रविवार, सितंबर 08, 2013

फासला - कोई एक हाथ भर का!!

जब रात आसमान उतरा था

झील के उस पार

अपनी थाली में

सजाये अनगिनित तारे

तब ये ख्वाहिश लिए

कि कुछ झिलमिल तारों को ला

टांक दूँ उन्हें

बदन पर तुम्हारे

तैरा किया था रात भर

उस गहरी नीले पानी की झील में

पहुँच जाने को आसमान के पास

तोड़ लेने को चंद तारे

बच रह गया था फासला

कोई एक हाथ भर का

कि दूर उठी आहट

सूरज के पदचाप की

और फैल गई रक्तिम लाली

पूरे आसमान में

खो गये तारे सभी

कि जैसे खून हुआ हो चौराहे पर

मेरी ख्वाहिशों का अभी

और बंद हो गये हो कपाट

जो झांकते थे चौराहे को कभी...

टूट गया फिर इक सपना..

कहते हैं

हर सपने का आधार होती हैं

कुछ जिन्दा घटनाएँ

कुछ जिन्दा अभिलाषायें..

बीनते हुए टूटे सपने के टुकड़े

जोड़ने की कोशिश उन्हें

उनके आधार से..

कि झील सी गहरी तेरी नीली आँखे

और उसमें तैरते मेरे अरमान

चमकते सितारे मेरी ख्वाहिशों के

माथे पर तुम्हारे पसरी सिन्दूरी लालिमाclip_image001

और वही तुम्हारे मेरे बीच

कभी न पूरा हो सकने वाला फासला

कोई एक हाथ भर का!!

सोचता हूँ .............

फिर कोई हाथ किसी हाथ से छूटा है कहीं

फिर कोई ख्वाब किसी ख्वाब में टूटा है कहीं..

क्या यही है-आसमान की थाली में, झिलमिलाते तारों का सबब!!

-समीर लाल ’समीर’

29 टिप्‍पणियां:

  1. फासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था...........
    बेहद खूबसूरत कविता....

    सादर
    अनु

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  2. फिर कोई हाथ किसी हाथ से छूटा है कहीं

    जिंदगी भी यही है. इसका दर्द ही उकेर दिया आपने..

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  3. बहुत ही सटीक और भावप्रधान रचना, शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  4. बढि़या प्रस्तुति...सुंदर अभिव्यक्ति !!

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  5. साथ छूटे भी तो क्या टूटा करते...बहुत ख़ूब...इधर नेट पर बैठने का मौका कम मिल रहा है...इसलिए टिप्पणियां भी कम है...

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  6. वो ठीक सामने बैठे है मेरे , मगर ये फासला भी कुछ कम नहीं है !

    बहुत अच्छी रचना, बधाई !

    हिंदी फोरम एग्रीगेटर पर करिए अपने ब्लॉग का प्रचार !

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  7. सोचता हूँ .............
    फिर कोई हाथ किसी हाथ से छूटा है कहीं
    फिर कोई ख्वाब किसी ख्वाब में टूटा है कहीं...

    मन के भाव जुबां पे उतर आए हैं जोइस समीर भाई ... हाथ छूते तो ख्वाब टूट ही जाते हैं अक्सर ... फिर गुम हो जाता है आसमां झील की तलहट पे ...

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  8. झील के पानी में आसमान के तारो की तस्वीर है तो दिल में भी उसके खुबसूरत परछाइयाँ हैं --बेहद खूबसूरत कविता!

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  9. गज़ब धा रहे हो समीर भाई !

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  10. यह तारों की मृगतृष्णा है,
    भरमाती एक संरचना है,
    फिर भी हाथ बढ़ाते रहना,
    दूजा हाथ, मिले अपना है।

    बहुत सुन्दर भाव, समभाव जगा गये।

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  11. कुछ दूरियाँ कुछ फासले ...और उन्हें मिला ऐसे शब्दों का साथ ...वाह बहुत खूब

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  12. बहुत सुन्दर प्रस्तुति। ।

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  13. दादा ... सही , एक दम सही .. प्रेम ही प्रेम है पूरी कविता में . और ये फासला हमेशा एक हाथ की ही दूरी पर क्यों होता है....
    आभार !

    विजय

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  14. “अजेय-असीम "
    -
    अत्यन्त खूबसूरत अभिव्यक्ति !

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  15. ख्वाहिशों का सिलसिला और तपिश मन की

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  16. 'कहते हैं
    हर सपने का आधार होती हैं
    कुछ जिन्दा घटनाएँ
    कुछ जिन्दा अभिलाषायें..
    बीनते हुए टूटे सपने के टुकड़े
    जोड़ने की कोशिश उन्हें
    उनके आधार से..'
    - कोशिश के अलावा और कुछ किया भी कहाँ जा सकता है !

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  17. haath chhoote bhi to rishte nahi chhoda karte......Khubsoorat!

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  18. काफी दिन बाद.. अब ब्लॉगस्पॉट पर नियमित ​ब्लॉगर कम हुए हैं क्या?

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  19. मन को छू जाने वाली रचना .कोमल ....निम्न अद्भुत

    झील सी गहरी तेरी नीली आँखे और उसमें तैरते मेरे अरमान चमकते सितारे मेरी ख्वाहिशों के माथे पर तुम्हारे पसरी सिन्दूरी लालिमा... और वही तुम्हारे मेरे बीच कभी न पूरा हो सकने वाला फासला कोई एक हाथ भर का!! सोचता हूँ
    सुन्दर
    भ्रमर ५

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  20. फिर कोई हाथ किसी हाथ से छूटा है कहीं

    जिंदगी भी यही है. इसका दर्द ही उकेर दिया आपने..

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आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है. बहुत आभार.