जिस हिसाब से आज इतिहास
बदला जा रहा है, सड़को और शहरों के नाम बदले जा रहे हैं, गांधी नेहरू के काम बदले
जा रहे हैं, ऐसे में पुराने समय की कहावतें और मुहावरों को भी एक बार पुनः देखा
जाना चाहिये एवं अगर आवश्यक लगे तो बदला जाना चाहिए. यूँ तो अन्य चीजों में बदलाव
बिना आवश्यकता के भी किया जा रहा है वरना स्टेशनों के नाम बदलने से क्या होने जाने
वाला है? शहर वही, रहने वाले वही. बस मन भटकाने के लिए नाम बदल दो तो ताकि अन्य
जरुरी मूलभूत समस्याओं से ध्यान भटका रहे. वैसे ही जैसे स्मार्ट सिटी के नाम पर एक
नया शगुफा छोड़ा हुआ है. न जाने कितने लोग स्मार्ट हो गए उस फंड से और शहर वहीँ का
वहीँ.
बीते वक्त का एक मुहावरा
है:
‘जितने मूंह, उतनी बात’
आज वक्त बदला है. आज कोई
मूंह से कहां बोलता है? जो कहना है व्हाटसएप पर कह रहा है. वो टाइप करता है –वो
बोलता नहीं है. आमने सामने बैठे दोस्त भी व्हाटसएप पर बात कर रहे हैं. अब इस मुहावरे
को बदल देने का समय आ गया है:
‘जितने हाथ, उतनी बात’
मूंह की जगह हाथ ने ले ली
है. काश! ऐसा युग आज से 25 बरस पहले आया होता तो तम्बाकू खाने वालों की चल निकलती.
उन बेचारों को तो इत्मिनान से घोली तम्बाकू जब आकाश की तरफ मूंह उठाकर भी न संभलती
तो थूक कर बात करना पड़ती थी. अपनी तरफ से बढ़कर तो वे बात न करते थे मगर हर जबाब भी
तो उं आ ना में नहीं हो सकता अतः थूकना ही पड़ता है. मेरी सोच से तो आज का वक्त तम्बाकू
युग कहलाना चाहिये. मगर जब तम्बाकू युग आया तो तम्बाकू खाने वाले कम हो गये.
यही होता है की जब सही वक्त
आता है तो वक्त का सही आनंद लेने वाले नहीं रहते. शायद इसीलिए जिन्दगी को कहा गया
है की जिन्दगी इन्तिहान लेती है. कोई कहता है कि यह जीना नहीं आसान. वजह बस इतनी
सी कि आप जैसा जीना चाहते हैं वैसा वक्त नहीं होता और जैसा वक्त होता है वैसा आप
जीना नहीं चाहते.
आज जब तम्बाकू खाने का
मुफीद वक्त आया है तो आप हैल्थ के प्रति सजग हो लिए. और जब वक्त मूंह से बात करने
का था तब आप तम्बाकू दबाये बैठे थे.
कई बार वक्त का तकाज़ा
देखते हुए लगता है कि सरकार को एक काल ऐसा बना देना चाहिये जहाँ भ्रष्टाचार करने की
पूरी सुविधा हो. पूरा संरक्षण दिया जाए. तब शायद हो ऐसा जाए कि भ्रष्टाचारी मिले
ही न जैसे कि आज तम्बाकूबाज मिलना कम हो गये हैं.
यही हालत है कि कहने को
तो कलयुग है मगर कल की कोई सोच ही नहीं रहा है. वे आज हर वो करम किये जा रहे हैं
की घर भर जाये. कल सीबीआई छापा मारेगी, पकड़े जायेंगे. बदनामी हो जायेगी -इन सब की
कोई परवाह नहीं. कल की कल देखी जायेगी. ऐसे में कलयुग का नाम भी आजयुग रख देना
चाहिये.
जबसे हाथ ने मूंह की जगह
ली है, तब से हालात बदले हैं. मूंह एक है मगर हाथ दो. हर बात में दो बात. दो के
पीछे दो छिपी बात. मीडिया कुछ कहे. सोशल मीडिया कुछ और. और सत्यता कुछ और.
इन सबके बीच एक सामंजस्य
बना कर आज की दुनिया में जी लेना ही एक कला है. वरना तो हर तरफ नकारात्मकता का ही
माहौल हो चला है. सब इन्हीं हाथों से बोली गई बातों का कमाल है.
शायद इसीलिए ‘आर्ट ऑफ
लिविंग’ का तरीका भी बदलना होगा. जब सब बदल रहा है तो ये भी सही.
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे में रविवार सितम्बर १, २०१९ में प्रकाशित:
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चित्र साभार: गुगल
Excellently presented paradox wish vis-s-vis freedom to execute it, it is eternal irrespective of changing times. Great!!!
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