बिजली विभाग और
उसकी रहवासी कॉलिनियों
से मेरा बड़ा
करीब का साबका
रहा है. पिता
जी बिजली विभाग
में थे और हम बचपन
से ही उन्हीं
कॉलिनियों में रहते
आये.
मैने बहुत करीब
से बिजली से
खम्भों को लगते देखा है,
एक से एक ऊँचे ऊँचे.
उच्च दाब विद्युत
वाले लंबे लंबे
खम्भे और टॉवर भी, सब
लगते देखें हैं.
जब बड़े टॉवर
और खम्भे लगाये
जाते थे साईट पर, तब
खूब सारे मजदूर
जमा होते थे.
खम्भा उठाते और
खड़ा करते वक्त
सामूहिक ताकत एकत्रित
करने के लिये वो नारे
के तर्ज पर गंदी गंदी
गालियाँ बका करते
थे. गाली का पहला भाग
उनका हेड मजदूर
चिल्ला कर बोलता
और बाकी के सारे मजदूर
सुर में उसे पूरा करते
हुये ताकत लगाते
थे और खम्भा
खड़ा कर देते.
जब भी कोई
मंत्री निरीक्षण के
लिये आते, तब उन मजदूरों
को गाली न बकने के
निर्देश दिये जाते.
मैं आश्चर्य किया
करता. अरे, खम्भा
तो निर्जीव चीज
है. इन गालियों
के असली हकदार
की उपस्थिती में
ही उन पर पाबंदी! यह तो अजब बात
हुई!! मगर यही तो होता
है लोकतंत्र में.
जो जिस चीज का असली
हकदार होता है,
वो ही उससे वंचित रहता
है. सब कुछ उल्टा पुलटा.
जिन लोगों को
जेल में होना
चाहिये वो संसद में होते
हैं और जिनको
संसद में होना
चाहिये वो पड़े होते हैं
गुमनामी में, बिल्कुल
उदासीन और निर्जीव-बिना गड़े
खम्भे के समान.
उनसे बेहतर तो
मुझे यह निर्जीव
खम्भा ही लगता है. शायद
कल को गड़ा दिया जाये
तो खड़ा तो हो जायेगा.
ये तो यूँ उदासीन ही
पड़े पड़े व्यवस्था
पर कुढते हुए
इसी मिट्टी में
मिल जायेंगे एक
दिन.
तो बात चल
रही थी, मंत्री
जी के निरीक्षण
की. तब सब मजदूर ताकत
इकट्ठा करने और दम लगाने
के लिये दूसरे
नारों का प्रयोग
करते. सरदार कहता,
"दम लगा के"
पीछे पीछे सारे
मजदूर ताकत लगाते
हुए कहते, "हइस्सा"
और बस खम्भा
लग जाता. मंत्री
जी के सामने
तो यह महज एक शो
की तरह होता.
हल्के फुल्के खम्भे
खड़े कर दिये जाते. फिर
मंत्री जी का भाषण होता.
वो चाय नाश्ता
करते. कार्य की
प्रगति पर साहब की पीठ
ठोकी जाती और वो चले
जाते. और फिर भारी और
बड़े खम्भों की
कवायद चालू...बड़ी
बड़ी मशहूर हीरोइनों
के नाम लिये
जाते सरदार के
द्वारा और बाकी मजदूर उन
नारों वाली गालियों
को पूरा करते
हुए ताकत लगाते
और खम्भे खड़े
होते जाते.
मैं तब से
ही गालियों के
महत्व और इनके योगदान से
परिचित हूँ. क्रोध
निवारण के लिये इससे बेहतर
कोई दवा नहीं.
बहुत आत्म विश्वास
और ताकत देती
हैं यह गालियाँ.
जितनी गंदी गाली,
जितनी ज्यादा तर्रनुम
में बकी जाये,
उतनी ज्यादा ताकत
दिलाये. काश इस बात का
व्यापक प्रचार एवं
प्रसार किया जाता,
तो न तो च्यवनप्राश बिकता और
न ही गुप्त
रोग विशेषज्ञों की
दुकान चलती. जड़ी
बूटियों से ज्यादा
ताकत तो इन गालियों में हैं,
वरना वो मजदूर
जड़ी बूटी ही खाते होते.
उम्र के साथ
साथ बाद में इन गालियों
के सामाजिक और
सांस्कृतिक महत्व के
विषय में भी ज्ञानवर्धन होता रहा.
तब हमारे पास
एक कुत्ता होता
था. हम चाहते
तो उसका नाम
कुत्ता ही रख देते. मगर
फैशन के उस दौर की
दौड़ में हाजिरी
लागाते हुए हम ने उसका
नाम रखा - टाईगर.
बस नाम टाईगर
था अन्यथा तो
वो था कुत्ता
ही. वो तो हम उसका
नाम टाईगर की
जगह बकरी भी रख देते
तो भी वो रहता कुत्ता
ही, न!! नाम से कोई
अंतर नहीं पड़ता,
चाहे छ्द्म या
असली. भूरे भूरे
रोयेदार बालों के
साथ बड़ा गबरु
दिखता था टाईगर.
नस्ल तो मालूम
नहीं. उसकी माँ
को शायद विदेशियों
से बहुत लगाव
था, इसलिये वो
जरमन सेपर्ड, लेबराडोर
और शायद बुलडाग
भी, की मिली जुली संतान
था. कोई एक नस्ल नहीं,
कोई एक धर्म नहीं, बिल्कुल
धर्म निरपेक्ष. बस
एक कुत्ता. सब
घट एक समान में विश्वास
रखने वाला प्यारा
टाईगर.
जब भी टाईगर
हमारे नौकर के साथ घूमने
निकलता, तो उसकी एक अजब
आदत थी. हर खम्भे के
पास जाकर वो नाक लगाता
मानो कोई मंत्र
बुदबुदा रहा हो और फिर
एक टांग उठा
कर उसका मूत्राभिषेक
करता. चाहे कितने
भी खम्भे राह
में पड़ें, वो
यह क्रिया सबके
साथ समभाव से
निपटाता. खम्भों के
अलावा वो सिर्फ
नई स्कूटर और
नई कार को पूजता था.
अन्य किसी चीजों
से उसे कोई मतलब नहीं
होता था. भले ही आप
उसके सामने नई
से नई मंहगी
पैन्ट पहन कर खम्भे की
तरह खड़े हो जाये, वो
आपको नहीं पूजेगा.
आप उसकी नजरों
में पूजनीय नहीं
हैं तो नहीं हैं. पैसे
की चमक दमक से आप
अपने को पूजवा
लेंगे, यह संभव नहीं था.
इस मामले में
वो आज की मानव सभ्यता
से अछूता था.
कुत्ता था न!!
बाद में हमारे
घर के पिछवाड़े
में मीलों तक
फैले खुले मैदान
में बिजली का
सब-स्टेशन बना.
खूब खम्भे गड़े.
हमें, न जाने कितनी हीरोईनों
के नाम मालूम
चले और खूब तरह तरह
की गालियाँ सीखीं.
दिन भर खम्भे
गड़ते और हम दिन भर
गालियों का रसास्वादन
करते और नई नई गालियाँ
सीखते.
सब-स्टेशन लगभग
तैयार हो गया था. हर
तरफ खम्भे ही
खम्भे. निर्माण कार्य
अंतिम चरणों में
था. टाईगर उसी
तरफ घूमने जाने
लगा. भाग भाग कर हर
खम्भा कवर करता.
अति उत्साह और
अति आवेग में
भूल गया कि
" अति सर्वत्र वर्जयेत" . बस
उसकी अपनी उमंग.
इसी अति उत्साह
में शायद विद्युत
प्रवाहित खुले तार
पर, जो कि किसी खम्भे
से छू रहा था, मूत्राभिषेक
कर गुजरा और
भगवान को ऑन द स्पॉट
प्यारा हो गया. नौकर उसके
मृत शरीर को गोद में
उठाकर लाया था.
फिर वहीं उसी
मैदान के एक कोने में
उसे गड़ा दिया
गया. टाईगर नहीं
रहा, मगर खम्भे
खड़े रहे.कई और छद्म
और दूसरे नामों
के टाईगर उन
पर मंत्र फूकते
रहते हैं और अभिषेक भी
अनवरत जारी है.
एक टाईगर के
चले जाने से न तो
अभिषेक रुक जाते
हैं और न ही स्थापित
खम्भे गिर जाते
हैं.
मेरा मानना है,
स्थापित खम्भे इन्सानियत
में आस्था का
प्रतीक होते हैं,
स्थिर और अडिग.
चन्द हैवानी हवाओं
से बिल्कुल अविचलित
- तटस्थ!!
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल के
दैनिक सुबह
सवेरे में
रविवार फरवरी ०९,
२०२० में
प्रकाशित:
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चित्र साभार: गुगल
Excellent and live rejuvenation of memories forgotten over two decades. One of the greatest humour....
जवाब देंहटाएंLooking forward....
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (12-02-2020) को "भारत में जनतन्त्र" (चर्चा अंक -3609) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
very nice article.
जवाब देंहटाएंvery nice article.
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