मकर संक्रांति के नाम सुनते ही खिचड़ी की याद आ जाती है. यूँ तो बचपन
में जब बीमार पड़ते थे तब भी खिचड़ी ही खाने को मिलती थी. बुरा बीमार होने से ज्यादा
इस बात का लगता था कि बाकि के सारे लोग तो घर में पराठा सब्जी और पुलाव दबा रहे
हैं और हमको खिचड़ी मिल रही है. अपने दुख से ज्यादा दूसरे की खुशी से दर्द होता है.
छात्रावास के जीवन में कई बार मेस बन्द रहने के दौरान जब खुद खाना
पकाना होता था तो खिचड़ी और घी के साथ अचार और पापड़ में बहुत आनन्द आता था. भूखे
रहने से बेहतर तो है कि खिचड़ी का आनन्द ही उठाया जाये. तब खुद के लिए और रुम मेट
के लिए फटाफट कुकर में खिचड़ी बनाकर स्वाद से खाते थे.
जब हम बंबई में पढ़ा करते थे तो कालबादेवी के पास एक होटल सिर्फ तरह
तरह की खिचड़ी के लिए ही प्रसिद्ध था और उसी के बाजू में किसी ने उस जमाने में छोले
भटूरे की दुकान खोली और घाटा खाकर बन्द कर दी. ऐसी भीड़ लगती थी उसके यहाँ खिचड़ी
खाने के लिए कि कई बार तो आधा घंटे इन्तजार करना पड़ता था. एक खिचड़ी जो कभी गरीबों
का खाना भी कहलाता था उसे बेच कर वो खिचड़ी वाला करोड़पति हो लिया और छोले भटूरे
जैसा उस जमाने का लक्ज़री खाना बेच कर दूसरा दिवालिया. सब किस्मत का खेला है.
ये खिचड़ी भी कई प्रकार की होती है. मेरी पसंद में साबूदाने की खिचड़ी
बहुत ऊँचा स्थान रखती है. इसके स्वाद में वो ताकत है कि हम बचपन में दोपहर में
खिचड़ी मिलने तक कई पर्वों पर उपवास ही इसलिए रखते थे कि सिर्फ व्रत वालों के खाने
में साबूदाने की खिचड़ी होती थी. बाकी को साधारण दाल चावल. जैसे ही साबूदाने की
खिचड़ी मिल जाती और उपवास खत्म. फिर थोड़ी देर बाद सारा खाना खाने लग जाते थे वरना
तो व्रत वाले सिर्फ एक टाईम का खाना खाते थे.
खिचड़ी के नाम से बीरबल की खिचड़ी भी याद हो आती है. जिस तरह दूर जलती
आग से खिचड़ी नहीं पक सकती, उसे आंच पर चढ़ाना ही होता है. नेताओं के वादे भी इसी
श्रेणी में आते हैं. बस, कहीं की आंच दिखाकर यहाँ खिचड़ी पकने के सपने दिखाते हैं.
आम जनता खिचड़ी खाने की आस लगाये बैठी रह जाती है.
जिस तरह हम नेताओं की इस बीरबल की खिचड़ी वाली सियासी चाल को समझ नहीं
पाते और हर बार इसी में उलझ जाते हैं. शायद इसीलिए जब कोई खुसफुस करके बात करते
हुए दो लोगों को देख लेता है और समझ नहीं पाता कि क्या बात हो रही है तो पूछता है
कि क्या खिचड़ी पक रही है तुम दोनों के बीच?
खिचड़ी की खासियत है कि दाल और चावल आपस में ऐसे घुल मिल जाते हैं कि
उनको अलग करना संभव नहीं होता है. कुछ दाल तो कुछ चावल. सब कुछ गुड़मुड़. इसीलिए जब
आदमी के सिर के बाल कुछ सफेद कुछ काले रह जाते हैं तो उसे भी खिचड़ी बाल ही बुलाते
हैं.
अलग अलग मान्यताओं, अलग अलग विचारधाराओं, अच्छे बुरे, आपसे में जानी
दुश्मन आदि जब सब एकसार होकर बस अपनी सियासी भूख मिटाने, एक दूसरे से घुलमिल कर
सरकार बनाते हैं तो भी उसे खिचड़ी सरकार ही कहा जाता है. गठबंधन तो संसदीय भाषा में
कहते हैं जिस तरह महाठग भी जननायक या नेता कहलाता है.
इसी से ख्याल आया कि आजकल हर बात जब तक महाबात न हो जाये लोगों को
चैन नहीं पड़ता. गठबंधन भी महागठबंधन होकर ही मजा देता है. रैली भी अब तो मेगा रैली
होने लगी है और जन सभायें भी विशाल जन सभायें. तो फिर खिचड़ी इसमें कैसे पीछे रह
जाये?
अतः खिचड़ी ने भी सोचा कि रामलीला मैदान चला जाये और खुद को महा खिचड़ी
कर दिया जाये. तब एक महासंगम ने एक राजनितिक दल के लिए खिचड़ी पकाई, जिसमें २० फीट
व्यास और छह फीट गहराई वाली कढ़ाई में एक नामी शेफ ने ३ लाख दलितों के घर से मांग कर
लाये गये चावल दाल से समरसता खिचड़ी पकाई और लोगों को खिलाई.
बताया गया कि स्वस्थ रहने के लिए खिचड़ी से बेहतर व्यंजन और कुछ हो ही
नहीं सकता. अब इसका तो पता नहीं मगर कम से कम इस आड़े वक्त में राजनितिक स्वास्थय
के लिए समरसता खिचड़ी तो बहुत जरुरी है.
अब इस खिचड़ी के बहाने और भी कितनी तरह की खिचड़ियाँ अलग अलग दलों में
पक रही हैं, कौन जाने? मगर खिचड़ी की तो चल निकली.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार जनवरी २०, २०१९
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आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 74वीं पुण्यतिथि - महान क्रान्तिकारी एवं स्वतंत्रता संग्रामी रासबिहारी बोस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन पूर्वाग्रह से ग्रसित लोग : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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