शनिवार, जुलाई 14, 2018

कि अफवाहें झूठ को सत्य दिखाने का फेंसीड्रेस


तिवारी जी सुबह सुबह पान के ठेले पर अपनी ज्ञान की दुकान सजा कर बैठे थे. कह रहे थे कि बहुत सी चीजें ऐसी होती हैं जिनमें पंख नहीं होते मगर उड़ती हैं.  जैसे की पतंग. पंख नहीं हैं मगर उड़ती है. चूंकि पंख नहीं है अतः स्वतः नहीं उड़ती एवं किसी को उड़ना पड़ता है. पतंग उड़ाने वाला न हो तो वो कभी उड़े ही न..
एक बार हमने अच्छी ऊँची पतंग तानी थी और एकाएक फोन आ गया तो बात करने लगे सद्दी को खंबा में बांध के. फिर १५ मिनट बाद देखा तो भी उड़ रही थी...तब कैसे उड़ी? घंसू पूछ रहे हैं.
अरे, एक ऊँचाई तक उड़ने के बाद पंख वाले हों या बिना पंख वाले, सब ये गुमान पाल लेते हैं कि वो अपने आप उड़ते हैं. हवा उड़ाती है उनको. बिना हवा के कितने भी ऊँचे उड़ रहे होते तो भी धम्म से जमीन पर गिरते..किसी सहारे के बिना उड़ पाना संभव नहीं है..तिवारी जी ने बताया और आगे समझाते हुए कहा...अगर पतंग कट भी जाये न तो भी बड़ी देर तक यह अहसास बना रहता है कि उड़ रही है. बहुत ऊँचा उड़ जाने के बाद वहाँ से उतरना भी उड़ने का अहसास देता है बड़ी देर तक भ्रमित करते हुए.
तिवारी जी समझाने पर आ जायें तो बिना पूरा समझाये मानते ही नहीं. अतः आगे समझाते हुए बोले कि इसी तरह से अफवाहें होती हैं. पंख होते नहीं मगर उड़ती हैं. अफवाह सदैव झूठी होती है. सच हो तो खबर कहलाती है. अफवाह जब बहुत ऊँचा उड़ लेती है तो सच का अहसास कराती है. लोग उसे खबर मान लेते हैं. उस ऊँचाई पर उसे लोगों की ऊँचाई में आस्था का सहारा मिलता है, जो अक्सर मीडिया प्रदान कर देता है.
मीडिया को झूठ को सच करार कर देने में महारथ हासिल है. मीडिया ऊँचाई पर चलती वो हवा है जिसे हम आमजन जमीन पर पहचान नहीं पाते और उसकी संगति प्राप्त को सत्य मानते चलते हैं.
यह वही मीडिया है जो उड़ी हुई अफवाह को उड़ाते उड़ाते सच का ताज़ पहना देती है और जब एक वक्त के बाद वो अफवाह सद्दी से काट दी जाती है तो ये ही मीडिया कुछ देर तक तो कोशिश करती है कि वो झूठ सच दिखता रहे फिर अपनी हार देख ..अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हो..खुद ही उस अफवाह की दुर्गति को गति दे मिट्टी में मिला देती है...
तिवारी जी आगे बोले..अभी हाल में एक अफवाह उड़ी...मुझे उम्मीद थी कि जल्द उतर आयेगी पर किसी ने बताया कि यह ऐसे न उतरने वाली..यह खानदानी अफवाह है. पुश्तें लगती हैं उतरने में.
खानदानी अफवाह? यह तो कभी सुना नहीं..घंसू पूछ रहे हैं.
तिवारी जी ने पान थूका  और समझाना शुरु किया.
अफवाहों के प्रकार होते हैं- खानदानी, आवारा और नाजायज़.
आवारा अफवाह कुछ देर उड़ती है, कुछ नुकसान पहुँचाती है और खो जाती है. नाजायज़ भी बहुत थोड़ा सा उड़ती है..कोई ध्यान नहीं देता और खो जाती है..
बच रही खानदानी अफवाह जो गुंजार करती हैं ..रुको कि हम उड़ रहे हैं अभी. इसमें दम दिखता है मगर होता नहीं, क्यूँकि अफवाह झूठ होती है, खबर नहीं. मगर खानदान का नाम इसे जिन्दा रखता है. इसके सच होने का अहसास कराता है...मगर मात्र एक सीमा तक. सद्दी के सहारे तनी पतंग को कटना ही होता है..आज नहीं तो कल. कभी कभी कोई इसे काटता भी नहीं तो भी हवा जो इसे उड़ाने की जिम्मेदार थी, उसकी गति ही इसे काट देती है और कभी उसका आभाव!! याने खेल मीडिया रुपी हवा के हाथ का ही है.
प्रभाव और आभाव के बदले एक सी स्थिति प्राप्त होने का इससे बेहतर क्या उदाहरण हो सकता है....क्या यही आम आदमी की स्थिति नहीं?
उड़ने के उदाहरणों में अफवाह के चलते नींद का उड़ना भी है..सुना है कि वो तमाम कोशिशों के बाद चुनाव हार रहे हैं..और उस रोज से उनकी जो नींद उड़ी है..क्या कहने. पंख तो नींद के भी नहीं होते मगर उड़ तो रही है. पता नहीं किसका सहारा है? शायद नींद को उड़ने के लिए उस अफवाह का सहारा मिला हो जो खुद ही मीडिया की बैसाखियों के सहारे उड़ रही है.
अफवाहों के बाजार की इससे बेहतर झाँकी और क्या पेश की जाये जो समझा सकें कि अफवाहें झूठ को सत्य दिखाने का फेंसीड्रेस हैं!! कभी कभी तो यह नाटकियता एकदम सत्य नजर आती हैं!!!
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार १५ जुलाई, २०१८ में प्रकाशित:


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2 टिप्‍पणियां:

  1. तिवारी जी और घंसू का संवाद यथावत व्यंग के माध्यम से जनमानस की व्यथा का सुन्दर विवरण है, जैसे लक्ष्मण के कार्टून में जनता परिलक्षित की जाती है | यह लेख जनसाधारण की मानसिकता एवं रूचि (राजनीति पर टिपण्णी ) से ऊपर है क्योंकि इसे आपने बेखूबी से राजनीति से दूर रखा. अगले लेख का इन्तजार है।

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  2. तिवारी जी ने सही ज्ञान बाँचा। कई बार जब अफवाहें उड़तीं हैं तो उनके साथ कई लोगों की दाल रोटी चलती है। क्योंकि दाल रोटी को चलना होता है तो अफवाहों का उड़ना जरूरी हो जाता है। मुझे ऐसा लगता है कि तिवारी जी की दुकान पर रेगुलर जाना पड़ेगा।

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