भारत में जब रहा करते थे
तब अक्सर पंखे के ऊपर और रोशनदान आदि में लगभग हर ही जगह चिड़िया का घोसला देख पाना
एक आम सी बात थी. अक्सर घोसले से उड़ कर घास और तिनके जमीन पर, बाल्टी में और कभी
किसी बरतन में गिरे देख पाना भी एकदम सामान्य सी घटना होती थी.
उस रोज एक मित्र के
कार्यालय पहुँचा तो एकाएक उनकी टेबल पर एक कप में गरम पानी पर वैसे ही तिनके और
घास फूस गिरे दिखे. अनायास ही नजर छत की तरफ उठ गई. न पंखा और न ही घोसला. सुन्दर
सी साफ सुथरी छत. पूरे कमरे में एयर कन्डिशन और काँच की दीवारें. समझ नहीं आया कि
फिर ये तिनके कप में कैसे गिरे? जब तक मैं कुछ सोचता और पूछता, तब तक मित्र ने कप
उठाया और उसमें से एक घूँट पी लिया जैसे की चाय हो. मैं एकाएक बोल उठा कि भई, देख
तो ले पीने से पहले? कचरा गिरा है उसमें.
वो कहने लगा कि अरे, ये
कचरा नहीं है, हर्बस हैं और यह है हर्बल टी. हमारे जमाने में तो बस एक ही चाय होती
थी वो काली वाली. चाय की पत्ती को पानी, दूध और शक्कर में मिला कर खौला कर बनाई
जाती थी. उसी का जो वेरीयेशन कर लो. कोई मसाले वाली बना लेता था तो कोई अदरक वाली.
एक खास वर्ग के नफासत वाले लोग चाय, दूध और शक्कर अलग अलग परोस कर खुद अपने हिसाब
से मिलाया करते थे. कितने चम्मच शक्कर डालें, वो सिर्फ इसी वर्ग में पूछने का
रिवाज़ था. फिर एक वर्ग ऐसा आया जो ब्लैक टी पीने लगा. न दूध न शक्कर. समाज में
अपने आपको कुछ अलग सा दिखाने की होड़ वाला वर्ग जैसे आजकल लिव ईन रिलेशन वाले. अलग
टाईप के कि हम थोड़ा बोल्ड हैं. कुछ डाक्टर के मारे, डायब्टीज़ वाले बेचारे उसी काली
चाय में नींबू डालकर ऐसे पीते थे जैसे कि दवाई हो.
फिर एकाएक न जाने किस
खुराफाती को यह सूझा होगा कि चाय की पत्ती को प्रोसेसिंग करके सुखाने में कहीं
इसके गुण उड़ तो नहीं जाते तो उसने हरी पत्ती ही उबाल कर पीकर देखा होगा. स्वाद न
भी आया हो तो कड़वा तो नहीं लगा अतः हल्ला मचा ग्रीन टी ..ग्रीन टी..सब भागे ..हां
हां..ग्रीन टी. हेल्दी टी. हेल्दी के नाम पर आजकल लोग बाँस का ज्यूस पी ले रहे
हैं. लौकी का ज्यूस भी एक समय में हर घर में तबीयत से पिया ही गया. फिर बंद हो
गया. अब फैशन से बाहर है.
हालत ये हो गये कि ठेले
से लेकर मेले तक हर कोई ग्रीन टी पीने लगा. अब अलग कैसे दिखें? यह ग्रीन टी तो सब
पी रहे हैं. तो घाँस, फूस, पत्ती, फूल, डंठल जो भी यह समझ आया कि जहरीला और कड़वा
नहीं है, अपने अपने नाम की हर्बल टी के नाम से अपनी जगह बना कर बाजार में छाने लगे.
ऐसा नहीं कि असली काली वाली चाय अब बिकती नहीं, मगर एक बड़ा वर्ग इन हर्बल चायों की
तरफ चल पड़ा है.
बदलाव का जमाना है. नये
नये प्रयोग होते हैं. खिचड़ी भी फाईव स्टार में जिस नाम और विवरण के साथ बिकती है
कि लगता है न जाने कौन सा अदभुत व्यंजन परोसा जाने वाला है और जब प्लेट आती है तो
पता चलता है कि खिचड़ी है. चाय की बढ़ती किस्मों और उसको पसंद करने वालों की तादाद
देखकर मुझे आने वाले समय से चाय के बाजार से बहुत उम्मीदें है. अभी ही हजारों किस्मों
की मंहगी मंहगी चाय बिक रही हैं.
हो सकता है कल को बाजार
में लोग कुछ अलग सा हो जाने के चक्कर में मेनु में पायें बर्ड नेस्ट टी - चिड़िया
के घोसले के तिनकों से बनाई हुई चाय. एसार्टेड स्ट्रा बीक पिक्ड बाई बर्ड फॉर यू
याने कि चिड़िया द्वारा चुने हुए घोसले के तिनके अपनी चोंच से खास तौर पर आपके लिए.
इस चाय में चींटियों द्वारा पर्सनली दाने दाने ढ़ोकर लाई गई चीनी का इस्तेमाल हुआ
है.
अब जब ऐसी चाय होगी तो
बिकेगी कितनी मँहगी. क्या पता कितने लोग अफोर्ड कर पायें इसे. मुश्किल से कुछ गिने
चुने और यही वजह बनेगी इसके फेमस और हेल्दी होने की.
गरीब की थाली में खिचड़ी
किसी तरह पेट भरने का जरिया होती है और रईस की थाली में वही खिचड़ी हेल्दी फूड कहलाता
है, यह बात बाजार समझता है.
बस डर इतना सा है कि चाय
के बढ़ते बाजार का कोई हिस्सा हमारा कोई नेता न संभाल ले वरना बहुत संभव है कि सबसे
मंहगी चाय होगी- नो लीफ नेचुरल टी. बिना पत्ती की प्राकृतिक चाय और चाय के नाम पर
आप पी रहे होंगे नगर निगम के नल से निकला सूर्य देव का आशीर्वाद
प्राप्त गरमा गरम पानी.
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#हिन्दी_ब्लॉगिंग
Excellently combined folk mindset with contemporary ways.
जवाब देंहटाएंचिंतनीय विषय :-)
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया...बहुत ही सटिक व्यंग!
जवाब देंहटाएंदुनिया में शायद ही अमीर-गरीब के भेद की खाई और कहीं देखने को मिलती होगी, इस कारण ही वर्ग भेद के चलते एक ही चीज को अलग-अलग नज़रिया से देखा जाना बड़ी बिडंबना है देश की
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन स्तनपान और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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