नये नये कनाडा आये थे. जब
पहली बार अपने एक नये गोरे दोस्त के मूँह से सुना था कि इस बार वीक एण्ड पर वो
अपनी मम्मी और उनके बॉय फेण्ड के घर डिनर पर जायेगा तो बड़ा अजीब सा लगा था. हम जिस
संस्कृति और जो देखते हुए बड़े होते हैं, उसी के आधार पर हर बात का एक निश्चित खाका
दिमाग में बना लेते हैं.
अभी हाल ही में कनाडा की
राजनिति में पैर जमाने की कोशिश की. पत्नी चुनाव लड़ीं. लगा ही नहीं कि कोई चुनाव
लड़ भी रहे हैं. न लाऊड स्पीकर, न बैनर पोस्टर, न मंच मचान, न रैली और चुनावी
सभाएँ, न किसी के हाथ जोड़ना, न किसी के पैर छूने, न झूठे वादे, न दारु बंटवाई, न
पैसे देकर भीड़ जुटाई. बस कुछ डीबेट लायब्रेरी या स्कूलों में या लोकल टीवी पर, कुछ
डोर टू डोर खटखटा कर लिटरेचर थमाया, अपनी वेब साईट और सोशल मीडिया के पेज का लिंक,
निर्धारित सड़को पर दो फुट बाई दो फुट के छोटे छोटे प्लास्टिक के साईन बोर्ड और बस
हो गया चुनाव. ८ बजे वोट डालना बंद. ८ बज कर १० मिनट पर परिणाम घोषित. हार गये तो
घर जाकर सो जाओ. जीत गये तो घर जाकर सो जाओ. और हाँ, जाते जाते वो सड़को से साईन
बोर्ड उतार कर लेते जाना वरना ७२ घंटे बाद सिटी उतार कर ले जायेगी और आप बिल और
पेनाल्टी भर रहे होंगे बोर्ड की संख्या के आधार पर. न लड्डु बँटे, न नगाड़े, न
जुलूस निकला, न रंग गुलाल, न माला पहनाई गई और न बम पटाखे फूटे. ये कैसा चुनाव?
एकदम फीका फीका. मिठाई बिना शक्कर वाली. हम जिन चुनावों में पले बढ़े हैं, उनकी चमक
ही कुछ और होती थी.
इन लोगों ने वो चुनाव
देखे नहीं हैं तो इनको इसी में मजा आ जाता है. किसी प्रत्याशी नें दूसरे प्रत्याशी
के सोशल मीडिया पर दिये स्टेटमेन्ट को स्टुपिड स्टेटमेन्ट क्या कह दिया, बवाल मच
गया कि डर्टी पॉलिटिक्स..सामने वाले को माफी मांगना पड़ी तब बवाल थमा. माहौल माहौल
की बात है.
अब तो हमारी आदात पड़ गई
है ऐसे चुनाव देखने की. मम्मी के बॉय फ्रेण्ड और पापा मम्मी दोनों ही बॉय देखने
सुनने की. वक्त के साथ दिमाग समझौता कर लेता है मगर प्रथम दृष्टा तो आज भी शादी
बारात की सोचो तो दुल्हा दुल्हन के तौर पर लड़का लड़की ही विचार में आते हैं.
होली की बात सोचो तो आज
भी वारनिश, काला पेंट, कीचड़, चटख वाले गीले रंग कि होली का हफ्ता निकल जाये मगर
रंग न छूटे, भांग, गुजिया, नमकीन, साथियों की नगाड़े बजाती नाचती नशे में झूमती
टोली. आजकल तो सुनते हैं कि होली पर लोग फैमली के साथ हिल स्टेशन और पिकनिक आदि पर
चले जाते हैं.
दिवाली की याद यूँ है कि
हरी रस्सी वाले सुतली बम, लक्ष्मी बम, लाल हजारों पटाखों वाली लड़ी जो पड़ पड़ बजाना
शुरु हो तो २० मिनट तक बजती ही जायें, राकेट, अनार, सात आवाज वाला बम, पटक बम ..याद
करुँ तो लिखते ही चला जाऊँ. जो शाम से बजना शुरु हों तो रात २ बजे तक बजते ही
रहें. तब पंडित जी लक्ष्मी पूजन का मुहर्त निकालते थे और हम बच्चे इन्तजार करते थे
कि जल्दी से पूजा खत्म हो तो पटाखे चलायें. लड़ियों वाले पटाखे में से बिना फूटे
उछल कर दूर जा गिरे पटाखे और फुस्सी निकल गये बम अगली सुबह गरीब बच्चे बीनकर ले
जाते थे और उनकी दिवाली उसी से अगले रोज मना करती थी.
अब सुना पटाखे चलाने का
मुहर्त अदालत तय कर रही है. शाम को ८ से १० बजे तक फोड़ लो वो भी बिना आवाज वाले,
हरित क्रांति के तहत बिना धुँआ वाले. लड़ी फोड़ना बैन. डिजिटल इंडिया में जहाँ अब
हर पेमेन्ट ऑन लाईन करने पर जोर है, वहीं पटाखे ऑनलाईन बिकने पर बैन. ये कैसा आधा
डिजिटलाईजेशन है. सही है दो हजार के नोट वाला गाँधी के चश्में वाला स्वच्छता अभियान
जैसा. चश्में के एक शीशे पर स्वच्छ लिखा है और दूसरे पर भारत है. एक शीशा दिखाने
का और दूसरा देखने का.
गरीब की किस्मत के लड़ी से
उड़े बम भी ये ले उड़े. खैर, गरीब की तो वैसे भी किसी ने क्या सुध ली है सिवाय
चुनावों के दौरान आसमान दिखाने के.
चुनाव में जब पूरे देश
में पटाखे चलाये जायेंगे तब उस पर कोई बैन नहीं सुना? शायद इसलिए कि शहर का इतना
बड़ा वाला दूसरा प्रदुषण शहर से हटकर राजधानी निकल जायेगा, यह सोचकर पटाखों वाला
प्रदुषण कम नजर आया हो चुनाव के जुलूस में, तो जाने दिया हो. कौन जाने!!
रावण के मरने पर पुतला
दहन में पटाखे छोड़ने की कहाँ मनाही है?
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित सुबह
सवेरे में रविवार अक्टूबर २८, २०१८
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