शनिवार, अक्तूबर 20, 2018

शेक्सपियर सही कहे थे कि नाम में क्या धरा है?



अच्छा हुआ शेक्सपियर मौका देख कर १६१६ में ही निकल लिए. अगर आज होते और भारत में रह रहे होते तो देशद्रोही ठहरा दिये गये होते और कुछ लोग उन्हें बोरिया बिस्तर बाँध कर पाकिस्तान जाने की सलाह दे रहे होते. ये भी कोई बात हुई कि कह दिया ’नाम में क्या रखा है, गर गुलाब को हम किसी और नाम से भी पुकारें तो वो ऐसी ही खूबसूरत महक देगा’. इतनी बुरी बात करनी चाहिये क्या?
मैने भी एक बार कोशिश की थी जब मंचों से गज़ल पढ़ना शुरु की. तब मन में आया था कि अपने नाम ’समीर’ में से एक शब्द साईलेन्ट मोड में डाल देते हैं और खुद को मीर पुकारेंगे तो शायद मंच लूट पायें. बाद में मंच बुजुर्गों की सलाह मान कर नाम मे ’स’ पर से साइलेन्सर हटाया और गज़ल के व्याकरण समझने में मन लगाया. सिर्फ मीर और गालिब नाम रख लेने से आप मीर और गालिब सा लिखने लगेंगे, इससे फूहड़ और क्या सोच हो सकती है.
उस रोज पान की दुकान पर तिवारी जी बोले कि अब अपने घंसु को ही देख लो. माँ बाप ने कितनी उम्मीद से नाम घनश्याम दास रखा था मगर वे रह गये घंसु के घंसु. सुबह खाने को रुपये हैं तो शाम जेब खाली. घनश्याम दास नाम रख देने से कोई अपने आप बिड़ला तो नहीं हो जाता. सारा जीवन गुजार दिया घंसु ने मगर साईकल को ही गाड़ी कहते रह गया.
घंसु भी भला कहाँ चुप रहते. उखड़ पड़े कि ऐसे में आप ही कौन कमाल किये हैं? नाम के बस तिवारी हो और रोज शाम सूरज ढलते ही दारु और मुर्गा दबाते हो. सोचते हो कि अँधेरा हो गया अब भगवान क्या देख पायेगा कि आप क्या कर रहे हो? वहाँ ऊपर सब नोट हो रहा है. नाम तो आपका बदला जाना चाहिये.
तिवारी जी क्या जबाब देते. अब वे मूँह में पान भरे धीरे से मुस्कराते हुए कह रहे हैं कि शेक्सपियर सही कहे थे ’नाम में क्या धरा है..’
घंसु बोले कि तिवारी जी कुछ उधार मिल जाता तो सोच रहा हूँ एक चाय का ठेला खोल लूँ. नाम में तो वाकई कुछ नहीं धरा. अब काम में क्या धरा है वो अजमा कर देख लूँ. कौन जाने कल को देश की बागडोर ही हाथ लग जाये?
तिवारी जी उधार तो तब दें जब खुद के पास कुछ हो, अतः जैसा कि होता है सलाह ही दे दी. देख घंसु, देश में लाखों चाय वाले हैं. उस लाईन से देश की बागडोर पाने में काम्पटिशन बहुत है. उससे अच्छा तो एक बार फिर नाम बदल कर ललित, नीरव, विजय टाईप कुछ रख ले और बैंक से लम्बा कर्जा मांग. मांगने में तो तेरी क्षमताओं के आगे वो निश्चित ही फीके हैं, फिर भी कर्जा लेकर देश के बाहर भाग ही लिये. तो तू भी कोशिश करके देख ले. मिल जाये तो विदेश निकल लेना वरना तो विदेश जाना इस जन्म में तेरे भाग्य में नहीं.
घंसु असमंजस में है कि बात देश की बागडोर संभालने की थी और तिवारी जी कर्जा लेकर विदेश भाग जाने की बात कर रहे हैं?
तिवारी जी समझा रहे हैं कि तूँ असमंजस में न प़ड़. एक बार कर्जा लेकर विदेश निकल कर तो देख. जो देश की बागडोर संभालते हैं न, तब तू उनकी बागडोर संभालेगा. कुछ समझा? अब घंसु की मोटी बुद्धि भी समझ चुकी थी कि आगे क्या करना है?
मगर एक बात फिर भी नहीं समझ आई कि शहर का नाम बदलने से क्या हासिल? क्या इलाहाबाद का नाम बदल प्रयागराज कर देने से इलाहाबाद हिन्दु हो गया या पहले मुसलमान था? क्या संगम स्नान अब और अधिक पाप धो डालेगा? क्या गंगा अपने आप साफ हो जायेगी? क्या सुलाकी के लड्डु अब ज्यादा मीठे हो जायेंगे? क्या कुँभ की महत्ता बढ़ जायेगी? क्या पुराने दबंगों की दबंगाई अब नये दबंगो के हाथ चली जायेगी? किसी भी क्या का क्या जबाब होगा, कौन जाने मगर यह हर सरकार के हथकंड़े हैं. किसी के किसी वजह से, तो किसी के किसी के किसी वजह से.
मुझे अपना बचपन का साथी रमेश याद आ रहा है. जब वो होमवर्क न करके लाता तो मास्साब की मार से बचने के लिए वो उनको अन्य बातों में उलझाता कि मास्साब मुझे फलाने ने गाली बकी. फलाने ने मारा. मास्साब उसी को सुलझाने में ऐसा उलझते कि असल मुद्दा होम वर्क पूछने का वक्त ही नहीं मिल पाता. रमेश मेरी ओर देख मंद मंद मुस्कराता और धीरे से आँख मारता.
बाकी तो आँख मारने का अर्थ निकालने में आप समझदार हैं ही!
-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे में रविवार अक्टूबर २१, २०१८

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5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सटीक और प्रासंगिक व्यंग लेख है, अगले लेख की प्रतीक्षा में ....

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (22-10-2018) को "किसे अच्छी नहीं लगती" (चर्चा अंक-3132) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  3. सही कहा आपने। ये रमेश वाला कार्यक्रम ही हो रहा है।नेता जी ने नाम बदल कर एक लॉलीपॉप थमा दिया है और अपनी हिन्दू पार्टी वाली छवि को और पुख्ता किया है। इससे उन्हें पहले भी फायदा हुआ था और अब जो सवर्णों की नाराजगी थी उसे भी कम करने में फायदा मिलेगा। यही तो नेता करते आये हैं।बस ध्यान भटकाकर आँख मारते हैं कि देखो उलझ गई जनता जनार्धन।

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