पुस्तक मेला सजा हुआ है दिल्ली में. लेखक, कवि,
कहानीकार, साहित्यकार, व्यंग्यकार और तमाम इन विधाओं के वरिष्ठ इसमें शिरकत कर रहे
हैं. उत्सवधर्मी देश में उत्सव का अलग महत्व है, उसे नकारा नहीं जा सकता. इनमें
सबके अपने परिचय हैं. कोई मात्र लेखक है, तो कोई वरिष्ठ और कई इसलिए नाम जमाये हैं
क्यूंकि वह किसी वरिष्ठ के घनिष्ट हैं,
हमें खुद..जमाना गुजर गया लिखते लिखते. लिखने
का तरीका बदल गया है. लेखक की तस्वीर बदल गई है. लेखक के चेहरे का क्षेत्रफल बदल गया है
बालों के उड़ जाने से...लेखक की फैन फॉलोईंग के अंक बदल के १०० गुणित
हो लिए हैं और अखबार वाले हैं कि संज्ञान में कोई बात लेते ही नहीं. पहले
भी हर आलेख के साथ परिचय लिखते थे कि ‘लेखक कनाडा निवासी व्यंग्यकार हैं’ और आज भी यही लिखते हैं. शुरुवाती दौर में तो लगता था कि कनाडा निवासी
शायद इसलिए लिख देते होंगे कि यदि इनका व्यंग्य..व्यंग्य जैसा न लगे तो इनको जरा छूट दे
देना क्यूँकि यह भारत निवासी नहीं हैं अतः शायद जानकारी अधूरी हो..हिन्दी
खराब हो..तथ्य
को तोड़ना मरोड़ना न जानते हों. मगर वो भूल जाते थे कि इस कनाडा निवासी का डी
एन ए भी तो भारतीय ही है और उससे भी ज्यादा, उस जबलपुर की आबो हवा में पनपा है जिसमें परसाई की खुशबू थी...उनका
आशीर्वाद था...उनका द्वारा प्रद्दत बचपन का पुरुस्कार था. कनाडा, आस्ट्रेलिया, भारत..क्या फरक पड़ता है..व्यंग्यकार तो व्यंग्यकार ही होता है. अगर
व्यंग्य लिखा है तो लिखने वाला व्यंग्यकार ही होगा.
इस बात पर हमारी चुप्पी शुरुवाती दौर में इसलिए
भी रही कि इससे हमें ही माईलेज मिल रही थी..लोग कहा करते थे और आज भी लोग कहा करते हैं कि
आप देश से इतनी दूर रह कर भी देश के हालातों पर यूं सहजता से लिखते हैं कि लगता है
जैसे यहीं बैठे अहसास रहे हों. मैं सोचता हूँ कि शायद भारत में बैठकर लिख रहा होता
तो कोई नोटिस भी न करता.. सही सोच रहा हूँ या गलत नहीं मालूम. मगर विदेश का जलवा
भी तो नकारा नहीं जा सकता. राहुल गांधी के गुजरात चुनाव के दौरान बदले तेवरों और
बेहतर प्रदर्शन के पीछे उनकी बर्कले यूनिवर्सिटी में हुई सफल कांफ्रेंस का हाथ
बताया जा रहा था । इसीलिए शायद वे अगले चुनावों से पहले बहरीन गए हुए हैं…ऐसे में वो देश में सरकार की सांस
फुलवाने में कसर नहीं छोड़ रहे. आगे भी बहुत सी विदेश यात्रायें उनके अजेंडॆ पर
हैं. चुनाव देश में लड़ना है मगर प्रचार विदेश में रह रहे एन आर आई के बीच जिनको तो
वोट भी नहीं देना है. मगर सभी पार्टियों के शीर्षस्थ यही करते हैं चाहे आप हो,
कांग्रेस हो या भाजपा. ऎडीसन स्क्वायर का मजमा आज भी ओग याद करते हैं और जो नहीं
करते, उनको याद कराया जाता है. अधिकतर देशी कवि और साहित्यकार भी विदेश यात्रा कर
के अपने बायोडाटा को संपूर्ण सिद्ध करते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है.
इससे देश में कीमत बढ़ जाती है..यह तय है. ऐसे में जब आप विदेश में ही रह रहे हो
तो भुना लेने में क्या बुराई है?
मगर फिर यही लेखन जब थोड़ा स्थापित हो जाता है
तो विदेश में बैठा ये लेखक ही, जिसे प्रवासी होने की वजह से ही नोटिस किया गया
था..प्रश्न
उठाता है कि हमारे लिखे को प्रवासी साहित्य क्यूँ पुकार रहे हो?..साहित्य
तो बस साहित्य होता है..हमें
भी मुख्यधारा का साहित्यकार मानो. हालांकि वो खुद भी जानता है अगर ऐसा हो गया..तो
दो चार को छोड़ कर बाकियों की कौड़ी भर की औकात न रह जायेगी. भारत में गली गली उनसे बेहतर लिखने
वाले बैठे हैं..जिन्हें कोई पहचान नहीं रहा है.
खैर मेरी चिन्ता दीगर है..मुझे एक जमाने से कनाडा निवासी
व्यंग्यकार लिखा जाता रहा है अखबारों और पत्रिकाओं में. मेरे बहुत से परिचित भारत में रह कर व्यंग्य
एव व्यंग्यनुमा कुछ लिख रहे हैं और आजकल अखबार उनको ’लेखक वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं’
लिख रहा है. ये
कैसे हुआ?..इसके
लिए क्या डीग्री चाहिये? हम भी एक लम्बे समय से पत्र पत्रिकाओं में छप
रहे हैं..हम
क्यूँ नहीं कनाडा निवासी वरिष्ठ व्यंग्यकार कहलाये? हमारा प्रमोशन क्यूँ रुका है? कोई
कोटा तो नहीं है लोकल रिजर्वड जो हमको मालूम ही न हो?
अखबार वालों से पूछा कि यह भेदभाव क्यूँ कर हो
भई? वो
बोले कि सर!! आप
तो अभी जवान हैं...युवा हो.. यह टाईटल तो वृद्धों के लिए है..आप
कहाँ लग गये इस चक्कर में? मन को तसल्ली मिली और हम चुप हो लिए..लगा
कि आगे से वो हमारे लिए लिखें कि ’लेखक कनाडा निवासी युवा व्यंग्यकार हैं.’
मगर अगले दिन जब सुबह का अखबार उठाया तो एक
समाचार पर नजर पड़ी...बस स्टैंड के बाहर एक वृद्ध की ठंड से ठिठुर कर
मौत,,,वृद्ध
की शिनाख्त चिरई ढ़ोंगरी निवासी घंसु पटेल, उम्र ५३ वर्ष हुई है.
समाचार पढ़कर हम ठिठुर गये कि अगर ५३ वर्षीय वो
मृत वृद्ध है तो हम क्या हैं? वयोवृद्ध कि कब्र में बैठे लिख रहे हैं? मर
जायें तो वृद्ध और वरिष्ठ व्यंग्यकार लिखवाना हो तो युवा? अजब हो तुम अखबार वाले..
हद है डिसक्रिमिनेशन की...हमको बहलाने के लिए स्टैंड लेते हो..हमने
पूछा तो कहते हैं कि वो बुढ़ा गरीब था..वरना तो हमारे यहाँ राजनिति में ६५ साल के युवा
टहल रहे हैं पूरी एनर्जी के साथ ..छाती फैला फैला कर ओजस्वी भाषण दे रहे हैं..आये
दिन विदेश घूम रहे हैं..और आप भी तो विदेश में रहते हो..डालर में कमाते हो..जिम
जाते हो..आये
दिन जाम छलकाते हुए तस्वीर सटाते हो.. समरथ को नहीं दोष गुसांई...तुलसीदास
तक कह गये तो हम तो अखबार वाले हैं. अब ऐसे में क्या कहते..अतः तब चुप रह गये..
मगर अब मैने भी तय कर लिया है कि इनके झांसे
में नहीं आना है और अगली बार आलेख दूँगा ही तब.. जब ये तैयार हो जायेंगे मेरे नाम के
साथ यह लिखने को कि ’लेखक कनाडा निवासी वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं’
कौन जाने इसी चक्कर में कितने सम्मान लटक गये
हों..कि
जब बंदा वरिष्ठ है ही नहीं तो सम्मान कैसा देना? एक अटकल ही तो है.
-समीर लाल ’समीर’
दैनिक सुबह सवेरे भोपाल के रविवार १३ जनवरी,
२०१८ कें अंक में:
#Jugalbandi
#जुगलबंदी
#व्यंग्य_की_जुगलबंदी
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन मकर संक्रांति पर ब्लॉग बुलेटिन की शुभकामनायें करें स्वीकार में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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