तों की मान्यताएँ थीं, मिलना जुलना था. लोग एक दूसरे से पत्र व्यवहार बनाये रखते थे और जब भी ऐसे किसी शहर में जाना हो जहाँ कोई दूर का भी रिश्तेदार हो तो उन्हीं के साथ रुकना होता था.

यहाँ तक कि मुझे याद है मामी की बिटिया की सगी जेठानी का बेटा हमारे घर कई महिने रह कर एक परीक्षा देकर गया था.

कुछ माह पूर्व एक तस्वीर खींची थी अपने टीवी स्टैंड के पीछे तारों के मकड़जाल की. जाने कौन सा डीवीडी से निकल कर होम थियेटर के रिसीवर में फंसा है और वहाँ से टीवी मे, फिर केबल के रिसीवर के तार, सेटेलाईट रिसीवर के तार, एस विडियों के उलझे तार, रंग बिरंगे, काले, सफेद, मोटे पतले सब एक दूसरे के उपर नीचे से गुजरते प्लग पाईंट में जाकर एकलयता बनाते और दिशा पाते हुये. प्लग पाईंट से अलग अलग रिसीवर की तरफ बढ़कर सही इन्स्ट्रूमेन्ट तक जाना या इसका विपिरत मार्ग सही पहचान कराता है तार ही.

ये एकदम उन रिश्तों की तरह है, जिनके तार इधर उधर से एक दूसरे से जुड़ते ननिहाल/ददिहाल में जाकर फंसे हुये थे. उसी तरह या तो ननिहाल/ददिहाल से शुरु करो और रिश्ते तक पहुँचो या रिश्ते से शुरु करो और ननिहाल/ ददिहाल तक पहुँचों.

दोस्त के घर शादी और रिश्तेदारी में शादी के बीच तय करने की जरुरत नहीं होती थी. चाचा की साली की शादी में जाना आवश्यक था बजाय कि दोस्त की बहन की.

परसों फिर टीवी के पीछे झांकता था. नया सारा तामझाम लग गया है. होम थियेटर के सारे कनेक्शन वायरलेस और भी जाने क्या क्या. दो तीन तार मुश्किल से. बाकी सब गायब मगर सब चल वैसे ही रहा है.

फिर अपने क्म्प्यूटर को भी याद किया. एक मॉनीटर जोडने को और एक पावर वाला, बस दो ही तार दिखे जबकि है सबकुछ. बिल्ट इन कैमरा, साऊंड बॉक्स, माईक..प्रिंटर, यू एस बी, हैड सेट-सब वायर लैस. बिना तार के. कहीं नहीं जुड़ते उनके तार. खुद सोचो और जहाँ मन आये, मन ही मन जुड़ा मानो. जैसे चाहो वैसे. जब घुमाना चाहो, घुमा दो, यहाँ से वहाँ.

वही तार तो उनकी सही जगह निर्धारित करता था. उनका दायरा स्थापित करता था. उन्हें एक जुड़ाव का अहसास देता था, उन्हें अन्य सामानों की भीड़ में गुम होने से रोकते हैं. कितनी बार तो इन्हीं तारों के सहारे वो गिर कर टूट जाने से बच जाते हैं-वही गायब!!

आजकल देख रहा हूँ रिश्ते भी कुछ ऐसे ही हो गये है. बस दो तीन तारों की तरह सिमटी हुई रिश्तों की दुनिया. खुद के भाई बहन और ज्यादा से ज्यादा चाचा, मामा, मौसा, बुआ के परिवार तक. यह भी कुछ पहले की ही बात कर दी. बाकी सब वायरलैस की तरह खुद के चुने हुए मित्रों की चुनी हुई दुनिया जिनमें कोई तार नहीं होते. बस, अहसासों का एक बेतार का जुड़ाव.

किसी अमरीकन विश्वविद्यालय में शोध हुआ है कि अब बिजली के तारों को अलविदा करना होगा. सब तरंगों के माध्यम से होगा-ठीक उन अहसासों जैसा. बिजली घर के भीतर तक भी वैसे ही आयेगी.

सोच रहा हूँ, कल को ये एक दो बचे तार भी विदा हो जायेंगे फिर तो क्या भाई बहन और क्या माँ बाप. सब रिश्ते उतने ही, जितने रखने की इच्छा हो. कोई तार का बंधन नहीं.

होगे तुम मेरे माता पिता मगर मैं तुमसे संबंध नहीं रखना चाहता. पत्नी भी है मगर मैं विवाह करके एक नये तार को जोड़ना नहीं चाहता अतः बिना विवाह के ही साथ रह रहा हूँ. बच्चा सेरोगेट मदर से करवा लिया है ताकि मेरे साथी का शेप न बिगड़े. फिर कैसा तार उस बच्चे से भी. उसकी अपनी दुनिया होगी. बड़े होने तक मदद कर पाये तो कर देंगे वरना उन्हें भी फॉस्टर पेरेंटस ही संभाले. मेरी आजादी में कोई तारों की उलझन नहीं होना चाहिये.

मैं कल को वाली बात ही क्यूँ कर रहा हूँ, यह सब तो लगभग होने ही लगा है और फिर बच्चों की बात तो जबरदस्ती ही करने लगा, जब समलैंगिक साथी होगा तो बच्चों की और उस तार की बात ही क्यूँ करना.

लेकिन आज होती हुई घटनाओं और बदलाव के लिए यह कहना कि शायद कल को ऐसा होने लगे वाली बात इसलिए निकल पड़ी होगी मेरे मूँह से क्यूँकि मैं अब भी पुराने ख्यालों में ही जी रहा हूँ, खूब सारे तारों के बीच उलझता सुलझता खुशी खुशी जिए जा रहा हूँ. मुझे यूँ ही उलझे रहना अच्छा लगता है मगर मेरे अकेले के चाहने से होगा क्या? तार का एक सिरा जुड़ा हो और दूसरा टूटा, तब ऐसे तार का क्या महत्व? तुम प्रगतिशील हो-जमाने के साथ साथ बदलने वाले और मैं थमा-स्थिर. तुम्हारी नजर में, बेचारा मैं.

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार मार्च 19, 2022  के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/66919409

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शनिवार, मार्च 12, 2022

इसी को फील गुड फैक्टर कहते हैं!!

 


 

दफ्तर से घर लौट रहा हूँ. स्टेशन पर ट्रेन से उतरता हूँ. गाड़ी करीब ५ मिनट की पैदल दूरी पर खुले आसमान के नीचे पार्क की हुई है. थोड़ी दूर पार्क करके इस ५ मिनट के पैदल चलने से एक मानसिक संतोष मिलता है कि ऐसे तो पैदल चलना नहीं हो पाता दिन भर.  दफ्तर में अपनी सीट में धंसे बैठे ही रहते हैं, कम से कम इसी बहाने चल लें. नहीं से हाँ भला. सेहत के लिये अच्छा होगा. दिल के एक कोने में खुद को हँसी भी आती है कि भला ५ मिनट सुबह और ५ मिनट शाम पैदल चलने से इस काया पर क्या असर होने वाला है मगर खुद को साबित करने के लिये उस हँसी को उसी कोने में दमित कर देता हूँ, जहाँ से वो उठी थी. सब मन का ही खेला है. अच्छा लगता है.

जब कार पास में खड़ी करता था, तब मन को समझाता था कि चलो, इसी बहाने शरीर को आराम मिलेगा. सुबह सोचता कि दिन भर तो दफ्तर में खटना ही है और शाम सोचता कि दिन भर खट कर आ रहे हैं. अच्छा है पास में पार्क की. व्यक्ति हर हालत में अपना किया सार्थक साबित कर ही लेता है. अच्छा लगता है.

आज जब स्टेशन पर उतरा तो एकाएक बारिश शुरु हो गई. वहीं वेटिंग एरिया में रुक कर बारिश रुकने की प्रतिक्षा करने लगा. छाता आज लेकर नहीं निकला था और इस बारिश का देखिये. रोज छाता लेकर निकलता हूँ, तब महारानी गायब रहती हैं. आज एक दिन लेकर नहीं निकला तो कैसी बेशरमी से झमाझम बरस रही हैं. मानो मुँह चिढा रही हो.

कोई बच्चा तो हूँ नहीं कि बारिश की इस अल्हड़ता पर खुश हो लूँ. स्वीकार कर लूँ उसका नेह निमंत्रण. लगूँ भीगने. नाचूँ दोनों हाथ फेलाकर. माँ कितना भी चिल्लाये, अनसुना कर दूँ कि तबीयत खराब हो जायेगी. बस बरसात में उभर आए छोटे छोटे पोखरों के पानी में छपाक छपाक करुँ , कागज की नाँव बना कर बहाने लगूँ. मैंढ़क पकड़ कर शीशी में रख लूँ. लिजलिजे से केंचुऐं पकड़ लूँ , वो पहाड़ के नीचे वाले बड़े नाले में से आलपिन से गोला बना कर मछली अटकाने के लिये.

हम्म!! ये सब तो बच्चे करते हैं. मैं तो बड़ा हूँ. पानी रुक जाने पर ही पोखरे बचाते हुए धीरे धीरे संभल कर कार तक जाऊँगा. कल फिर से तो दफ्तर जाना है. वो दफ्तर वाले थोड़ी न समझेंगे कि बारिश देखकर मैं बच्चा बन गया और लगा था भीगने. न, मैं नहीं भीगने वाला.

बहुत गुस्सा आ रहा है बारिश पर, बादलों पर, मौसम पर. क्यूँ मुझे बच्चा बनाने पर तुले हैं. वैसे मन के एक कोने में यह भी लग रहा है कि फिर से बच्चा बन जाने में मजा तो बहुत आयेगा. मगर अब कहाँ संभव यह सब. इसलिये यह विचार त्याग कर सोचने लगता हूँ कि कैसे जान लेते हैं ये कि आज मैं छतरी नहीं लाया. दिन भर बरस लेते, कम से कम मेरे आने के समय तो ५ मिनट चैन से रह लेते. मगर इन्हें इतनी समझ हो, तब न! मैं भी किन मूर्खों को समझाने की कोशिश कर रहा हूँ.

फिर अपनी खीझ उतार कर चुपचाप बारिश रुकने का इन्तजार कर रही भीड़ का हिस्सा बन जाता हूँ. यूँ भी तो ज्यादा जिंदगी भीड़ का हिस्सा बने ही तो गुजर रही है सबकी. जब आप आप नहीं होते बस एक भीड़ होते हैं. तब आप अपने मन की नहीं करते जो भी करते हैं या तटस्थ भीड़ शामिल रहते हैं, वो ही तो भीड़ की मानसिकता कहलाती है. उस वक्त तो सब जायज लगता है.

अपनी गलती कौन मानता है कि छाता लेकर निकलते तो इन्तजार न करना पड़ता. मुझे तो सारी गलती बारिश, बादल और मौसम की ही लगती है. अच्छा लग रहा है अपनी खीझ उतार कर.

बस, इसी अच्छा लगने की तलाश में हर जतन जारी है. किसी ने बताया कि इसी को फील गुड फैक्टर कहते हैं, कितने आदी हो गए हैं हम इसके.

-समीर लाल ‘समीर’

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार मार्च 13, 2022  के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/66779537


रविवार, मार्च 06, 2022

चिंता है तो कभी न कभी निवारण भी होगा ही

 


थक गये भाई पूछ पूछ कर.

जिसको देखो बस एक लाइन बोल कर भाग जाता है कि साहित्य नहीं रचा जा रहा है आजकल

मगर कोई ये बताने तैयार ही नहीं कि आखिर साहित्य होता क्या है, क्या है इसकी परिभाषा और हमें क्या करना होगा कि साहित्य रच पायें. बहुत बार और बहुत जगह जाकर पूछा, रिरिया कर पूछा, गिड़गिड़ा कर पूछा मगर जैसे ही पूछो कि आखिर साहित्य है क्या, भाग जाते हैं. बताते ही नहीं. मानो सरकार बता रही हो कि भारत का विकास हो रहा है. पूछो कहाँ, तो भाग जाते हैं? आप खुद खोजो.

अरे, हम खुद ही खोज या जान पाते तो आपको इतना कहने की तकलीफ भी न देते कि साहित्य नहीं रचा जा रहा है. रच ही रहे होते और तब आप इतना बोलने के पहले ही भाग लिये होते. प्रेम चन्द के गुजर जाने का दुख आज से पहले कभी इतना ज्यादा नहीं हुआ. वो होते तो उनसे पूछ लेते.

बहुत शोध किया. यहाँ वहाँ पढ़ा. एक दो वीरों ने इसे परिभाषित करने की नाकाम कोशिश भी की. पिछले वाक्य में नाकाम अंडरलाइन मानें. कर नहीं रहे बस आप मानें. जब वो बिना ’साहित्य क्या है’ बताये बता सकते हैं कि ’यह साहित्य नहीं है’ तो हम भी बिना अंडरलाइन लगाये बता दे रहे हैं कि नाकाम शब्द अंडरलाइन है. इस पर भी मन न भरा हो तो और लो, बोल्ड भी है.

भारत के विकास को लेकर सोचता हूँ कई बार इसी तरह. किसको विकास मानूँ: बढ़ती महँगाई को, अव्यवस्था में आये इजाफे को, बिजली पानी की अनुपलब्धता की बढ़ती दर को, गिरते सेन्सेक्स को, एकता कपूर के सीरियलस में बढ़ते एक्स्ट्रा मेरिटल अफेयरर्स को, बढ़ती किसानों की खुदकुशी को या फिर बढ़ती नेताओं की ढिठाई और उनके बढ़ते भ्रष्टाचार को.

जैसे साहित्य की परिभाषा हो वैसे ही कोई ज्ञानी बता जाता है कि भारत भी विकास की राह पर है. विनती बस इतनी सी है कि मुम्बई, दिल्ली, कलकत्ता, मद्रास और बैंगलोर को ही भारत मानें और उसकी भी पाँच प्रतिशत आबादी को. विकास के आकलन में कृपया ट्रेफिक जाम, बिजली, पानी आदि को रोड़ा न बनायें, वह इस आंकलन में शामिल नहीं है. यह सब सामान्य परिस्थियाँ हैं जिसके आप सब आदी हैं. इसमें सिर्फ मॉल, कॉल सेन्टर (प्राफिट वाले), अदानी अंबानी लेवल के उद्योगपति, साहब लेवल के नेता, लीलावती अस्पताल का वीआईपी एरिया, अम्बे वेली पूणे का रहवासी इलाका, बिग सिनेमा, नेता घराने के नव नेता,  भाजपा का नया दफ्तर, अंग्रेजी में हुआ भारतीय हिन्दी सिनेमा का समारोह, चीयर बालायें (२०-२० कुछ दिन इस लिस्ट से अलग किया गया है), पेज ३ पार्टियाँ आदि को शामिल माना जाये. देखिये, भारत कितना विकास कर गया है.

कहते हैं जल्दी ही विकसित भारत में व्यक्ति को नाम की बजाय यूनिक नम्बर आईडेन्टिटी से जाना जायेगा. अरे, जहाँ इंसान परेशान हो कर चन्द रुपये में किडनी बेच दे रहा है, वहाँ नम्बर कब तक सहेजे रहेगा? पुलिस की गोली से मरेगा कोई और जेब से प्राप्त आईडी से मृत दर्ज होगा कोई. खैर, उम्मीद तो अच्छे की ही होना चाहिये, तब अच्छा ही होगा.

जरूरत सिर्फ चिंतित रहने की है.

चिंता है तो कभी न कभी निवारण भी होगा ही, यही एक आशा की किरण है जो जिन्दा रखे है इस अफलातूनी लेखन को.

-समीर लाल ‘समीर’

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार मार्च 6, 2022 के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/66633249

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