बचपन से ही मैं बाँये हाथ से लिखता था. लिखने से पहले ही खाना खाना सीख गया था, और खाता भी बांये हाथ से ही था. ऐसा भी नहीं था कि मुझे खाना और लिखना सिखाया ही बाँये हाथ से गया हो लेकिन बस जाने क्यूँ, मैं यह दोनों काम ही बांये हाथ से करता.
पहले पहल सब हँसते. फिर डाँट पड़ने का सिलसिला शुरु हुआ.
अम्मा हुड़कती कि लबड़हत्थे से कौन अपनी लड़की ब्याहेगा? (उत्तर प्रदेश में बाँये हाथ से काम करने वालों को लबड़हत्था कहते हैं)
आदत छुड़ाने के लिए खाना खाते वक्त मेरा बाँया हाथ कुर्सी से बाँध दिया जाता. मैं बहुत रोता. कोशिश करता दाँये हाथ से खाने की लेकिन जैसे ही बाँया हाथ खुलवा पाता, उसी से खाता. मुझे उसी से आराम मिलता.
एक मास्टर साहब रखे गये थे, नाम था पं.दीनानाथ शर्मा. रोज शाम को आते मुझे पढ़ाने और खासकर दाँये हाथ से लिखना सिखाने. जगमग सफेद धोती, कुर्ता पहनते और जर्दे वाला पान खाते. ऐसा नहीं कि बाद में और किसी मास्टर साहब ने मुझे नहीं पढ़ाया लेकिन उनका चेहरा आज भी दिमाग में अंकित है.
बहुत गुस्से वाले थे, तब मैं शायद दर्जा तीन में पढ़ता था. जैसे ही स्कूल से लौटता, वो घर पर मिलते इन्तजार करते हुए. पहला प्रश्न ही ये होता कि आज कौन से हाथ से लिखा? स्कूल में दाँये हाथ से लिख रहे थे या नहीं. मैं झूठ बोल देता, ’हाँ’. तब वो मुझसे हाथ दिखाने को कहते और बाँये हाथ की उँगलियों में स्याहि लगी देख रुलर से हथेली पर मारते. उनकी मुख्य बाजार में कपड़े की दुकान थी. पारिवारिक व्यवसाय था. उन्हीं में से थान के भीतर से निकला रुलर लेकर आते रहे होंगे क्यूँकि जिन दो साल उन्होंने मुझे पढ़ाया, एक सा ही रुलर हमेशा लाते.
फिर मैं जान गया कि वो स्याहि देखकर समझ जाते हैं. तब स्कूल से निकलते समय वहीं पानी की टंकी पर बैठ कर मिट्टी लगा धो धोकर स्याहि छुड़ाता और फिर घर आता.
मगर दीनानाथ मास्टर साहब फिर दाँये हाथ पर स्याहि का निशान न पाकर समझ जाते कि कुछ बदमाशी की है. मैं फिर मार खाता.
इसी दौर में मैने यह भी सीख लिया कि सिर्फ स्याहि धोने से काम नहीं चलेगा तो दाँये हाथ की उँगलियों में जानबूझ कर स्याहि लगा कर लौटता. ऐसा करके काफी हद तक मास्टर साहब को चकमा देता रहा और मार खाने से बचता रहा.
फिर जाने कैसे उनकी पहचान मेरे क्लास टीचर से हो गई. फिर तो वो उनसे पूछ कर घर पर इन्तजार करते मिलते. गनीमत यह रही कि परीक्षा में नम्बर बहुत अच्छे आ जाते तो बाँये हाथ से लिखना धीरे धीरे घर में स्वीकार्य होता चला गया और दीनानाथ मास्टर साहब को विदा दे दी गई. हाँ, खाने के लिए फिर भी बहुत बाद तक टोका गया.
उसी बीच जाने कहाँ की शोध किसी अखबार में छपी कि बाँये हाथ से काम करने वाले विलक्षण प्रतिभा के धनी होते हैं और किसी सहृदय देवतुल्य व्यक्ति ने पिता जी को भी वो पढ़वा दिया. पिता जी ने पढ़ा तो माता जी को ज्ञात हुआ. एकाएक मैं लबड़हत्थे से प्रमोट हो कर विलक्षण प्रतिभाशाली व्यक्तियों की जमात में आ गया.
तब मैं चाहता था कि वो मेरे बड़े भाई को अब डांटे और मास्टर साहब को लगवा कर उसे रुलर से मार पड़वाये कि बाँये हाथ से लिखो. मगर न जाने क्यूँ ऐसा हुआ नहीं. बालमन था, मैं इसका कारण नहीं जान पाया या शायद मेरी विलक्षणता अलग से दिखने लगे इसलिये उसे ऐसे ही छोड़ दिया होगा. ऊँचा पहाड़ तो तभी ऊँचा दिख सकता है, जब नापने के लिए कोई नीचा पहाड़ भी रहे. वरना तो कौन जाने कि ऊँचा है कि नीचा.
लबड़हत्थों की जमात में अमिताभ बच्चन, बराक ओबामा जैसे अनेक लोगों का साथ मिला तो आत्मविश्वास में और बढ़ोतरी हुई और मेरी उस शोध परिणाम में घोर आस्था जाग उठी. काश, उस पेपर की कटिंग मेरे पास होती तो फ्रेम करा कर नित दो अगरबत्ती लगाता और ताजे फूल की माला चढ़ाता.
शोध परिणाम तो खैर समय, जरुरत, बाजार और स्पान्सरर्स/ प्रायोजकों के हिसाब से बदलते रहते हैं मगर अपने मतलब का शोध फ्रेम करा कर अपना काम तो निकल ही जाता. फिर नये परिणाम कोई से भी आते रहते, उससे मुझे क्या?
किन्तु सोचता हूँ क्या इससे वाकई कोई फरक पड़ता है कि आप बाँये हाथ से काम करते हैं या दाँये? फिर क्यूँ न जो सहज लगे, सरल लगे और जो स्वभाविक हो, उसे उसके स्वतंत्र विकास की लिए जगह दे दी जाये..प्रतिभा दाँया, बाँया देखकर नहीं आती. प्रतिभा तो मेहनत और लगन का परिणाम होती है,मेहनत किस हाथ/तरह से की गई उसका नहीं.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे में रविवार नवम्बर १७, २०१९ में प्रकाशित:http://epaper.subahsavere.news/c/45837393
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Excellent narration of natural instincts in most natural form. Great!!!
जवाब देंहटाएंहमारे घर भी कई लबड़हत्थे हैं- बचपन में कोशिश कर हार, गयेअब कोई नहीं टोकता.
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (20-11-2019) को "समय बड़ा बलवान" (चर्चा अंक- 3525) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सही ...
जवाब देंहटाएंप्रतिभा प्रतिभा होती है। चाहे कोई कौन से भी हाथ से लिखे।
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