शनिवार, सितंबर 07, 2019

अच्छी नींद लेना मौलिक अधिकारों में से एक है



आजकल मौलिक अधिकारों पर लगातार चर्चा हो रही है. किसी गलत बात को भी सही ठहरा देना और उसे राष्ट्रहित में बताना भी एक वर्ग विशेष के लिए आजकल मौलिक अधिकार की श्रेणी में आ गया है. मौलिक अधिकारों से छेड़छाड़ कतई बर्दाश्त नहीं की जायेगी. अगर आप उनके मौलिक अधिकार में दखल देंगे तो आप देशद्रोही करार कर दिए जायेंगे,
एक जमाने में सुप्रीम कोर्ट ने बताया था कि अच्छी नींद लेना मौलिक अधिकारों में से एक है. यही खबर थी जो उस दिन सभी चैनलों के ट्रिकर पर चल रही थी. तुरंत ही इन्टरनेट पर आग की तरह फैल गई थी. देख-सुन कर लगा था कि मानो हनुमान जी को समुन्दर की किनारे खड़ा करके याद दिलाया जा रहा हो कि तुम उड़ सकते हो. उड़ो मित्र, उड़ो.
बहुत अच्छा किया जो आज सुप्रीम कोर्ट ने बतला दिया वरना हम तो अपने और बहुत से अधिकारों की तरह इसे भी भुला बैठे थे. अच्छी नींद- यह क्या होता है? हम जानते ही नहीं थे. हमें तो अब यह भी भूल जाना होता है कि महंगाई आई है या मंदी है क्यूंकि उस वर्ग विशेष के लिए यह सही राह तक पहुँचने के लिए वो पगडंडी है जिसे पर पहले से ही बबूलके कांटे कोई बिछा गया था.
गरमी की उमस भरी रात- और रात भर बिजली गुम और पास के बजबजाते नाले में जन्में नुकीले डंक वाले मच्छरों का आतंकी हमला वो भी डेंगू जैसे परमाणु बम के साथ. ओह!! मेरे मूल अधिकार पर हमला. केस दर्ज करना ही पड़ेगा. ऐसे कैसे भला एक मच्छर मेरे मूल अधिकारों का हनन कर सकता है. कैसे बिजली विभाग इसका हनन कर सकता है. गरमी की इतनी जुर्रत कि सुप्रीम कोर्ट से प्राप्त मेरे मूल अधिकार पर हमला करे.
भुगतेंगे यह सब राष्ट्रद्रोही. रिपोर्ट लिखाये बिना तो मैं मानूँगा नहीं. जेल की चक्की पीसेंगे यह तीनों, तब अक्ल ठिकाने आयेगी. पचास बार सोचेंगी इनकी पुश्तें भी मेरी नींद खराब करने के पहले.
वैसे मूल अधिकार तो और भी कई सारे लगते हैं जैसे खुल कर अपने विचार रखना (चाहे फेसबुक पर ही क्यूँ न हो), बिना भय के घूमना, शांति से रहना, स्वच्छ हवा में सांस लेना, शुद्ध खाद्य सामग्री प्राप्त करना, अपनी योग्यता के आधार पर मेरिट से नौकरी प्राप्त करना, बिना गड्ढे वाली सड़कें, अपने द्वारा ही चुने नेता से प्रश्न करना आदि मगर ये सब अभी पेंडिंग भी रख दूँ तो भी अच्छी नींद लेने को तो सुपर मान्यता मिल गई है. इसके लिए तो अब मैं जाग गया हूँ. सोच लेना कि मेरी नींद डिस्टर्ब हुई तो मैं जागा हूँ. फट से शिकायत दर्ज करुँगा. जेल भिजवाये बिना मानूँगा नहीं. पता नहीं पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराना मेरा मूल अधिकार है कि नहीं? खैर, वो तो मैं चैक कर लूँगा वरना ले देकर तो दर्ज तो हो ही जायेगी रिपोर्ट.

अब मैं सबकी लिस्ट बना रहा हूँ- सबकी शिकायत लगाऊँगा.

नगर निगम सुबह ५ से ५:३० बजे तक बस पानी देते हो, मेरी नींद खराब करते हो. संभल जाओ, बक्शने वाला नहीं हूँ अब मैं तुम्हें.
और आयकर और जी एस टी वालों- कितना टेंशन देते हो यार. जरा सा कमाया नहीं कि बस तुम सपने में आकर नींद तोड़ देते हो. तुमसे तो मैं बहुत समय से नाराज हूँ- तुम तो बचोगे नहीं अब. बस, अब गिनती के दिन बचे हैं तुम्हारे. तुम तो भला क्या आओगे अब- मैं ही आ जाता हूँ.
और हाँ, तुम- बहुत बड़े स्कूल के प्रिंसपल बनते हो. मेरे बच्चे के एडमीशन को अटका दिया मेरा टेस्ट लेकर. मेरी बेईज्जती करवाई मेरी ही बीबी, बच्चों की नजर में- कितनी रात करवट बदलते गुजरी. नोट हैं मेरे पास सारी तारीखें. अब जागो तुम-जेल में. बस, तैयारी में जुट जाओ जेल जाने की.
बाकी लोग भी संभल जाओ- बहुतेरे हैं मेरी नजर की रडार पर. एक वो नालायक चौकीदार- जिसे मैने ही रखा है कि इत्मिनान से सो पाऊँ. वो रात भर सीटी बजा बजा कर चिल्लाता घुमता है- जागते रहो, जागते रहो. अरे, अगर हमें जागते ही रहना होता तो क्या मुझे पागल कुत्ता काटे है जो तुम्हें पगार दे रहा हूँ. तुम कोई धर्म गुरु तो हो नहीं कि बेवजह तुमको चढ़ावा चढ़ायें और अपने मूल अधिकार वाले अधिकार प्राप्त कर प्रसन्न हो लें. चौकीदार हो चौकीदार की तरह रहो- यह अधिकार मूल अधिकारों से उपर सिर्फ धर्म गुरुओं को प्राप्त है.
आज कुछ संविधान की पुस्तकें निकालता हूँ. सारे मूल अधिकारों की लिस्ट बनाता हूँ. फिर देखो कैसी बारह बजाता हूँ सब की.
अब मैं पूरी तरह से जाग गया हूँ इत्मिनान से सोने के लिए.
-समीर लाल ’समीर’

भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे में रविवार सितम्बर ८, २०१९ में प्रकाशित:
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चित्र साभार: गुगल

रविवार, सितंबर 01, 2019

कलयुग का नाम भी आजयुग रख देना चाहिये


जिस हिसाब से आज इतिहास बदला जा रहा है, सड़को और शहरों के नाम बदले जा रहे हैं, गांधी नेहरू के काम बदले जा रहे हैं, ऐसे में पुराने समय की कहावतें और मुहावरों को भी एक बार पुनः देखा जाना चाहिये एवं अगर आवश्यक लगे तो बदला जाना चाहिए. यूँ तो अन्य चीजों में बदलाव बिना आवश्यकता के भी किया जा रहा है वरना स्टेशनों के नाम बदलने से क्या होने जाने वाला है? शहर वही, रहने वाले वही. बस मन भटकाने के लिए नाम बदल दो तो ताकि अन्य जरुरी मूलभूत समस्याओं से ध्यान भटका रहे. वैसे ही जैसे स्मार्ट सिटी के नाम पर एक नया शगुफा छोड़ा हुआ है. न जाने कितने लोग स्मार्ट हो गए उस फंड से और शहर वहीँ का वहीँ.
बीते वक्त का एक मुहावरा है:
‘जितने मूंह, उतनी बात’
आज वक्त बदला है. आज कोई मूंह से कहां बोलता है? जो कहना है व्हाटसएप पर कह रहा है. वो टाइप करता है –वो बोलता नहीं है. आमने सामने बैठे दोस्त भी व्हाटसएप पर बात कर रहे हैं. अब इस मुहावरे को बदल देने का समय आ गया है:
‘जितने हाथ, उतनी बात’
मूंह की जगह हाथ ने ले ली है. काश! ऐसा युग आज से 25 बरस पहले आया होता तो तम्बाकू खाने वालों की चल निकलती. उन बेचारों को तो इत्मिनान से घोली तम्बाकू जब आकाश की तरफ मूंह उठाकर भी न संभलती तो थूक कर बात करना पड़ती थी. अपनी तरफ से बढ़कर तो वे बात न करते थे मगर हर जबाब भी तो उं आ ना में नहीं हो सकता अतः थूकना ही पड़ता है. मेरी सोच से तो आज का वक्त तम्बाकू युग कहलाना चाहिये. मगर जब तम्बाकू युग आया तो तम्बाकू खाने वाले कम हो गये.
यही होता है की जब सही वक्त आता है तो वक्त का सही आनंद लेने वाले नहीं रहते. शायद इसीलिए जिन्दगी को कहा गया है की जिन्दगी इन्तिहान लेती है. कोई कहता है कि यह जीना नहीं आसान. वजह बस इतनी सी कि आप जैसा जीना चाहते हैं वैसा वक्त नहीं होता और जैसा वक्त होता है वैसा आप जीना नहीं चाहते.
आज जब तम्बाकू खाने का मुफीद वक्त आया है तो आप हैल्थ के प्रति सजग हो लिए. और जब वक्त मूंह से बात करने का था तब आप तम्बाकू दबाये बैठे थे.
कई बार वक्त का तकाज़ा देखते हुए लगता है कि सरकार को एक काल ऐसा बना देना चाहिये जहाँ भ्रष्टाचार करने की पूरी सुविधा हो. पूरा संरक्षण दिया जाए. तब शायद हो ऐसा जाए कि भ्रष्टाचारी मिले ही न जैसे कि आज तम्बाकूबाज मिलना कम हो गये हैं.
यही हालत है कि कहने को तो कलयुग है मगर कल की कोई सोच ही नहीं रहा है. वे आज हर वो करम किये जा रहे हैं की घर भर जाये. कल सीबीआई छापा मारेगी, पकड़े जायेंगे. बदनामी हो जायेगी -इन सब की कोई परवाह नहीं. कल की कल देखी जायेगी. ऐसे में कलयुग का नाम भी आजयुग रख देना चाहिये.
जबसे हाथ ने मूंह की जगह ली है, तब से हालात बदले हैं. मूंह एक है मगर हाथ दो. हर बात में दो बात. दो के पीछे दो छिपी बात. मीडिया कुछ कहे. सोशल मीडिया कुछ और. और सत्यता कुछ और.
इन सबके बीच एक सामंजस्य बना कर आज की दुनिया में जी लेना ही एक कला है. वरना तो हर तरफ नकारात्मकता का ही माहौल हो चला है. सब इन्हीं हाथों से बोली गई बातों का कमाल है.  
शायद इसीलिए ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ का तरीका भी बदलना होगा. जब सब बदल रहा है तो ये भी सही.
-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे में रविवार सितम्बर १, २०१९ में प्रकाशित:


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चित्र साभार: गुगल