हमारे शहर से ६० किमी दूर एक दूसरा शहर था. वहाँ
पर स्टेशन के आलूबोंडे (बटाटा बडा) बहुत मशहूर थे. छुट्टी के दिन अक्सर हम मित्र लोग एक
ट्रेन से जाते. छक कर आलूबोंडे खाते और दूसरी ट्रेन से लौट आते. रास्ते
भर गप्प सटाका भी हो जाता. तब व्हाटसएप, फेसबुक आदि नहीं होते थे, अतः
समय की कमी नहीं थी और इस बहाने मित्रों से गप्प सटाका भी हो जाता.
वक्त बदल गया है. अब तो शायद व्हाटसएप से ऑर्डर करते और
ऊबर ईट उसे पहुँचा जाता. मगर अब आलूबोंडे खाता कौन है? अब
संभ्रातों के लिए पिज़्ज़ा और बर्गर का जमाना है. फिर कुछ तो मात्र संभ्रात दिखने के लिए
पिज़्ज़ा और बर्गर मंगा लेते हैं. बाकी के हेल्थ के प्रति सतर्क लोगों को आलूबोंडे
में ही सारे दुर्गुण नजर आते है. ये वो लोग हैं जो बर्गर और फ्रेंच फ्राई के साथ
डायट कोक पीते हैं और मुस्कराते हुए बताते हैं कि इस कोक में कैलोरी कम होती है.
फिर एक वर्ग ऐसा भी है जो आलूबोंडे खाता तो है मगर घर के बने. उसे लगता है कि बाजार के आलूबोंडे में
न जाने कैसा आलू डाला होगा और न जाने किस तेल में तला होगा?
पहले लोग धडल्ले से खोमचों से चाट पकोड़ी खाया
करते थे. चौक
की दुकान पर एक ही पतीली में दिन दिन भर खौलती चाय, जिसके स्वाद में सड़क से उड़ती धूल भी शायद
अपना भरपूर योगदान देती थी. उस वक्त भी पूरा शहर असमय वीरगति को तो न ही
प्राप्त हो जाता था.
आज जब बच्चों को बताओ कि हम कैसे आलूबोंडे खाने
सब दोस्त ट्रेन से जाते थे. कैसे इटारसी स्टेशन आने का इन्तजार करते थे कि
ट्रेन पहुँचे तो अंडा पराठा खायें. तो वह आवाक रह जाते हैं. और अब अगर एक छींक भी आ जाये तो कहते
हैं देख लिया न, आलूबोंडे का असर. मैं भी नये हालातों में सोचने को मजबूर
हुआ जाता हूँ कि काश!! आज से ३५ साल पहले वो आलूबोंडा ना खाया होता तो
आज छींक न आती. मगर कल जो पिज़्ज़ा खाया है शायद उसके कारण छींक
के साथ बुखार आने से बच गये. वाह रे दुनिया!!
उसी वक्त साईकिल पर चंपी, मालिश करने वाले भी मोहल्ले में आवाज
लगाते फिरते थे. लोग बरमादे में दरी बिछा कर इत्मिनान से मालिश
कराया करते थे. मालिश वाला शीशी में मालिश के लिए सरसों का तेल
और चंपी के लिए लाल वाला ठंडा तेल लेकर चलता था और उसी से मालिश करता. पता
ही नहीं चला कि वक्त के किस मोड़ पर वो चंपी मालिश वाले कब गोरैया हो गये. एकदम लुप्त प्रजाति. देखते देखते मसाज पार्लर खुल गये और
फिर मसाज पार्लर के नाम पर कौन कौन से धंधे फलने फूलने लगे, उसकी तो कहानी ही अलग है.
पिछले हफ्ते सुना कि फिर किसी को चंपी मालिश का
ख्याल है. किसी
आमजन को यह ख्याल आता तो शायद अन्य ख्यालों की तरह ख्याल ही बना मर जाता. किन्तु
यह ख्याल मंत्री जी को आया. निश्चित ही पुराने जमाने के होंगे और आज के
बेरोजगार युवाओं के लिए चिन्तित होंगे. सोचा कि क्यूँ न युवाओं के लिए रोजगार के नये
आयाम खोले जायें. आखिरकार बर्गर से टक्कर लेने के लिए पकोड़े
कितने लोग बनायेंगे? अब बारी है मसाज पार्लर को टक्कर देने की. अतः
घोषणा की गई कि अब से रेलगाड़ी में रेल्वे के अधिकृत ठेकेदार मालिश की व्यवस्था
करेंगे. २०
मिनट की चंपी मालिश के १०० रुपये से ३०० रुपये. पॉयलट प्रोजेक्ट ३९ ट्रेनों से शुरु
किया जायेगा जिसे फिर आगे विस्तार दिया जायेगा.
इससे न सिर्फ युवाओं के रोजगार का एक नया आयाम
खुलेगा वरन ठसाठस भरी रेल में एक दूसरे पर लदे यात्रियों की थकान और बढ़ते किराये
की मार के दर्द दोनों से आराम भी मिलेगा. मालिश शरीर के दर्द और थकान का अचूक नुस्खा है.
शायद कल को किसी इन्टरव्यू में ऐसा सुनने को
मिल जाये कि ’मेरे ख्याल में आया कि पकोड़े तलने के बाद जो तेल बच जाता है, उसे
फैंकने की बजाय उससे रेल में मालिश करा दी जाये तो? मालिश में पकाया हुआ तेल
ज्यादा फायदा करता है. पकोड़े और मालिश दोनों के धंधे में नफा. सबका साथ, सबका
विकास!’
वो दिन दूर नहीं जब आप सुनेंगे कि रेलगाड़ी में
मेंहदी सर्विस, ब्यूटी पार्लर, हेयर कटिंग, टेलर, सत्यनारायण की कथा और भी न जाने कितने
नये नये रोजगार के अवसर आ जायेंगे. मुझे तो लगता है कि कहीं बेरोजगार युवा ही
मिलना न बंद हो जायें और हमें अमेरीका की तर्ज पर वर्क वीजा देकर लोग बुलाना पड़े.
इतने सारे रोजगार के अवसर जो हैं.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के
रविवार जून १६, २०१९ में
An excellent visualization of stretching Pakode and Tel-Malish into new job/business opportunity. Great!!!
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