मंगलवार, अक्तूबर 29, 2019

जो बिकता है वो दिखता है




कालेज के दिनों की याद आई. हम दोस्तों के साथ पिकनिक पर जाया करते थे तो सब मिलकर चिकन पकाते थे. वो स्वाद अब तक जुबान पर है और बनाने की विधि भी कुछ कुछ याद थी. बस फिर क्या था, मैंने एलान कर दिया कि आज रसोई खाली करो, चिकन हम बनाएंगे.
अँधा क्या चाहे, दो आँखें. पत्नी तुरंत रसोई खाली करके टीवी के सामने जा बैठी. हमने तमाम मशक्कत करके प्याज़ काटने से लेकर मसाला भुनने तक में जान लगाते हुए दो घंटे में आराम आराम से चिकन बना डाला. बना भी बेहतरीन और सबने खाया भी दबा कर अर्थात बेहतरीन बने का प्रमाण भी सामने आ गया तुरंत. बस फिर क्या था, पत्नी और बच्चों की तरफ से एक सुर में घोषणा हुई कि अबसे जब भी नॉन-वेज बनेगा, मैं ही बनाया करूँगा. मैंने भी सोचा, अच्छा है. हफ्ते में एक बार तो बनता है, बना दिया करेंगे. अतः बनाने लगे. खूब तारीफ़ होती. तारीफ किसे अच्छी नहीं लगती. लोग तो स्क्रिप्ट लिखकर फिल्म अभिनेताओं से अपनी तारीफ करा लेते हैं.
देखते देखते पत्नी आये दिन कहने लगी की आज सादा खाने का मन नहीं है, आज फिश खाने का मन है, तो आज आपके हाथ की एग करी, तो कभी कीमा, कभी चिकन. बस फिर क्या था, कुछ ही महीने में मैंने पाया की जहाँ पहले हफ्ते मे एक दिन नॉन-वेज के लिए आरक्षित था और बाकी दिन वेज. वहीं अब एक दिन वेज और बाकी के दिन नॉन-वेज पर आ गये. आरक्षण का यही तो कमाल है. शुरु होता है कहीं से फिर वो ही वो दिखता है. हमारा स्टेटस भी अब कुशल रसोईए मे बदल दिया गया.
अब जब मैं कहता कि वेज खाने का मन है तो बता दिया जाता कि बिल्कुल ऐसे ही तो बनाना है, बस चिकन की जगह आलू डाल देना या कभी एग भूर्जी जैसे बनाते हो ना, उसमे अंडे की जगह टिंडोरा काट कर डाल देना. याने की अब सातों दिन खाना मैं ही बनाता. कोई चाल काम ना आती. बना कर देने की बजाय यूट्यूब के लिंक दे दिया जाता कि इसमें से देख कर बना लो, मगर बनाओ ज़रूर. तुम्हारे हाथ मे स्वाद का जादू है, देखो सब कितना स्वाद लेकर खाते हैं. क्या बोलता? खाते तो पहले भी थे ही सब. कभी पत्नी की शिकायत तो किसी से ना सुनी और न ही की. खैर, महिलाओं की शिकायत करने के लिए भी तो हिम्मत चाहिए.
एक कथा सुनी थी कि असली बनिया वो होता है जो अगर भूले से कुएँ में गिर जाए, तो यह सोच कर कि गिर तो गये ही हैं, क्यूँ ना स्नान कर लिया जाए फिर मदद के लिए गुहार लगाएँगे. लोगों का क्या है, अभी जैसे बचाएँगे वैसे ही तब बचाएँगे. नहाना तो निपटाते ही चलें, कम से कम घर पर पानी ही बचेगा.
यही सोच कर मेरी लाला बुद्धि ने भी जोर मारा कि खाना तो अब बनाना ही है तो क्यूँ ना इसकी रिकॉर्डिंग करके यूट्यूब पर खाने का चैनेल ही शुरू कर दिया जाए. देर सबेर पॉपुलर हो गया तो कमाई का ज़रिया बन जाएगा वरना नाम तो हो ही जाएगा. ऐसा ही कुछ सोच कर तो हिन्दी ब्लॉग पर लिखना शुरू किया था.१३ साल लिखते हुए पूरे हो गये, कमाई की गुंजाइश तो अभी आने वाले १३ साल भी नज़र नहीं आती मगर नाम तो कुछ कुछ मिल ही गया. अब तो लगने लगा है की हिन्दी लेखन से कमाई में बस देर है, सबेर तो शायद है ही नही. विकास से मिलता जुलता है, सुनें रोज मगर देखने के लिए आँख तरस जाये.
यूएफओ किचन के नाम से चैनेल शुरू हो गया. हम खाना बनाएँ, पत्नी शूटिंग और रिकॉर्डिंग करें. अब वो बहाना भी ख़त्म कि खाना बना कर थक गये, अब ज़रा बढ़िया चाय बना कर पिला दो. जब तक हम यह बोलें, उसके पहले ही वो कह उठती हैं, शूटिंग करते करते थक गये, खाना तो बन ही गया है. अब ज़रा चाय भी बना लो, तो आराम से बैठ कर तुम्हारे साथ चाय पियें. अब चाय भी अब हम बनाने लगे. रात में की गई शूटिंग की थकान सुबह तक तारी रहती तो सुबह की चाय भी हम पर ही. कसम से अगर शूटिंग करने के लिए किचन में ना आना होता तो अब तक तो किचन का रास्ता भी इनको जीपीएस से देख कर आना पड़ जाता.
ऐसे ही तो आदत बदलती है. ये नेता और बड़े अधिकार कोई पैदायशी बेईमान थोड़ी न होते हैं.सहूलियत मिल जाती है और मौका लग जाता है तो हो लेते हैं. कौन नहीं धन धान्य और आराम चाहेगा? आराम मिलने का मौका लग गया तो कर रहे हैं.
एक बड़ी दिलचस्प बात किसी ने यूट्यूब पर कमेंट करके पूछी कि आप कितने प्यार से खाना बनाते हो हँसते मुस्कराते हुए और न तो कोई गंदगी होती है, न ही कभी मसाला कम ज्यादा और न ही कभी खाना देर तक पकने से जला.
अब उनको कौन समझाए कि जो दिखाया जाता है, वो वो होता है जो दिखाना होता है. सब कुछ पूरा पूरा दिखायें तो हमारा चैनेल तो बहुत छोटी सी बात है, सरकार भी दुबारा ना बन पाये. ये बात हम भी जानते हैं, सरकार भी और फ़िल्में बनाने वाले भी. फरक सिर्फ़ इतना है कि बाद वाले दो यही सब अच्छा अच्छा दिखा कर एक दिन में 50- 50 करोड़ बना लेने का माद्दा रखते हैं.
-समीर लाल ’समीर’

भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे में रविवार अक्टूबर २७, २०१९ में प्रकाशित:

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शनिवार, अक्तूबर 19, 2019

सत्य की नहीं, जुमलों की चलती है बाजारवाद में



बाजार जाता हूँ तो देख कर लगता है कि जमाना बहुत बदल गया है. साधारण सी स्वभाविक बातें भी बतानी पड़ती है. कल जब दही खरीदने लगा तो उसके डिब्बे पर लिखा था कि यह पोष्टिक दही घास खाने वाली गाय के दूध का है. मैं समझ नहीं पाया कि इसमें बताने जैसा क्या है? गाय तो घास ही खाती है. मगर इतना लिख देने मात्र से वो दही सबसे तेजी से बिक रहा था. बाकी के दही के डिब्बे जैसे सजे थे वैसे ही सजे थे. किसी को तो क्या कहें, हमने खुद भी वही खरीदा जबकि बाकी दहियों से मंहगा भी था.
ऐसे ही एक दिन बिकते देखा फ्रेश ब्रेड’. अब भला बाजार में बाकी के ब्राण्ड क्या बासी ब्रेड बेच रहे हैं? और फिर यह जानने के लिए उस पर एक्सपायरी डेट भी तो लिखी होती है. फ्रेश ब्रेड भी तो एक्सपायरी के बाद बासी ही हो जायेगी मगर पन्नी पर तो फिर भी फ्रेश ब्रेड ही लिखा रहेगा.
ऐसा ही युग है बाजारवाद का यह. लोगों की मानसिकता पर प्रहार करके उन्हें अपने जाल में फंसा कर अपना उल्लु सीधा करने का युग. अण्डा है तो पाश्चर रैज्ड एग याने कि जिन मुर्गियों का यह अण्डा है वो पिंजरे की शकिस्ति में न पलकर खुले में घास पर बड़ी जगह में टहल टहल कर खाकर अंडा देती है. अब अंडा तो अंडा है, पिंजरे में दो तो या खुले में दो तो. मगर बाजार उन्हें ज्यादा ताकतवर और स्वादिष्ट बता कर बेच ले रहा है.
अब निंबू को पेड़ से हाथ से तोड़कर या टूट कर गिरा हुआ निंबू उठाकर आपने उसके ताजा रस को मिलाकर मेरे कपड़े धोने का साबुन बनाया, उससे क्या फरक पड़ेगा? निंबू का रस तो वो ही है मगर बताने का तरीका ऐसा कि लगा फेक्टरी वाले सिर्फ मेरे लिए कांटों के बीच अपना हाथ जख्मी करते हुए निंबू तोड़कर उसका ताजा रस निचोड़े हैं मेरे कपड़े धोने का साबुन बनाने के लिए. तो बेचारे कुछ रुपया ज्यादा मांग रहे हैं तो बनती है उनकी. वरना इतना ख्याल तो बीबी भी नहीं रखती. शिकंजी मांगो तो बोतल वाले निंबू के रस से फटाफट बनाकर टिका देती है. कौन जहमत उठाये निंबू निचोड़ने की. वही निचोड़ कर के तो फेक्टरी वालों ने बोतल में पैक करके दिया है.
हर बार बेवकूफ बनते हैं मगर बाजार उस्ताद है. बार बार बेवकूफ बना देता है. बचपन में ६ हफ्ते में गोरा बनाने का वादा करके हमको फेयर एण्ड लवली क्रीम बेच दी थी. ६ हफ्ते में रंग २० का १९.९ भी न हुआ तो उम्मीद त्याग दी और कसम खाई कि भगवान को अगर यही रंग मंजूर है तो यही सही. अब कभी इस पर पैसा नहीं खर्च करेंगे. साल भर बाद फिर यह कह कर कि अबकी बार पहले से ज्यादा मुलायम और पहले से ज्यादा असरदार, एक बार फिर मन ललचवा दिया. हम फिर ६ हफ्ते घिसते रहे और वही ढाक के तीन पात.
फिर तो जीवन भर बाजार तरह तरह के नुस्खे हमें बेचता रहा हर बार नया प्रलोभन देकर. कभी इसमें आंवला है तो कभी हल्दी. नुस्खे बदलते रहे, बैंक का बेलेन्स बदलता रहा मगर जिस रंग को बदलने की कवायद थी वो कभी न बदला. सब काम नकली, प्रभु का काम असली. अब जाकर समझ आया है.
हालिया हालात देखकर तो लगा कि अगली बार नोबल पुरुस्कार देते समय नोबल वालों को बताना पड़ेगा कि ये असली वाला नोबल है जो असली अर्थशास्त्री को दिया जा रहा है वरना तो ये सब मिलकर नोबल की धज्ज उतार ही चुके हैं इस बार. यही हालत रहे तो इनके चलते किसी दिन नोबल भारतियों को मिलना ही न बंद हो जाये.
इनके पास भी नुस्खे हैं हर पांच साल में खुद को बेच लेने के तो फिर क्यूँ न मन की करें? क्यूँ निंदा सुनें, क्यूँ सुधरें? बाजार का भरपूर ज्ञान है. कभी विनाश को टाइपो बता कर विकास कर देंगे और कभी देशभक्ति का अर्थ ही हिन्दुत्व रख देंगे. जनता का क्या है उसे तो बाजार सदा से ही बेवकूफ बनाता आ रहा है तो सत्ता के बाजार ने भी बेवकूफ बना दिया तो इसमें नया क्या है?
अच्छा हुआ कबीर समय पर निकल लिए वरना यह कहने पर तो निकाल ही दिये जाते:

निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,

बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय!!’

 

जब अच्छे खासे अंतरराष्ट्रीय के अर्थशास्त्री जिनका लोहा विश्व मान रहा है, नोबल से नवाज़ रहा है, वो नहीं बर्दाश्त सिर्फ इसलिए कि उन्होंने इनकी नितियों की निंदा कर दी, सही राय दे दी, तो खैर कवि की तो क्या बिसात!!

बाजारवाद में सत्यता कोई नहीं परखता, जुमलों की चलती है.

-समीर लाल समीर


भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार अक्टूबर २०, २०१९ में:


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शनिवार, अक्तूबर 12, 2019

हर साल नकली रावण को नकली राम ही मारते आ रहे



बचपन में वह बदमाश बच्चा था. जब बड़ा हुआ तो गुंडा हो गया. और बड़ा हुआ तो बाहुबली बना. फिर जैसा कि होता है, वह विधायक बना और फिर मंत्री भी. नाम था भगवान दास.
रुतबे और कारनामों की धमक ऐसी कि पुलिस भी काँप उठे. कम ही होते हैं जो इस कहावत को धता बता दें कि पुलिस से बड़ा कौन गुंडा. भगवान दास उन्हीं कम में से एक थे. लोग बताते थे पुलिस भी गैरकानूनी मसले सुलझाने के लिए उन्हीं की शरण लेती थी.
धता बताने को तो वो खैर इस मान्यता की भी धज्जियाँ उठा डालते हैं कि यथा नामे तथा गुणे’. मगर उसमें उनकी गल्ति नहीं कहूँगा वो तो आज कल का प्रचलन है जो नाम दो होवे उसका उल्टा. चाहे वो फिर विकासहो या स्वदेशी’.
भगवास दास के क्षेत्र में दौलत राम, नाम में यहाँ भी वही झोल है, नामक एक अत्यन्त निर्धन एवं दलित व्यक्ति रहता था. दौलत राम भगवान दास के अहाते की साफ सफाई और चाय पान लाने का काम कर दिया करता था और बदले में कुछ धन पा जाता था जीवन यापन करने को. भगवान दास उसे दौलत के बदले दो लात पुकारता और हो हो करके हँसता. गरीब की किस्मत, उसके हो हो के साथ साथ दौलत राम भी मुस्करा कर रह जाता. 
पुनः गरीब की किस्मत कि भगवान दास ने दौलात राम की पत्नी को देख लिया. ठीक ठाक नाक नक्श और भगवान दास को अपने रुतबे का नशा. नशे में ठीक ठाक कुछ ज्यादा ही मन भावन लग जाता है. अतः उठवा लिया. भगवान दास प्रचलन के अनुरुप नाम के विपरीत रावण हो गये. दौलत राम नाम में भर राम लिये बैठे रहे. न तो रावण का कुछ बिगाड़ पाये और न पत्नी को बलात्कार का शिकार होने से बचा पाये.
दौलत राम और उसकी पत्नी बाद में पुलिस से लेकर हर तरफ गुहार लगाते रहे. एक दिन थाने जाते समय उनके रिक्शे को किसी ट्रक ने टक्कर मार दी और दौलत राम की ईहलीला समाप्त हुई. उसके बाद उसकी पत्नी कहाँ गई, किसी को पता ही न चला. किसी ने कहा कि धरती फट गई और उसमें समा गई और किसी ने कहा कि आसमान लील गया. अखबार से लेकर टीवी तक सब इस हो हल्ले के बाद पुनः भगवान दास की अर्चना में जुट गये. भगवान दास मंत्री के साथ साथ आतंक का पर्याय बन गये. मंत्री हैं इसलिए आतंक है या आतंक है इसलिये मंत्री है, यह कहना जरा कठिन कार्य है.
इधर दशहरा आया. भगवान दास ने नई बुलेट प्रुफ कार खरीदी. फैशनानुरुप उसका पूजन किया गया. नींबू मिर्च की झालर टांगी. फिर नये प्रचलन के हिसाब से अपने आंगन के पिछले कमरे में अपने शस्त्रागार में एक लाईसेंसी बन्दूक, बाकी बिना लाईसेंस की तीन माऊजर, कई देशी कट्टे, सैकड़ों पैट्रोल बम और सुअर मार बम, गोलियाँ के बक्से, तलवार, बका आदि के बेहिसाब असले का शस्त्र पूजन किया. अब इस तरह की शस्त्र पूजा खुल कर तो कर नहीं सकते थे अतः हड़बड़ी में पूजन करते करते दीपक हाथ से छूट गिर पड़ा. बम दनादन छूटने लगे. भगवान दास उसी में फंस कर अपने चिथड़े उड़वा बैठे. ठीक उसी वक्त रामलीला मैदान पर रावण का पुतना धूँ धूँ कर जल उठा.
असली नकली दोनों रावण मारे गये. शहर भर में भगवान दास के मरने की खबर बिजली की तरह फैल गई.
लोग आपस मे फुसफुसाये कि भगवान के घर देर है मगर अँधेर नहीं. इस वक्त वे असली भगवान के घर की बात कर रहे थे. इस तरह से बात स्पष्ट करते रहना आज के युग की जरुरत हो गई है.
लोगों की आस्था कलयुग के एक अदृश्य राम में बहुत अरसे के बाद पुनः जाग उठी. वरना तो नकली रावण को नकली राम हर साल मारते ही आ रहे हैं.
-समीर लाल समीर 
भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अक्टूबर १२, २०१९ के अंक में प्रकाशित
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रविवार, अक्तूबर 06, 2019

अन्तरराष्ट्रीय स्तर के होने की योग्यता


बहुत सूक्ष्म अध्ययन एवं शोध के बाद लेखक इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि यदि आपके नाम के अन्त में आ की मात्रा लगाने के बाद भी नाम आप ही का बोध कराये तो आप अन्तरराष्ट्रीय स्तर के हो सकते हैं.

जैसे उदाहरण के तौर पर लेखक का नाम समीर है. यदि आपको समीर नाम सुनाई या दिखाई पड़े तो आपकी नजरों के आगे मेरी तस्वीर उभरती है, शायद कविता पढ़ते हुए या आपकी रचनाओं पर दाद देते हुए मगर जैसे ही मेरे नाम के अंत में आ की मात्रा लगा दी जाती है याने समीरा तो आपकी आँखों के आगे फिल्मों वाली समीरा रेड्डी की तस्वीर उभर आती है बीच पर गीत गुनगुनाते. समीर और समीरा- एकदम दो विपरीत ध्रुव. अतः समीर नाम अन्तरराष्ट्रीय स्तर का होने की पात्रता नहीं रखता.

अब दूसरा उदाहरण लें. नरेन्द्र- सुनते ही आँखो के सामने ५६ इंच का सीना तन गया न और कान में गूँजा- मितरों......!!! अब अगर आप इस नाम के अन्त में आ की मात्रा लगा दें याने कि नरेन्द्रा – तब भी आँख के आगे वही ५६ इंच की सीना और कान में..मितरों..!!!!! याने की इनमें अन्तरराष्ट्रीय हो जाने की योग्यता है और हो ही रहे हैं. राष्ट्र में तो होते ही कब हैं? अधिकतर अन्तर्राष्ट्र में ही बने रहते हैं. मित्र भी अन्तरराष्ट्रीय- जैसे बराक!! वरना तो किस की हिम्मत कि ओबामा साहब को बराक पुकारे. इसके लिए तो ५६ इंच के सीने के साथ साथ अन्तरराष्ट्रीय होना भी जरुरी है. अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जहाँ जाते हैं वहीं नाम का डंका बज रहा होता है.

इनसे जब अरविन्द, राहुल टक्कर लेते हैं तो ये क्यूँ नहीं सोचते कि उनके नाम में अन्तरराष्ट्रीय होने की योग्यता नहीं है तो वो क्या होंगे. बेवजह टकराते हैं. अरविन्दा और राहुला- न जाने कोई होगा भी या नहीं कहीं पर इस नाम का तो तस्वीर क्या खाक उभरेगी भला?

एकदम ताजा ताजा- योग और योगा. योग कहो तो बाबा रामदेव गुलाटी खाते नजर आयें और कान में आवाज गूँजे- करत की विद्या है. करने से होता है- करो करो. और आ की मात्रा लगा कर योगा कह दो तो भी बाबा राम देव ही नजर आयें गुलाटी लगाते और कान में वही- करत की विद्या है. करने से होता है- करो करो.

और फिर ये तो संपूर्ण योग्यता वाले हैं- योग और योगा, राम और रामा और देव और देवा. ’समरथ को नहीं दोष गोसाईं’

अब तो मान जाओ इनका लोहा.

मितरों!! चलो करो- योग (योगा) का जोर है. करो करो- करने से होता है.

-समीर लाल ’समीर’



भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अक्टूबर ५, २०१९ के अंक में प्रकाशित

http://epaper.subahsavere.news/c/44391570



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