सुनिये मेरी कहानी- मेरी आवाज़!!
मुझे नहीं, वो मेरी लेखनी पसंद करती है.
मुझसे तो वो कभी मिली भी नहीं और न ही कोई वजह है कभी मिलने की? मगर एक अजब सा रिश्ता कायम हो गया है आसमानी सा.
जानता हूँ, कुछ रिश्ते उस ओस की बूँद से होते हैं जो हकीकत की तपती धरती को छूते ही अपना वज़ूद खो देते हैं. बस, मैं इन अहसासों के रिश्ते को जिन्दा रखना है तो उन्हें आसमानी ही रहना होगा.
जितना भी मुझे वो जानती है, वो मेरे लेखन से.
हाँ, कुछ पत्रों के माध्यम से हुई बातचीत भी जरिया बनी -एक दूसरे के बारे में कुछ और जान लेने का.
मगर जाने क्यूँ- उसे लगता है कि वो मुझे जानती है सदियों से. एक अधिकार से अपनी बात कहती है.
मेरी लेखनी से गुजर कर पूछती कि तुम कौन से स्कूल से पढ़े हो, जहाँ पूर्ण विराम लगाना नहीं सिखाया जाता? तुम्हारे किसी भी वाक्य का अंत पूर्ण विराम से क्यूँ नहीं होता ’।’ ..
हमेशा कुछ बिन्दियों की लड़ी लगा कर वाक्य समाप्त करते हो. वाक्य पूरा जाने के बावजूद भी इन्हीं बिन्दियों की वजह से लगता है कि जैसे अभी बहुत कुछ... और भी कहना चाहते थे मगर कह नहीं पाये.. बिल्कुल उन अनेकों जिन्दगियों की तरह जो अपने आप में पूरी होकर भी.. न जाने क्यूँ अधूरी अधूरी सी लगती हैं.
खैर, यह बात तो उसने... शायद मेरी गलती की तरफ... मेरा ध्यान आकर्षित करने के लिए कही होगी.
मगर ऐसा नहीं है कि मैं पूर्ण विराम लगाना जानता नहीं, लेकिन न जाने क्यूँ ...मुझे पूर्ण विराम लगाना पसंद नहीं. न तो अपनी जिन्दगी की किसी बात में और न ही अपनी जिन्दगी के प्रतिबिम्ब - अपने लेखन के किसी वाक्य में.
मुझे लगता है- सब कुछ निरंतर जारी है. पूर्ण विराम अभी आया नहीं है और शायद मेरी जैसी सोच वालों के लिए.. पूर्ण विराम कभी आता भी नहीं..कम से कम खुद से लगाने के लिए तो नहीं. जब लगेगा तब मैं कहाँ रहूँगा उसे जानने के लिए.
कहाँ कुछ रुकता है? कहाँ कुछ खत्म होता है?
जब हमें लगता है कि सब कुछ खत्म हो गया, तब भी कुछ तो बाकी रहता ही है.
कोई न कोई एक रास्ता..बस, जरुरत होती है उसको खोज निकालने के लिए..एक सच्ची चाहत की, एक जिन्दा उम्मीद की... और एक इमानदार कोशिश की.
कभी कहा था मैने:
इन्हीं राहों से गुज़रे हैं मगर हर बार लगता है
अभी कुछ और,अभी कुछ और ,अभी कुछ और बाक़ी है
अजब इन्सान का चेहरा है हमेशा यूँ ही दिखता है
अभी कुछ और,अभी कुछ और,अभी कुछ और बाक़ी है
मैं उसे बताता अपनी सोच और फिर मजाक करता कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा हूँ, इसलिए पूर्ण विराम के लिए खड़ी पाई की जगह बिन्दी लगा देता हूँ..बिन्दी ही क्यूँ...बिन्दियों की लड़ी .....लगता कि वो खिलखिला कर हँस पड़ होगी मेरी बात सुन कर. उसे तो मैं पहले ही बता चुका था कि हिन्दी स्कूल से पढ़ा हूँ.
वो खोजती मेरी वर्तनी की त्रुटियाँ, वाक्य विन्यास की गलतियाँ और लाल रंग से उन्हें सुधार कर भेजा करती.
मैं उसे मास्टरनी बुलाता ...तब वो सहम कर पूछती कि क्या लाल रंग से सुधारना अच्छा नहीं लगता आपको?
मैं मुस्करा कर चुप रह जाता...
बातों ही बातों में अहसासता कि वो जिन्दगी को बहुत थाम कर जीती है, बिना किसी हलचल के और मैं नदी की रफ्तार सा बहता...
मुझे एक कंकड़ फेंक उस थमे तलाब में हलचल पैदा करने का क्या हक, जबकि वो कभी मेरा बहाव नहीं रोकती.
अकसर जेब में सहेज कर रखी कुछ पुरानी यादों की ढेरी से... एक कंकड़ हाथ में ले लेता..उसे उसी तालाब में फेंकने को... फिर जाने क्या सोच कर रुक जाता फेंकने से..और रम जाता..मैं अपने बहाव में.
सब को हक है अपनी तरह से जीने का...
लेकिन पूर्ण विराम...वो मुझे पसंद नहीं फिर भी...
थमे ताल के पानी में
एक कंकड़ उछाल
हलचल देख
मुस्कराता हूँ मैं...
ठहरे पानी में
यह भला कहाँ मुमकिन...
फिर भी
बहा जाता हूँ मैं!!
-समीर लाल ’समीर’