किस्मत कुछ ऐसी रही कि जहाँ भी पहुंचते हैं तो लगता है वक्त कह रहा
है ‘थोड़ा देर कर दी यार तुमने आने में, वरना तो क्या जलवा देखते’. वो तो हमने खैर
पैदा होने में भी देर कर दी वरना 1947 के पहले पैदा हो गए होते तो स्वतंत्रता
संग्राम सेनानी कहलाते. एक दो 1945 और 1946 की पैदाईश वालों को तो मैं भी जानता
हूँ जो खुद को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बता बता कर सांसद हो लिये जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय 1 बरस और दो बरस के
ही थे. मगर कौन चैक करने जाता है? वरना अगर चैक करने की प्रथा होती तो इनके चरित्र
चैक होने के बाद तो एक भी वोट न मिलता.
खैर, जिस जमाने में
हम पैदा हुए, तब तक एक तो देश की सोने की
चिड़िया फुर्र हो चुकी थी और दूसरा शराफत और ईमानदारी इस दुनिया से विदा
हो चुके थे. ऐसा हम नहीं कह रहे हैं हमारे शहर भर के बुजुर्ग बताया करते थे. हम
देर से पैदा हुए. जिससे सुनो बस यही सुनते थे कि अब शराफत और ईमानदारी का जमाना
नहीं रहा. विदा तो खैर तब तक गाँधी जी भी हो चुके थे मगर उनके बारे में जान लेने
के लिए और बताने के लिए इतिहास की किताबें थी और ज्ञानी लोग थे. अभी उतनी देर भी नहीं हुई थी कि गांधी जी का नाम इतिहास की किताबों
से भी मिटा देने का प्रयास शुरू हो गया हो. वैसे इतिहास बहुत जिद्दी होता है, यह
बात इस प्रयास में लगे लोग शायद भूल रहे हैं. पाठ्य पुस्तकों से निकाल देने के बाद
भी इतिहास तो दर्ज रहता ही है. उसी इतिहास में इस प्रयासकर्ता के रूप में तुम्हारा
नाम भी दर्ज हो जाएगा, बस्स!! इतिहास में सिर्फ महापुरुषों का ही नाम दर्ज हो, ऐसा
कतई जरूरी नहीं. जनरल डायर भी जलिया वाले बाग के नरसंहार को लेकर जिस इतिहास में
दर्ज हैं, उसी में गाँधी जी एक अहिंसा के पुजारी के रूप में शामिल हैं.
शराफत के विषय में किताब में जो कुछ भी दर्ज पाया या लोगों से जाना
वो बड़ा कन्फ्यूज करने वाला रहा अतः कभी कोई निश्चित जबाब मिला ही नहीं. जब तक हम
किसी की किसी हरकत को शराफत समझते, वो उसे छोड़ने की घोषणा करता मिलता है कि बस,
अब
तक हम शराफत से पेश आ रहे थे तो तुमको समझ नहीं आ रहा था, अब हम बताते हैं
तुमको अपनी असली औकात!
पुलिस वाला तक शराफत और ईमानदारी की बात करता नजर आता है तो सारा पढ़ा
लिखा पानी हो जाता है. उस दिन पुलिस वाला कहता मिला कि शराफत से पूछ रहा हूँ, ईमानदारी
से बता दो वरना तो फिर तुम जानते ही हो हमें उगलवाना आता है.
लोग शराफत को कपड़ो की तरह उतारते पहनते दिखते हैं. कोई उसे कही छोड़
आता है, तो कोई कहता है कि शराफत गई तेल लेने. एक सज्जन का तो तकिया कलाम ही यही
मिला कि हमसे शराफत की उम्मीद मत रखना, उधार देना जानते हैं तो ब्याज वसूलना
भी जानते हैं.
एक तरफ तो बुजुर्ग बता गये कि शराफत का जमाना गया तो दूसरी तरफ ऐसे
ऐसे विवादास्पद दृष्य देखकर आज तक ये ही नहीं समझ आया कि शराफत होती क्या है. ऐसे
में कल को जब बच्चे पूछेंगे कि शराफत क्या होती है तो क्या जबाब देंगे?
यही सब सोच कर अब तो हम भी आजकल इतना ही कहते हैं कि अब शराफत का
जमाना नहीं रहा. हालांकि उम्र के इस दौर में बच्चों के लिए हम शहर के वैसे ही
बुजुर्ग है जिनका शुरु में हमने जिक्र किया था हमारे जमाने
वाले.
क्या पता उन्होंने भी कभी शराफत और ईमानदारी को देखा था या हमारी तरह ही अपने बुजुर्गों से सुना सुनाया
जुमला उछालते रहे ‘अब शराफत और ईमानदारी का जमाना नहीं रहा?’
आप में से किसी ने देखा है
क्या ‘शराफत और ईमानदारी का जमाना’? अगर देखा हो तो मुझ अज्ञानी का ज्ञानवर्धन कर
दें.
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जून 13 , 2021 के
अंक में:
http://epaper.subahsavere.news/c/61094652
ब्लॉग पर पढ़ें:
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शराफत और ईमान्दारीर के व्यंगात्मक विश्लेषण के बाद " ... अगर देखा हो तो मुझ अज्ञानी का ज्ञानवर्धन कर दें" यह कहकर हम पाठकों को प्यार से मीठी छुरी चलकर घायल कर दिया , Ha Ha.....
जवाब देंहटाएंये शराफ़त का ज़माना हर किसी के समय में इनके बाप दादाओं का ही रहा है …
जवाब देंहटाएंबुजुर्ग शराफत अली की बात कर रहे होगे....या शराफत अनाथ है जिसे रखने को कोई तैयार नहीं होता...तो ये उसकी किस्मत है
जवाब देंहटाएंआनेवाली पीढी हमारे थजीवन में शराफत ढ़ूढ़ेगी ।
जवाब देंहटाएंबहुत सही। शराफ़त और ईमानदारी तो हम पिछले जन्म से खोजते खोजते इस जन्म में आ गए। ये अलग बात की यह डॉयलॉग सुनते सुनते बोलने भी लग गए। 😊
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