हाल ही गोयनका जी के विपश्यना शिविर से लौटे. एक
अद्भुत अनुभव. शायद अब बार बार जाना हो. लेकिन हम जैसे व्यंग्यकारों का मन तो हर
जगह से कुछ और ही खोज लाता है. हमें तो राजपथ पर भी चलवाओ तो भी नजर साईड वॉक पर
ही रहती है. अन्यथा मेरा अब मानना है कि हर व्यक्ति को अगर मौका लगे तो जीवन काल
में एक बार इस शिविर में जरुर जाना चाहिये, फिर तो आप अपने आप बार बार जायेंगे.
शरीर से जब आत्मा अलग होती होगी, तो कैसा अहसास
होता होगा? जानना चाहते हैं? आज के जमाने में इसका अहसास करना है तो आज के जमाने
में पहुँच जाईये किसी भी गोयनका जी के विपश्यना शिविर में. जैसे ही पहुँचेंगे, वो
आपसे आपका फोन, कागज, पैंसिल सब कुछ जमा करवा लेने के बाद कहेंगे कि अब किसी से
कोई बातचीत नहीं, न ही आँख से संपर्क, न गाना, न इंटरनेट, न टीवी, न समाचार पत्र.
जो हो वो बस आप अगले १० दिनों के लिए. ५ मिनट में जान जायेंगे उस अहसास को.
फिर शील, झूठ नहीं बोलना, काम और क्रोध से परे
रहना, किसी जीव को मारना नहीं का प्रण दिलवाया जाता है. अकसर यह आश्रम बहुत बड़े
हरे भरे पेड़ों से घिरे जंगलनुमा स्थानों में बस्ती के शोरगूल से दूर होते हैं. ऐसे
में यह जंगल मच्छरों के लिए स्वर्ग हैं. उस पर से उन्हें तो जैसे गोयनका जी ने जेड
सिक्यूरीटी दे दी हो. उन मच्छरों की जितनी मर्जी हो, उतना आपको काटें मगर आप
उन्हें छू भी नहीं सकते, मारने की बात तो दूर. वो तो हम हिन्दुस्तान से हैं और जेड
सिक्यूरीटी मिले लोगों के कारनामों और शोषण को जानते हैं, इसलिए मच्छर का द्वारा
काटे जाने का उतना बुरा नहीं लगा. शिविर में सिखाया ही यह जा रहा था कि कुछ भी सदा
के लिए नहीं है. अतः मच्छर काटेगा, हमारे खून से उसका पेट भर जायेगा, फिर वो उड़
जायेगा. विपश्यना करने तो हम गये थे, अतः नियम का पालन भी हमें ही करना था. मच्छर
तो वहीं रहता है, वो थोड़ी न विपश्यना करने आया था. यूँ भी जेड सिक्यूरीटी प्राप्त
व्यक्ति को आपके शोषण का अधिकार आप स्वयं ही देने के आदी भी तो हो.
सुबह ४ बजे जागने से लेकर रात १० बजे सोने जाने
तक सुबह एक नाश्ता और ११ बजे दिन में एक खाने पर ११ घंटे पीठ सीधी रखे ध्यान में
बैठे बैठे शरीर की क्या हालत हो जाती है, वो तो आप समझ ही सकते हो. ऐसा नहीं कि इससे
बदत्तर आपके शरीर के साथ और कुछ हो नहीं सकता. रोड़वेज की सरकारी बस में मध्य
प्रदेश की सड़कों पर १२ घंटे के सफर का रियाज यहाँ काम आया. लेकिन उस सफर में इतना
इत्मिनान रहता था कि घर पहुँच कर आराम से लम्बा सोवेंगे. मगर यहाँ तो कल सुबह फिर ४
बजे जागना है. ऐसे में पुनः ५० पार हिन्दुतानी होने का फायदा मिला. सोने के पहले
अमृतांजन का घुटने से लेकर सर तक लेपा और तान कर सो गये. बढ़िया नींद आ जाती थी.
अमृतांजन बनाने वाले ने भी कभी न सोचा होगा कि वो
हम ५० की उम्र पार कर चुके हिन्दुस्तानियों के लिए वाकई अमृत बना रहा है. सर दर्द
तो, जुकाम तो, घुटने में दर्द तो, नींद नहीं आ रही है तो, जुकाम लगा तो, नाक सूखी
तो, कहीं हल्का सा जल गया तो, कहीं कीड़े न काट लिया तो और आज कहीं कोई दर्द नहीं
है तो यूँ ही लगा लिया कि कल दर्द न हो जाये, मने हर हाल में अमृतांजन लगाना जरुरी
है. आदत ऐसी कि सब ठीक ठाक हो तो भी बिस्तर के बाजू में अगर अमृतांजन की शीशी न हो
तो टेंशन में नींद नहीं आती कि अमृतांजन खत्म है.
अमृतांजन न हो गया कि जैसे भारत में हमारे पड़ोस
में एक ८५ वर्षीय मलहोत्रा जी रहा करते थे, उनकी छड़ी, टार्च और घंटी हो गई हो. वे
रोज सोने के पहले बिस्तर पर लेटे लेटे घंटी बजा कर अपने बेटे को बुलाते और कहते
बेटा, वो छड़ी मेरे नजदीक खड़ी कर दे और टार्च में देख लेना कि मसाला तो है न? रात
में बाथरुम जाना हुआ तो?
बेटा रोज झल्लाता कि क्या बाबू जी!! आप भी अब
सिर्फ परेशान करते हो!! २ साल हो गये बिस्तर पकड़े. आँख से दिखता नहीं है और केथेटर
लगा है. दिन में दो बार नर्स पेम्पर बदल कर जाती है और आप हो कि टार्च में मसाला
और छड़ी रोज चैक करवाना छोड़ ही नहीं रहे. अब बेटे को कौन समझाये कि साईकोलॉजिकली
बाबू जी को कितना इत्मिनान मिलता होगा और नींद आ जाती होगी कि टॉर्च और छड़ी साथ
में है. बेटा बुढ़ापे की छड़ी होता है, भी तो अधिकांशतः अब साईकोलॉजिकल बल ही देता
है. फिर अपवाद तो हमेशा होते ही हैं.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल
के दैनिक सुबह सवेरे में रविवार अगस्त १८, २०१९ में प्रकाशित:
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चित्र साभार: गूगल
Excellent correlation of experiences in real life and ending it on an emotional note. Great👌👌👌👌
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