शनिवार, सितंबर 09, 2017

भीड़ कुत्ता बन भौकती रही और राजहंस मंद मंद मुस्कराता रहा

सन १९७६ के आसपास की है यह बात...अखबार में उनकी एक कहानी छपी जो अंततः उनकी एकमात्र कहानी बन कर रह गई. उनका कहना है कि बहुत चर्चित रही..अतः आपने पढ़ी ही होगी ऐसा मैं मान लेता हूँ..वो राज हंस वाली, जिसमें एक राज हंस होता है और वो तीन बंदर जिनको वो राज हंस चुनावी मंच पर ले आया था और लोगों से कहा कि यह गाँधी जी वाले तीनों बंदर हैं..एक बुरा मत कहो, दूसरा बुरा मत सुनो और तीसरा बुरा मत देखो..वाला...उद्देश्य मात्र इतना था कि आम जनता उसे गाँधी का उपासक मानकर उनके पद चिन्हों पर चलने वाला समझे..और यथा नाम..तथा पद के आधार पर राज हंस सत्ता पर काबिज हो.
हंस पर खादी का लिबास..फिर साथ में तीन बंदर खादी का गमछा कंधे पर लटकाये और गाँधी टोपी पहने...यह अजूबा देख कर जनसभा में कुत्तों की भीड़ एकदम आवारा हो गई और लगी भौंकने..कुतों की तो खैर आदत होती है अजूबा देख कर भौंकना मगर भीड़ का स्वभाव होता है कि भीड़ के साथ अपना विवेक खो भीड़ बन जाना...अतः आमजन भी भीड़ बने साथ में भौंकने लगे..बंदर गाँधी वाले तो थे नहीं कि दूसरा गाल आगे बढ़ाने के लिए बैठे रहते..केले की लालच में चले आये थे..सो आवारा भीड़ के खतरों को भाँपते हुए कूद फांद कर पेडों पर चढ़ कर छलांग लगाते हुए भाग लिए जंगल की तरफ..
बच रहा मंझे हुआ सियासत का खिलाड़ी मंचासीन राज हंस....कुत्ते भौंकते रहे...उनको देखा देखी आम जन भौंकते रहे..मगर वो सीजन्ड राज हंस मुस्कराता रहा..मंद मंद...
बीच बीच में माईक पर कहता कि शांत हो जाईये..वे बंदर ढ़ोंगी थे...मुझसे पहचानने में भूल हुई...मुझे अपने चाहने वाले आप जैसे समर्थकों पर गर्व है कि आपने उनको पहचान लिया और मुझे गुमराह होने से बचा लिया..आप सबका साधुवाद.
मुझे आपकी सुचिता पर गर्व है..चुनाव में आप जो भी निर्णय लेंगे वो निश्चित ही क्षेत्र और जनता के लिए लाभदायी होगा...कुत्तों ने अपनी प्रशंसा सुन भौंकना बंद दिया, आमजनों की भीड़ फिर से भीड़ हो गई और उन्होंने भी भौंकना बंद कर दिया.
कुछ रोज बाद राज सत्ता के परिणाम घोषित हुए..राज हंस पुनः सत्तासीन हुआ..तीनों बंदर शपथ ग्रहण समोरह के विशिष्ट अतिथि बने. बाद में उन तीन बंदरों की इन्क्यावरी कमेटी ने सीसी टीवी की फुटेज देखकर उन कुत्तों के झुंड का पता लगाया जिन्होंने उस शाम भौंक भौंक कर भीड़ को उकसाया था और उन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा कायम हुआ और दो को फांसी और अस्सी कुत्तों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई. जेल में जगह की कमी की वजह से कुछ हार्ड कोर क्रिमनल्स को बाईज्जत रिहा कर दिया गया. वे सभी इस रिहाई से अनुग्रहित होकर राजहंस की पार्टी में शामिल हो गये.
देशद्रोहियों को सजा की वजह से क्षेत्र में आई कुत्तों की कमी की भरपाई के लिए चीन से कुत्ते मंगाये गये. चीनी माल के बहिष्कार वाले देशी आंदोलन में चीनी कुत्तों को माल की श्रेणी से बाहर रखा गया एवं उनको जीएसटी के दायरे से भी बाहर रखा गया.
अब इस कहानी की कालजयिता देखें..कि तब जीएसटी का किसी को अता पता न था मगर उससे इन कुत्तों को इस कहानी में एक्जेमप्ट रखा गया..कितनी दूरगामी सोच है लेखक की..ऐसे में यह कहानी हर युग में जिन्दा कहानी ही कहलायेगी. ऐसा उनके एक पाठक ने हाल ही में जीएसटी के प्रवधानों पर आख्यान देते हुए संदर्भित किया.
कहानी लिखने के तीन चार साल बाद किसी ने उन्हें बताया कि यह तो करारा कटाक्ष कर बैठे हैं आप सिस्टम पर..तब उन्होंने अपने नये विजिटिंग कार्ड छपवाये जिसमें उनके नाम के बाद लेखक को बदल व्यंग्यकार लिखा गया.. तब से वह सबसे कहा करते हैं कि व्यंग्य लिखने से कोई व्यंग्यकार नहीं बन जाता. व्यंग्यकार को उसका पाठक व्यंग्यकार बनाता है. व्यंग्यकार बनना है तो पाठक साधो, लिख तो कोई भी लेता है.
फिर उनका लेखन इस हेतु स्थगित रहा कि अब इससे बेहतर ही लिखेंगे किन्तु वैसा कभी हुआ नहीं अतः वह हर बेहतर लिखने वाले को झुठलाते एवं कोसते रहते और एकाएक इसके चलते आलोचक कहलाने लगे.
नये कार्ड में समय बीत जाने की वजह से व्यंग्यकार को वरिष्ट व्यंग्यकार एवं साथ में आलोचक छापा गया. पुराने कार्ड उन्होंने खुद से जला दिये.
पिछले हफ्ते मुलाकात हुई. हमने पूछा कि कुछ नया ताजा लिखा है क्या? कहने लगे अब समय ही नहीं मिलता तो लिखें कैसे? आलोचना, प्राकथन एवं प्रस्तावना लिखने और विमोचनों में ही समय चला जाता है...वैसे एक नये उपन्यास पर काम कर रहा हूँ..ऐसा कह कर वह मुस्कराने लगे..यह बहाना हर लेखक को न लिख पाने के हीन भावना से बहुत समय तक बरी रखता है और यह बात हर लेखक जानता है.
उनकी अलमारी में परसाई समग्र के तीन भाग, शरद जोशी की कुछ किताबें, कुछ पत्रिकायें और एक अजीब सी भाषा में लिखी हुई किताब सजी रहती थी. कमरे की दीवार पर एक तो परसाई जी और एक मिस्टर स्त्रासोवान की तस्वीर... हमने पूछा यह कौन हैं? तो जिस किताब की भाषा हमें समझ न आई थी उसका जिक्र करते हुए बोले कि यह इनकी लिखी हुई है..हंगरी के महान व्यंग्यकार..मैने इन्हीं को पढ़कर सीखा है..विदेश से सीखना भी एक महारत है इसे कौन नकारता अतः हम भी नत मस्तक हो लिए..
हमें नत मस्तक होता देख उन्होंने कार्ड बढ़ाया..अब नाम के आगे इजाफा दिखा ..शुरुवात में आचार्य और अगली पंक्ति में साहित्य कमल २०१४ से सम्मानित लिखने लगे हैं..पता नहीं कैसे?
न लिखने के फायदे देखते हुए ..मन कर रहा है कि हम बेवजह क्यूँ जुटे हैं अगड़म बगड़म कुछ भी लिखने में? थोड़ा थम कर तो देखें..शायद बेहतर परिणाम मिल जाये आचार्य जी की तरह..
लिखना रोक देंगे तो समय भी हाथ में बच रहेगा कि कुछ जुगाड़ लगाया जाये ताकि कोई सरकारी  सम्मान से सम्मानित हो सकें..लिख कर भी भला कोई सम्मानित साहित्यकार हुआ है क्या कभी कि हम ही हो लेंगे? ये कैसा भ्रम जी रहे हैं हम?
जुगाड़ का वक्त है..और जुगाड़ वक्त मांगता है...
-समीर लाल समीर
भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे के सितम्बर १०,२०१७ में प्रकाशित
#Jugalbandi
#जुगलबंदी
#व्यंग्य_की_जुगलबंदी

#हिन्दी_ब्लॉगिंग

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (11-09-2017) को "सूखी मंजुल माला क्यों" (चर्चा अंक 2724) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. waah bahut khoob badhiya lekh


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    1. दिवेदी जी आपकी टिप्पणी कोड में बदल गई है । क्या लिखा है पता नही चल रहा। सिर्फ कोड वर्ड दिख रहे है ।

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  3. आपकी पोस्ट से पता चलता है कि आपकी भाषा पर पकड़ कितनी मजबूत है । हल्के हल्के कितना भारी कटाक्ष करते है, कोई आपसे सीखे । लेख अच्छा लगा । धन्यवाद ।

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