रविवार, जनवरी 27, 2019

तुरुप का पत्ता याने की ट्रम्प कार्ड



तुरुप का पत्ता याने ट्रम्प कार्ड जिसमें किसी भी हाथ को जीतने की क्षमता होती है और सभी कार्डों में सबसे बड़ा माना जाता है.
बचपन में जब ताश खेला करते थे और अगर तुरुप का पत्ता हाथ लग जाये, तो क्या कहने. चेहरे पर विश्व विजेता वाले भाव आ जाते थे.
शायद इसीलिए इसे ट्रम्प कार्ड कहते हों, घंसु उत्सुक्तावश तिवारी जी से पूछ रहा है. देखिये न, आज उसी की वजह से महिने भर से भी ज्यादा समय से पूरी अमेरीका की सरकार लॉक आऊट में चल रही है. ट्रम्प के चेहरे पर आज भी वैसा ही विजयी भाव है कि चाहे जो हो जाये, मेक्सिको और अमेरीका के बीच की दीवार तो बन कर ही रहेगी. उसे अपने सामने सारी दुनिया गलत दिखाई देती है और वह सोचता है कि सिर्फ वही सही है हर मामले में.
तिवारी जी मुस्कराते हुए बता रहे हैं कि इसे तो हमारे बचपन में भी ट्रम्प कार्ड ही कहते थे, तब तो यह ट्रम्प कभी राष्ट्रपति बनेगा, यह भी कोई नहीं जानता था. वैसे गनीमत है कि ट्रम्प अमेरीका का राष्ट्रपति है, भारत का प्रधान मंत्री नहीं वरना तो ट्रम्प कार्ड अपने नाम पर ट्रम्प कार्ड करा कर ही मानता. जिसे ७० साल पहले से लोग अपनाते आये थे, उसे एकाएक अपने नाम कर लेता कि ये मैं ही हूँ जिसका ये इतने सालों से बेजा इस्तेमाल करते आये हैं और विजय का क्रेडिट खुद अपने खाते में करते आये हैं.
खैर, ये तो बिना खुद के नाम का हुए कामों को खुद का बताने से नहीं चूकते तो जिस पर नाम हो, उसे भला कैसे छोड़ देते.
वैसे घंसु तुम गलत नहीं हो, आजकल अधिकतर ऐसा ही सोचते हैं. जो जितना अच्छा अभिनय कर लेता है, जो जितनी अच्छी तरह बुलिंग कर लेता है, जो जितना अच्छी तरह रो लेता है, लोग उसको ही पूजने लगते हैं. वह अपने अभिनय, रोने और बुलिंग की क्षमता  के आधार पर अपने उपासक बनाते हैं और उपासक उन्हें आराध्य मान उनके हर सही गलत फैसले को सत्य मान उसे सत्य साबित करने में जुट जाते हैं.
एक झूठ भी बार बार बोलने से सच से ज्यादा मजबूत प्रतीत होने लगता है. यह बात साधक भी जानते हैं और आराध्य भी.
अपने आराध्य को तुरुप का पत्ता मान कर सोचते हैं कि हमने जग जीत लिया.
उन्हें यह भी जान लेना चाहिये कि अपने आराध्य को तुरुप का पत्ता और उसको चैलेंज करने वाले हर इंसान को जोकर मान कर चलना उचित नहीं. जहाँ तुरुप के पत्ते की मान्यता है, वहीं उसी गड्डी से निकले जोकर का भी अहम स्थान है. जो इसे ना माने उसे ’मेरा नाम जोकर’ फिल्म देखना चाहिये. वो भी जोकर का महत्व जान जायेंगे.
जिन्दगी में हर इन्सान एक तुरुप का पत्ता लिये घूम रहा है. कुछ किसी चाल में उसे खेल कर विजेता बन गये हैं तो कुछ मात्र उसके धारक होने की वजह से विजयी भाव लिए घूम रहे हैं. कुछ उसके होने के बावजूद भी उसकी ताकत से अनभिज्ञ याचव भाव धारण किये जिये जा रहे हैं. मगर सभी का जीवन सफल उन खुशियों से होता है जो चेहरे पर मुस्कान और हँसी ला पाये और आस पास खुशियाँ फैलाये. अब इसे जोकर कह कर अपनाओ और हँसो या ऐसा मान लो कि शायद यही जोकर, जीवन की खुशियों का ट्रम्प कार्ड है.
सब सोच सोच का फर्क है.
-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में सोमवार जनवरी २८, २०१९ को:


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रविवार, जनवरी 20, 2019

भूखे रहने से बेहतर है कि खिचड़ी का आनन्द उठाया जाये



मकर संक्रांति के नाम सुनते ही खिचड़ी की याद आ जाती है. यूँ तो बचपन में जब बीमार पड़ते थे तब भी खिचड़ी ही खाने को मिलती थी. बुरा बीमार होने से ज्यादा इस बात का लगता था कि बाकि के सारे लोग तो घर में पराठा सब्जी और पुलाव दबा रहे हैं और हमको खिचड़ी मिल रही है. अपने दुख से ज्यादा दूसरे की खुशी से दर्द होता है.
छात्रावास के जीवन में कई बार मेस बन्द रहने के दौरान जब खुद खाना पकाना होता था तो खिचड़ी और घी के साथ अचार और पापड़ में बहुत आनन्द आता था. भूखे रहने से बेहतर तो है कि खिचड़ी का आनन्द ही उठाया जाये. तब खुद के लिए और रुम मेट के लिए फटाफट कुकर में खिचड़ी बनाकर स्वाद से खाते थे.
जब हम बंबई में पढ़ा करते थे तो कालबादेवी के पास एक होटल सिर्फ तरह तरह की खिचड़ी के लिए ही प्रसिद्ध था और उसी के बाजू में किसी ने उस जमाने में छोले भटूरे की दुकान खोली और घाटा खाकर बन्द कर दी. ऐसी भीड़ लगती थी उसके यहाँ खिचड़ी खाने के लिए कि कई बार तो आधा घंटे इन्तजार करना पड़ता था. एक खिचड़ी जो कभी गरीबों का खाना भी कहलाता था उसे बेच कर वो खिचड़ी वाला करोड़पति हो लिया और छोले भटूरे जैसा उस जमाने का लक्ज़री खाना बेच कर दूसरा दिवालिया. सब किस्मत का खेला है.
ये खिचड़ी भी कई प्रकार की होती है. मेरी पसंद में साबूदाने की खिचड़ी बहुत ऊँचा स्थान रखती है. इसके स्वाद में वो ताकत है कि हम बचपन में दोपहर में खिचड़ी मिलने तक कई पर्वों पर उपवास ही इसलिए रखते थे कि सिर्फ व्रत वालों के खाने में साबूदाने की खिचड़ी होती थी. बाकी को साधारण दाल चावल. जैसे ही साबूदाने की खिचड़ी मिल जाती और उपवास खत्म. फिर थोड़ी देर बाद सारा खाना खाने लग जाते थे वरना तो व्रत वाले सिर्फ एक टाईम का खाना खाते थे.
खिचड़ी के नाम से बीरबल की खिचड़ी भी याद हो आती है. जिस तरह दूर जलती आग से खिचड़ी नहीं पक सकती, उसे आंच पर चढ़ाना ही होता है. नेताओं के वादे भी इसी श्रेणी में आते हैं. बस, कहीं की आंच दिखाकर यहाँ खिचड़ी पकने के सपने दिखाते हैं. आम जनता खिचड़ी खाने की आस लगाये बैठी रह जाती है.
जिस तरह हम नेताओं की इस बीरबल की खिचड़ी वाली सियासी चाल को समझ नहीं पाते और हर बार इसी में उलझ जाते हैं. शायद इसीलिए जब कोई खुसफुस करके बात करते हुए दो लोगों को देख लेता है और समझ नहीं पाता कि क्या बात हो रही है तो पूछता है कि क्या खिचड़ी पक रही है तुम दोनों के बीच?
खिचड़ी की खासियत है कि दाल और चावल आपस में ऐसे घुल मिल जाते हैं कि उनको अलग करना संभव नहीं होता है. कुछ दाल तो कुछ चावल. सब कुछ गुड़मुड़. इसीलिए जब आदमी के सिर के बाल कुछ सफेद कुछ काले रह जाते हैं तो उसे भी खिचड़ी बाल ही बुलाते हैं.
अलग अलग मान्यताओं, अलग अलग विचारधाराओं, अच्छे बुरे, आपसे में जानी दुश्मन आदि जब सब एकसार होकर बस अपनी सियासी भूख मिटाने, एक दूसरे से घुलमिल कर सरकार बनाते हैं तो भी उसे खिचड़ी सरकार ही कहा जाता है. गठबंधन तो संसदीय भाषा में कहते हैं जिस तरह महाठग भी जननायक या नेता कहलाता है.
इसी से ख्याल आया कि आजकल हर बात जब तक महाबात न हो जाये लोगों को चैन नहीं पड़ता. गठबंधन भी महागठबंधन होकर ही मजा देता है. रैली भी अब तो मेगा रैली होने लगी है और जन सभायें भी विशाल जन सभायें. तो फिर खिचड़ी इसमें कैसे पीछे रह जाये?
अतः खिचड़ी ने भी सोचा कि रामलीला मैदान चला जाये और खुद को महा खिचड़ी कर दिया जाये. तब एक महासंगम ने एक राजनितिक दल के लिए खिचड़ी पकाई, जिसमें २० फीट व्यास और छह फीट गहराई वाली कढ़ाई में एक नामी शेफ ने ३ लाख दलितों के घर से मांग कर लाये गये चावल दाल से समरसता खिचड़ी पकाई और लोगों को खिलाई.
बताया गया कि स्वस्थ रहने के लिए खिचड़ी से बेहतर व्यंजन और कुछ हो ही नहीं सकता. अब इसका तो पता नहीं मगर कम से कम इस आड़े वक्त में राजनितिक स्वास्थय के लिए समरसता खिचड़ी तो बहुत जरुरी है.
अब इस खिचड़ी के बहाने और भी कितनी तरह की खिचड़ियाँ अलग अलग दलों में पक रही हैं, कौन जाने? मगर खिचड़ी की तो चल निकली.
-समीर लाल ’समीर’   

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार जनवरी २०, २०१९ को:

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चित्र साभार: गुगल 

शनिवार, जनवरी 12, 2019

पुस्तक मेला बहुत से आयाम खोलता है



अगले साल पुस्तक मेले में आने का मन है. उत्साही लेखक विमोचन के लिए आग्रह करेंगे ऐसा मुझे लगता है. ऐसा लगने का कारण अखबार वालों का अब मेरे नाम के साथ ’लेखक कनाडा निवासी वरिष्ट व्यंग्यकार हैं’ लिखना है. नाम के साथ वरिष्ट लगने लगे तो लिखना कम और ज्ञान ज्यादा बांटना चाहिये. जगह जगह सम्मानित होना चाहिये. किताबों की समीक्षा करनी चाहिये. ऐसा मैं नहीं कह रहा, इतिहास कहता है. 
२० किताबों के विमोचन के लिए २० भाषण लिखना तो बहुत ज्यादा काम हो जायेगा. इसलिये सोचता हूँ कि  भाषण लिखकर पहले से धर लेते हैं..ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आये.  कौन इतने ध्यान से भाषण सुनता है, ध्यान तो दूर की बात है, सुनते ही कहाँ हैं? कि लोगों को पता चल पायेगा कि यह तो बार बार वही भाषण पढ़े जा रहे हैं. लोग तो पिछले ३० सालों से वही वही कविता सुना सुना कर १००० मंच लूटे चले जा रहे हैं और हर मंच से कमा रहे हैं. तो हम तो मात्र २० के लिए तैयारी कर रहे हैं वो भी मुफ्त में बोलने की.
उपस्थित गणमान्य साथियों, वरिष्ट साहित्यकारों, प्रकाशकों, लेखकों एवं लेखिकाओं (कवि कवित्रियों इसमें शामिल समझो खुद को)
आज इस पुस्तक के विमोचन के अवसर पर मुझे आमंत्रित करने और मंचासीन होने का सम्मान देने हेतु हृदय से आभारी हूँ. मैं इस पुस्तक मेले का आभारी हूँ जिसकी वजह से मैं हर साल दिल्ली आता हूँ और इस तरह से सम्मानित होता हूँ. एक सम्मान ही तो है जो मुझे जैसे वरिष्टों को साहित्य के क्षेत्र में रोके हुए है वरना रुपया पैसा तो इसमें होता नहीं.
कई बार मैं सोचने को मजबूर हो जाता हूँ कि अगर ये पुस्तक मेला न होता, अगर आप जैसा लेखक न होता, अगर आप जैसा प्रकाशक न होता तो मेरा क्या होता? क्या मुझे कोई सम्मान देता? क्या मुझे कोई पहचानता? क्या मैं दिल्ली आता? हर प्रश्न के उत्तर में एक ही जबाब अन्तर्मन में उठता है..शायद नहीं.
आज जब मुझे इस स्टॉल के सामने से गुजरते हुए पकड़ कर यह बताया गया कि आपको २ बजे विमोचन करना है किताब का. तो मैने पीछे चाय की दुकान पर जाकर फटाफट पुस्तक पलटी. १५ रुपये की चाय जेब से खरीद कर..१८० पन्नों की १० मिनट में पलटा डाली पूरी किताब.
लेखक की लेखन क्षमता अतुलनीय है. पहला पन्ना पलटो और फिर रोक नहीं सकते खुद को आप. पलटते ही चले जाओगे आप (बिना पढ़े)..जब तक की आखिरी पन्ने तक न पहुँच जाओ. इतना मजा आने लगेगा पन्ना पलटने में कि रुकना मुश्किल हो जायेगा. पन्ना पलटने का भी एक अलग मजा है जब विषय वस्तु समझ न आये!! और उससे भी ज्यादा तब...जब समझ आ जाये कि क्या पढ़ रहे हैं!!
आज के इस व्यस्त जीवन में, जब इन्सान सिर्फ भाग रहा है तब यह पुस्तक एक विश्रामालय सी प्रतीत होती है. कुछ देर तो गुजारो मेरे साथ..फिर चले जाना जीवन के साथ..का नारा लगाती है. कम से कम दस मिनट तो ऐसे गुजरे जब मैं इत्मिनान से चाय पीता रहा और मेरी उँगलियाँ भागती रहीं पन्ने पलटने को.
मैं पढ़ रहा था और सोच रहा था कि कितनी अलग दृष्टी है लेखक की बातों को देखने की और उन्हें समझने की. पीज़ा मे रोटी और उसकी टॉपिंग में सब्जी खोज लेने की अनुपम क्षमता लेखक को एक अलग कतार में खड़ा कर देती है. ऐसी दृष्टी और उसे शब्द देना..अद्भुत अनुभव है इस लेखन शैली से गुजरना...गुजरना तो क्या..बह निकलना! प्रवाह भी तो कोई चीज है! कई किताबों में तो इतना बहाव रहता है कि बिना खोले ही किताब का भव सागर पार हो जाते हैं.
लेखक से मेरा कोई व्यक्तिगत परिचय ज्यादा नहीं रहा. सुबह यहीं स्टॉल के सामने पहली बार मुलाकात हुई मगर उन्होंने विमोचन का निवेदन किया और फ्री में किताब देकर मन मोह लिया. कौन करता है आज के जमाने में ऐसा? हमने साथ में सेल्फी खिंचवाई और उनने फेसबुक पर डाल भी दी है. हमारे पास डाटा प्लान न होने के कारण हम शाम को डालेंगे. अभी रोमिंग में चल रहे हैं. लॉज में फ्री वाई फाई है, वहाँ से कोशिश करेंगे.
जो पढ़ा उसी के आधार पर मैं इस पुस्तक को बहुत उम्मीदों से विमोचित कर रहा हूँ. आशा करता हूँ कि आप भी इसे सर आँखों पर उठाओगे. मूल्य थोड़ा ज्यादा तो है मगर आप अपनी पुस्तक छपवा कर वसूल करने की क्षमता रखते हो, यह भी मुझे ज्ञात है. उसे बाद में वसूल कर लेना. हाल फिलहाल खरीद कर जरुर पढ़ें. वरना लेखक और प्रकाशक को मुझे इस किताब की फ्री प्रतिलिपी देने का क्या फायदा!!
आज आप न खरींदेंगे तो कल हम किस पर बोलेंगे?
आज आपका पुस्तकें खरीदना हमारे भविष्य को पुख्ता करता है. कौन जाने कल हम आपकी पुतक विमोचित कर रहे हों?
पुस्तक मेला बहुत से आयाम खोलता है और इसीलिये मुझे इसका इन्तजार रहता है!! हो सकता है आने वाले वक्त में पाठक भी इस मेले का हिस्सा बनें. वादा है तब हर पुस्तक के विमोचन के लिए अलग अलग भाषण दूँगा.
-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार जनवरी १३, २०१९ को:

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शनिवार, जनवरी 05, 2019

वादे का मतलब ही वो बात है जो पूरी नहीं होनी है



भारत एक उत्सव प्रधान देश है और हम पूरे मनोभाव से हर उत्सव मनाते हैं.
लोकतंत्र में चुनाव भी एक उत्सव है. प्रति वर्ष यह उत्सव भी भारत वर्ष में कहीं न कहीं किसी न किसी रुप में लगातार मनाया जाता है, चाहे विश्व विद्यालय के हों या पंचायत या निकाय या विधान सभा या फिर लोक सभा या राज्य सभा. हमेशा पूरे जोश खरोश के साथ ये उत्सव मनाये जाते हैं.
चुनाव के उत्सव की खासियत यह रहती है कि इसमें खूब वादे और खूब जुमले वोटरों को लुभाने के लिए किये और बोलें जाते हैं. जो पूरे चुनाव के उत्सव में अपना परचम लहराते हैं और जैसे ही चुनाव खत्म, वादे और जुमले भी खत्म. पूरा करना तो बहुत दूर की बात है, कोई उनकी बात भी नहीं करता.
अगला चुनाव आया और फिर वही माहौल और फिर चुनाव खत्म होते ही सब नेस्तनाबूत!!
ऐसा ही वादों और जुमले का एक उत्सव नये साल के स्वागत का भी है. खूब नाचते गाते पीते खाते ढेर सारे वादे. अंतर सिर्फ इतना ही है कि इस उत्सव में वादे खुद से किये जाते हैं.
उधर चुनाव में पॉवर का नशा, इधर नये साल में अधिकतर को शराब का और बाकियों को माहौल देखकर ही खुमारी चढ़ जाती है. जैसे कि बरात में नाचना आना जरुरी नहीं है मगर माहौल ऐसा होता है कि पिये हो या न हो, नाच सभी देते हैं.
इतने सालों से चुनाव में नेताओं के किये वादों के बार बार टूटते टूटते और उनके जुमलों में बदलते रहने से वादों की परिभाषा ही बदल गई है हम आम लोगों के दिमाग में. अब तो वादे का मतलब ही वो बात है जो पूरी नहीं होनी है. इस नई परिभाषा की हमारे दिल पर इतनी गहरी पैठ हुई कि हम खुद से किये वादों को भी इस श्रेणी में ले आये.
नये साल का स्वागत करते हुए संकल्पों की शक्ल में खुद से अनेक वादे और फिर नया साल शुरु और वादे खत्म. कुछ तो बिल्कुल भुला दिये जाते हैं और कुछ को पूरा करने की हल्की फुल्की सी कोशिश करने के बाद उनका भी वो ही हश्र.
दरअसल हम वादों के प्रति इतने असंवेदनशील हो गये हैं कि कोई कुछ भी वादे करे या उसे तोड़े, हम पर कोई फरक ही नहीं पड़ता. वादे भी नशे के समान होकर रह गये हैं. एक बोतल खत्म, कुछ देर झूमे, नाचे, गाये और फिर रात बीती. नया दिन आया. नशा गुम. फिर जब अगली बार नई बोतल खुलेगी तो नया नशा!!
इन सब के बीच एक मजेदार बात यह रहती है कि जैसे हर चुनाव में गरीबी हटाने का वादा, सड़क बनवाने का वादा, बिजली पानी का वादा, कर्ज माफी का वादा, खुशहाली का वादा, हर सर को छत का वादा, रहते ही रहते हैं. यह जनलुभावन होते हैं अतः हमेशा रहते हैं और हमेशा रहेंगे क्यूँकि अगर इन्हें पूरा कर दें तो अगली बार क्या वादा करेंगे?
वैसे ही जब हम नये साल पर खुद से वादा करते हैं तो कुछ वादे हरदिल अज़ीज होते हैं मसलन वजन कम करने का या जिम जाने का या योगा करने का, अच्छी मनपसंद नौकरी का जो शायद किसी को कभी मिलती नहीं, सुबह जल्दी उठने का, पैसे बचाने का, खूब पर्यटन पर जाने का, जिन्दगी को खुशी से जीने का, दूसरों की मदद करने का, हैल्दी खाना खाने का आदि आदि. ये सभी वादे इतने मनभावन हैं कि अगर पूरे हो जायें तो आगे करने को बच क्या रहेगा आखिर. अगले बरस फिर नये बरस में खुद को किस तरह ले जायेंगे? कोई उत्साह ही नहीं बचेगा. 
शायद वादे करना और वादों का टूट जाना सांसों के आने जाने की तरह ही है जो हमें जिन्दा रखे है.
-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार जनवरी ६, २०१९ को:


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