हम साल भर पाप करते ही इसलिए हैं ताकि सालाना
गंगा स्नान में उन्हें धोकर गंगा माई हमको पुण्य प्रदान करे. पाप न करेंगे तो गंगा
माई धोएगी क्या? पुण्य प्राप्त करना है तो पाप करो. यही हमारा सिध्द नियम है.
वही हाल स्वर्ग पहुँचने का मार्ग दिखाने वाले
बाबाओं के आश्रम का है. आश्रम में ऐसे ऐसे निकृष्ट धतकरम होते हैं कि उन्हें देख
जान कर अगर नरक भी पहुँच जाओगे तो लगेगा वाकई अगर कोई जगह स्वर्ग है तो वो यही है.
जितना पाप इन पावन नदियों के तट पर और इन सिद्ध
बाबाओं के घर पर होता है, उसके सामने सब कुछ पुण्य ही नजर आएगा.
हम उत्सवधर्मी इसी तर्ज पर हर बरस रावण बनाते
ही इसलिए हैं ताकि उसे मार सकें. उसका दहन कर सकें. फिर सब तालियाँ बजा कर नाचें कि
रावण मारा गया. पाप पर पुण्य की विजय हुई. अंधेरों पर उजाले की विजय हुई भले ही दो
दिन से बिजली न आई हो और सारा शहर अँधेरे में डूबा हो. अंधेरों पर उजाले के विजय
जुलूसों में जेबकतरों की पौ बारह हो लेती है. रावण तो जाने कब का मारा गया. अब तो
गली गली रावण का पुतला बना कर उसे मारने वाले खुद ही रावण से बदतर कृत्यों में
लिप्त है. गली गली सीताओं का अपहरण हो रहा है. अब बचाने को कोई हनुमान तो दूर, थाने
में रिपोर्ट लिखने को हवलदार भी तैयार नहीं. कानून बनाने वाले इन रावणों के आका
हैं और कुछ तो खुद ही रावण को भी शर्मसार करने में जुटे हैं. यही आका सबसे जोरशोर
से राजधानी में दशहरे पर तीर चलाते हैं नकली रावण को मारने. जनता ताली पीटती है कि
रावण मारा गया. इस तरह जनता को गुमराह कर असली रावण फिर साल भर के लिए मस्ती काटने
को निकल पड़ता है. पाप का घड़ा सिर्फ मुहावरे में भरता है. असल में तो अब पाप का घड़ा
बनाने वाले हों या क़ानून बनाने वाले, उसमें सुराख की समुचित व्यवस्था बना कर रखते
हैं. पाप करते चलो, सुराख उसे कभी भरने न देगा.
साल भर कबूतरों को पकड़ कर पिंजड़े में बंद किया
ही इसलिए जाता है ताकि स्वतंत्रता दिवस पर हर शहर, राजधानी से मंत्री जी लोग उन्हें
उड़ा कर आजाद करें और जनता ताली पीटे कि देखो देखो, वो आजाद हो गए. आजादी का उत्सव मन
गया. झंडा लहर गया. नेता जी के भाषण हो गये. आजादी के गीत बज गए. मिठाई बाँट दी
गई. तमाशा खत्म. अब घर जाओ, अगले साल फिर आना.
हर मूंह में माइक घुसा कर प्रश्न पूछने वाला ये
मीडिया कभी इन कबूतरों से अपना जाना पहचाना प्रश्न क्यूँ नहीं पूछता है कि हे
कबूतर जी, आपको आजाद होकर कैसा लग रहा है? अब आप उड़कर कहाँ जायेंगे,क्या कमाएंगे,
क्या खायेंगे?
कबूतर भी आम जनता की तरह वैसा ही मूक और निरीह
प्राणी है, जिसे अपनी नियति पता है. वो हर मुसीबत में आँख मींच कर राम नाम जपने
लगता है और हर दशा को प्रभु की मरजी मान कर इत्मीनान धर लेता है. उसके लिए ‘स्वतंत्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है’
मात्र एक वैसा ही आजादी के समय का नारा है, जैसा आज ‘गरीबी हटाओ, फलाने को जिताओ’
जो १०० रुपये की एवज में वो हर चुनावी सभा में लगाता है. यह चुनावों के महापर्व पर
उसकी कमाई का साधन है. सच सोच है कि हकीकत में अगर गरीबी हट जाए तो अगले चुनाव में
नारे कौन लगाएगा? और स्वतंत्रता अगर सबको दे दें तो अगले साल स्वतंत्रता दिवस पर
आजाद किसे करेंगे?
इन आजाद किए गए कबूतरों में कुछ कबूतर तो बार
बार पकडे जाने के इतना अभ्यस्त हो गए हैं कि नेता जी के आजाद करते ही कुछ देर में
उड़ कर खुद ही फिर से पिंजड़े में आकर बैठ जाते हैं. कबूतरों का एक वर्ग ऐसा भी होता
है जो कुछ देर उड़ने के बाद नजदीक के पेड़ो में बैठकर, बहेलिओं के आने का इंतज़ार करने
लगता है. जैसे ही बहेलिया आता है, यह आत्मसमर्पण कर देते हैं. कुछ के लिए बहेलिओं
को जाल बिछाना पड़ता है मगर आखिरकार कैद में आ ही जाते हैं.
एक छोटा सा उत्साही युवा कबूतरों का वर्ग ऐसा
भी होता है, जो इस आजादी को असल आजादी मान कर, नेता जी के भाषण पर भरोसा करते हुए,
खुले आसमान में ऊँची स्वच्छंद उड़ान भर देता है. उसे क्या पता कि उस उंचाई पर
इन्हीं के पाले बाज़ उसके आने का इंतज़ार कर रहे हैं. बाजों को भी तो उत्सव की दावत
उड़ाना है.
इसीलिए बुजुर्ग कबूतर युवा कबूतरों को समझाते
पाये जाते हैं कि साल में एक दफा थोड़ी देर के लिए ही सही, अगर आजाद उड़ान भरना
चाहते हो, तो इनकी गुलामी को अपनी नियति मानकर चुपचाप पिंजड़े में बंद रहना सीख लो,
वरना ये धरती पर दिखते जरुर हैं, इनके हाथ आसमान तक जाते हैं. यहाँ ये नेता और वहां
बाज कहलाते हैं. ऊँचा उड़ोगे तो बाज का शिकार बन जान गंवाने के सिवाय कुछ हाथ न
आयेगा.
स्वतंत्रता के दायरे समझो, मायने नहीं. तभी इस स्वतंत्रता
के उत्सव का मजा आयेगा वरना तो कौन आजाद है भला?
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक
सुबह सवेरे में अगस्त १२, २०१८ में:
#जुगलबंदी
#हिंदी_ब्लॉगिंग
#jugalbandi
#Hindi Blogging
Excellently boundary and meaning of Independence has been highlighted to awaken readers. Awaiting nezt article...
जवाब देंहटाएंकोशिश करते हैं । सुन्दर।
जवाब देंहटाएंसार्थक आलेख
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (14-08-2018) को "त्यौहारों में छिपे सन्देश" (चर्चा अंक-3063) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हरियाली तीज की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (14-08-2018) को "त्यौहारों में छिपे सन्देश" (चर्चा अंक-3063) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हरियाली तीज की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अंग दान दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक सामयिक प्रस्तुति ..
जवाब देंहटाएंसच तो यही है कि असली आजादी कभी आई ही नहीं, नहीं दूर-दूर तक नज़र आती हैं ..
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंआपका व्यंग्य मर्म पर चोट कर रहा है लेकन अब खालें मोटी हो गई हैं, लोग तिलमिलाते नहीं झटकार कर चल देते हैं .नेताओं ने तो खासतौर से बेसर्मी लाद रखी है.
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र तय करने वाले सर्वप्रिय अटल जी को सादर नमन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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