शनिवार, फ़रवरी 20, 2021

शायद फिर किसी आंदोलन की जरूरत नहीं पड़ेगी

 


आम जन हैं तो आम जन की तरह ही सुबह सुबह उठते ही फेसबुक खोल कर बैठ जाते हैँ। वो जमाने अब गुजरे जब मियां फाकता उड़ाया करते थे या लोग कहा करते थे कि 

समय बिताने के लिए, करना है कुछ काम,

शुरू करो अंताक्षरी, ले कर हरि का नाम!!

फेसबुक पर रोज का पहला काम कि अपनी आखिरी पोस्ट पर कितने लाइक आए और दूसरा वो जो फेसबुक मुस्तैदी से बताता है कि आज किस किस का जन्म दिन है। १०० -२०० मित्र थे तो हर एक दो दिन में एकाध का जन्म दिन होता था बस १ जनवरी और १ जुलाई को कुछ ज्यादा लोगों का। ५० पार लोगों में अधिकतर उस जमाने को याद कर सकते हैं जब मोहल्ले के चाचा बच्चों को स्कूल ले जाकर भर्ती करा देते थे। अब सब बच्चों के जन्म दिन कहां तक याद रखें तो स्कूल खुलने के दिन से ५ साल घटा कर उम्र लिखा देते थे।  १ जुलाई को हिन्दी स्कूल खुलते थे तो ऐसे सब बच्चों के जन्म दिन १ जुलाई। अंग्रेजी स्कूल का सत्र १ जनवरी से शुरू होता था अतः वहां १ जनवरी वालों की बहुतायत होती है। आज यह बात आश्चर्यजनक लग सकती है मगर आज आश्चर्य तो इस बात पर भी होता है कि उस जमाने में कुछ नेता सच में ईमानदार भी होते थे। अब तो सोच कर भी विश्वास नहीं होता।

खैर, फेस बुक पर १०० -२०० मित्र वाली बात भी १० साल से ज्यादा पहले की बात है। अब जब आंकड़ा अधिकतम पर पहुँच कर रुक गया है तो इन ५००० मित्रों में से ९०% प्रतिशत का तो पता ही तब चलता है, जब फेसबुक उनका जन्म दिन बताता है। सुबह सुबह उठ कर लाइक गिनने की आदत तो अब खैर नहीं रही। जैसे बचपन में रात में कंचे गिन कर सोते थे कि दिन भर में कितना जीते और फिर सुबह उठकर गिनते थे कि रात में किसी ने चुरा तो नहीं लिये। कभी चोरी नहीं हुए। बड़े हो गए तो अब कंचों की जगह रुपयों ने ले ली है। सुबह उठकर फिर गिनना पड़ता है। हालांकि चौकीदार रखा हुआ है, मगर हर सुबह कुछ रुपये कम ही निकलते हैं। चौकीदार से पूछो तो वो फूट फूट कर रोने लगता है, आंसू बहाने लगता है। कहता है कि अगर मैं चोर साबित हो जाऊं तो बीच चौराहे पर फांसी दे देना। आंसू सहानभूति बटोर लेते हैं और हम अपनी किस्मत को ही चोर मान कर रजाई ओढ़े कुड़कुड़ाते रहते हैं। रात भर चौकीदार आवाज लगाता रहता है -जागते रहो!! जागते रहो!! और हम सोचते रहते हैँ कि अगर हमें ही जागते रहना होता तो फिर भला तुमको रखने का अभिप्राय क्या है?   

खैर, जन्म दिन की बधाई देने के लिए जब वो सूची सुबह सुबह देखते हैं, तब पता चलता है कि अरे!! यह भी हमारे मित्र हैं? अगर जन्म दिन न आता तो हम जान ही न पाते कि यह हमारे मित्र हैं। फिर उनके मैसेज बॉक्स में बधाई टाइप करते हुए पता चलता है कि पिछले पाँच साल से बंदे को बिना नागा बधाई दे रहे हैं और वो हैं कि कभी धन्यवाद कहना भी जरूरी न समझा। एकदम से गुस्सा आ जाता है।  अपने आपको सांसद समझता है क्या? सिर्फ चुनाव आने पर दिखना है बाकी तो पता भी न चले कि ये हमारे सांसद हैं।

अच्छा है जन्म दिन हर साल आता है। अब हम जागरूक हो गए हैं। हर दिन जिन निष्क्रिय मित्रों का  जन्म दिन दिखाता है, उन्हें जन्म दिन के तोहफे में अनफ्रेंड कर उन्हें मित्रता के बोझ से मुक्त कर देते हैं और जो नए सक्रिय मित्र कतार में हैं, उन्हें अपनी मित्र मंडली में शामिल कर लेते हैं। इस जागरूकता के चलते धीरे धीरे ही सही, सक्रिय मन माफिक मित्र शामिल होते जा रहे हैं,वरना तो ये निष्क्रिय जाने कब से जगह घेरे बैठे थे।

सोचता हूँ कि अगर यही जागरूकता आमजन में भी आ गई तो वो दिन दूर नहीं, जब सिर्फ चुनाव के वक्त दिखने वाले निष्क्रिय नेताओं को जनता अनफ्रेंड करने में कतई न हिचकिचाएगी और मनमाफिक नेता ही चुनाव जीत कर जाएगा। सक्रियता ही नेता बने रहने का पैमाना होगी।

इन्तजार है इस जागरूकता आंदोलन का- फिर शायद किसी अन्य आंदोलन की जरूरत ही न पड़े।

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार फरवरी २१, २०२१ के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/58582317

 

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5 टिप्‍पणियां:

  1. Very nicely connected humor to the title in your own unique style, Great!!!

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (22-02-2021) को "शीतल झरना झरे प्रीत का"   (चर्चा अंक- 3985)    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
     आप अन्य सामाजिक साइटों के अतिरिक्त दिल खोलकर दूसरों के ब्लॉगों पर भी अपनी टिप्पणी दीजिए। जिससे कि ब्लॉगों को जीवित रखा जा सके।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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  3. काश ये जागरूकता आंदोलन शीघ्र आये । आज तो मित्र और संसद दोनो ही लपेटे में आ गए । मन में कहीं लाइक और टिप्पणियों की कमी भी खटक रही ।
    बढ़िया व्यंग्य ।

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  4. सोचता हूँ कि अगर यही जागरूकता आमजन में भी आ गई तो वो दिन दूर नहीं, जब सिर्फ चुनाव के वक्त दिखने वाले निष्क्रिय नेताओं को जनता अनफ्रेंड करने में कतई न हिचकिचाएगी और मनमाफिक नेता ही चुनाव जीत कर जाएगा। सक्रियता ही नेता बने रहने का पैमाना होगी।

    इन्तजार है इस जागरूकता आंदोलन का- फिर शायद किसी अन्य आंदोलन की जरूरत ही न पड़े।

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