पापा,
आप खुशियाँ मनाइये
एक उत्सव सा माहौल सजा
कि आपने मुझे खत्म करवा दिया था
भ्रूण मे ही
मेरी माँ के
वरना शायद आज मैं भी
जूझ रही होती....
जीवन मृत्यु के संधर्ष में...
अपनी अस्मत लुटा
उन घिनौने पिशाचों के
पंजों की चपेट में आ..
रिस रिस बूँद बूँद
रुकती सांस को गिनती
ढूँढती... इक जबाब
जिसे यह देश खोजता है आज
असहाय सा!!!
कितना अज़ब सा प्रश्न चिन्ह है यह!!
कोई जबाब होगा क्या कभी!!
कि निरिह मैं..
छोड़ दूँगी अंतिम सांस अपनी
एक जबाब के तलाश में!!!
और तुम कहते
बेटी तेरा देश पराया
बाबुल को न करियो याद!!
-समीर लाल ’समीर’