सोमवार, जून 25, 2012

यादों में परसाई जी: ‘व्यंग्य यात्रा’

‘व्यंग्य यात्रा’ का हरिशंकर परसाई की साहित्यिक यात्रा पर केंद्रित अंक का पहला खंड प्रकाशित होकर अपने पाठकों तक पहुंच गया है। 192 पृष्ठ के इस अंक में मेरा भी संस्मरण है, आप भी पढ़ें:

vyangyayatra

तब शायद छठवीं कक्षा में रहा हूँगा. स्वतंत्रता दिवस के उत्सव के दौरान स्कूल की तरफ से लेखन प्रतियोगिता रखी गई थी जिसमें अपने स्कूल, शिक्षक के बारे में आलेख, कहानी, कविता कुछ भी लिखकर जमा की जानी थी. १५ अगस्त से एक सप्ताह पहले ही प्रतियोगिता हो गई और कापियाँ जमा करा ली गई.

एक घंटे का समय दिया गया था. मुझे कुछ न सूझा तो एक कहानी लिखी अपने शिक्षक के बारे में, जो पढ़ाते कम थे मगर प्राचार्य महोदय की खुशामद में दिन बिता देते थे. कभी उनके लिए सब्जी खरीदने जाते, कभी उनके लिए पान चाय का इन्तजाम करते. खुद भी पूरे समय पान खाते रहते थे. प्राचार्य जी की उन पर विशेष कृपा रहती थी. मैने उन्हें सच्चा आदर्श शिक्षक बताया कि इस तरह से शिक्षण कार्य करके आप अपना स्थान स्कूल में विशिष्ट बना सकते हैं अन्यथा सिर्फ पढ़ाते हुए जीवन में क्या रस है. अंत मैने किया था कि यदि मैं शिक्षक बना तो इनके समान बनूँगा और पान खाऊँगा. और भी जितना कुछ उनकी रंगीन कमीज, ट्यूसन क्लास, स्कूटर और स्टाईल के बारे में एक घंटे में लिख पाया, लिख डाला. बस, नाम नहीं लिया उनका मगर पढ़कर कोई भी समझ सकता था कि किसके बारे में लिखा है.

प्रतियोगिता में जीतने की कोई उम्मीद तो थी नहीं बल्कि यह अंदेशा जरुर था कि अगर उन मास्साब ने पढ़ लिया तो पिटाई जरुर होगी. मन ही मन बहाने सोचता रहता कि क्या बोल कर बचना है कि आपके बारे में नहीं लिखा था. क्लास ६ से लेकर ८ तक के विद्यार्थी एक ग्रुप में रखे गये थे. १०० से ज्यादा प्रतियोगियों के बीच मेरा तो खैर क्या होना था, बस अपनी प्रतिभागिता दर्ज करानी थी सो करवा दिया.

१५ अगस्त को आयोजन के दौरान विजेता घोषित होने थे और उन्हें पुरुस्कार देने हरि शंकर परसाई जी आ रहे थे. परसाई जी शहर के जाने पहचाने लोगों में अपना नाम रखते थे. अक्सर पिताजी और उनके दोस्तों से उनका नाम सुना था और उन्हें परसाई जी को अखबार में पढ़कर हँसते देखा था. एक उत्सुक्ता तो थी ही उन्हें देखने की. बस, प्रथम पंक्ति में बैठ गया. परसाई जी कुरता पायजाम पहने आये और मंच पर प्राचार्य महोदय के साथ बैठे.

झंडा वादन, जन गन मन, मिष्ठान वितरण हुआ और फिर फुल माला, सरस्वति वंदन के साथ कार्यक्रम शुरु हुआ. प्राचार्य महोदय का भाषण हुआ. कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए और फिर परसाई जी अपना अभिभाषण देने आये.

अपने भाषण के दौरान ही जहाँ उन्होंने अच्छी शिक्षा दीक्षा पर जोर दिया, वहीं एक जागरुक नागरीक बन अपने आस पास हो रहे गलत कार्यों पर ऊँगली उठाने की बात की और इस हेतु कलम और कलमकारों की सजग भूमिका पर प्रकाश डालते हुए उद्धरण देते हुए मेरा नाम ले डाला और मुझे मंच पर आने को कहा.

मैं तो समझ ही नहीं पाया कि ऐसा मैने क्या कर दिया. मुझे प्रतियोगिता में अपने लिखे पर प्रथम पुरुस्कार देते हुए उन्होंने मेरे लिखे को व्यंग्य बताया और कहा कि ऐसा लिखने के लिए साहस की जरुरत होती है और यह हर जागरुक नागरिक का कर्तव्य है.

फिर कार्यक्रम के बाद उन्होंने मुझे खूब पढ़ने, पाठय पुस्तक के इतर भी अन्य पुस्तकों को पढ़ने और लिखने आदि की समझाईश देकर आशीर्वाद दिया.

उम्र के उस पठाव में कुछ खास तो समझ नहीं आया किन्तु यह जरुर अहसास हुआ कि इतने बड़े आदमी और नामी लेखक ने मुझको सराहा है. मैं खुशी से फूला न समाता था. पिता जी और परिवार को जब बताया तो उन्हें जैसे विश्वास ही न हुआ. सब बहुत खुश हुए.

फिर सालों निकल गये. पढ़ाई के इतर छोटा मोटा लेखन भी न हुआ और पढ़ना भी नहीं. बीच बीच में कभी कभी शहर के कार्यक्रमों में पिता जी के साथ जाता रहा और परसाई जी होते तो उन्हें देखता रहा.

फिर सी ए बन कर जबलपुर में ही प्रेक्टीस शुरु की तो दफ्तर नेपियर टाऊन में परसाई जी के घर के पास ही था. एक शाम जाने क्या सोच कर उनके घर मिलने पहुँच गया. परसाई जी की तबीयत ठीक न थी और वो लेटे हुए थे.

धीरे से अपनी चिर गंभीर मुद्रा में उन्होंने मुझे देखा और पूछा, “कहिये?”

मैने उन्हें अपना सी ए वाला कार्ड पकडाया और चरण स्पर्श किये. वो ध्यान से कार्ड देखने के बाद धीरे से मुस्कराये और कहने लगे कि आप जैसे लोगों से तो हमारा क्या वास्ता? पैसा हो तो हिसाब बनवायें. कोई और दर खटखटाईये जनाब. इसी मोहल्ले में आपकी सेवा लेने लायक बहुत से हैं और यह कह कर वो जोर से हँसने लगे.

मैं झेंप गया और कहा कि सर, आपके दर्शन हेतु आया था बस. आपने मुझे पहचाना नहीं.

कहने लगे कि आज की दुनिया में बिना प्रसाद की उम्मीद में तो कोई दर्शन करने मंदिर भी नहीं जाता और आप यहाँ? वे पुनः हँसे.

मैने उन्हें याद दिलाया कि कैसे स्कूल की प्रतियोगिता में उन्होंने मुझे पुरुस्कार दिया था तो वह तुरंत बोले – अरे, तो तुम पान खाते हुए आते और कहते कि स्कूल में मास्साब हो गया हूँ, प्राचार्य महोदय की कृपा बनी हुई है- तब तो पहचान पाता. फिर एक बार वही हँसी.

मैं तो उनकी याददाश्त का कायल हो गया. इतना पढ़ने लिखने वाला इन्सान, इतने वर्षों बाद मेरे उस छिट्पुट लेखन का मसौदा याद रखे हुए है. नतमस्तक हो गया मैं.

फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि इधर कुछ लिखते हो?

मेरे न कहने पर और नई प्रेक्टिस की व्यस्तता के बहाने का सहारा लेने पर बहुत देर ध्यान से मुझे देखते रहे और कहा कि जीवन जीने के लिए वह भी जरुरी है किन्तु जीवन का असली आनन्द लेने के लिए और एक जागरुक नागरिक होने के कर्तव्य निभाने के लिए लिखना भी जरुरी है. लिखा करो समय निकाल कर.

मैने भी सहमति में सर हिला दिया. वो मुस्कराये-शायद समझ गये होंगे कि मैं झूठ सहमति दर्ज कर रहा हूँ.

फिर तो अक्सर ही उनके यहाँ जाना होता. बार बार वो लिखने पर जोर देते और मैं सहमति में सिर हिला कर आ जाता. वो कहते कि तुममें प्रतिभा है. तुम अच्छा लिख सकते हो मगर कोशिश तुमको ही करना पड़ेगी. उसमें तो मैं कुछ नहीं कर सकता.

उनकी बीमारी के दौरान काफी काफी देर उनके पास बैठा रहता. एक सुकून सा मिलता. उनसे मिलने आने जाने वालों का सिलसिला हमेशा ही होता. मैं उनके किस्से सुनता रहता और उनकी जिन्दा दिली पर नत मस्तक रहता.

मैं एक बार हमारे एक परिचित के घर बैठा था. परसाई जी का भी उनके घर आना जाना था. परसाई जी उसी बीच भेड़ाघाट से लौट कर उनके घर आये. जब तक चाय पानी का इन्तजाम होता, परसाई जी ने उनसे एक कागज पैन माँगा और लिखने बैठे गये. कुछ ही देर में उनका आलेख तैयार था जिसे उन्होंने मेरे परिचित के बेटे को देकर अखबार के दफ्तर में छपने भेज दिया. इतना फटाफट लिख देना वो भी इतना पैना-शायद उन जैसे महाज्ञानियों के ही बस की बात है. लिखते भी तो मुद्रा वैसी ही धीर गंभीर होती- लगता ही नहीं इनके लेखन में कितना हास्य का पुट लिए करारा कटाक्ष होगा.

समय उड़ता रहा और जिस दिन परसाई जी इस दुनिया से विदा हुए, मैं शहर में नहीं था. पूरा शहर स्तब्ध था. साहित्यजगत को एक भारी धक्का लगा था. लगभग एक हफ्ते बाद लौटा, तो खबर सुनकर जैसे विश्वास ही नहीं हुआ. आज भी जब उनको पढ़ता हूँ तो अहसासता हूँ कि जैसे परसाई जी बाजू में बैठे अपने किस्से सुना रहे हैं.

अब मेरा नियमित लेखन हो रहा है. परसाई जी को न जाने कितनी कितनी बार पढ़ चुका और बार बार पढ़ता हूँ और हर बार यही ख्याल आता है कि काश!! उनके रहते कलम उठा ली होती तो उनके मार्गदर्शन में आज लेखनी की धार ही दूसरी होती. मगर कब किसी को किस्मत से ज्यादा मिलता है.

लेकिन आज भी जब कलम उठाता हूँ तो परसाई जी नजर आ जाते हैं ख्यालों में यह कहते: जीवन का असली आनन्द लेने के लिए और एक जागरुक नागरिक होने के कर्तव्य निभाने के लिए लिखना भी जरुरी है. लिखा करो समय निकाल कर.

हमारा वो युग आज जैसा डिजिटल युग क्यूँ न हुआ यह भी एक मलाल रहता है हर वक्त वरना न जाने उनके सानिध्य की कितनी तस्वीरें दिल के साथ दीवारों पर भी सजा कर रखता.

47 टिप्‍पणियां:

  1. हरिशंकर परसाई को बचपन में पहली बार पढ़ा था स्कूल में. जब इतनी अक्ल नहीं था कि उनको समझ पाते.आप सचमुच किस्मत वाले हो कि उनके सानिध्य में रहने का मौका मिला.

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  2. अच्छा संस्मरण है। परसाईजी की सलाह पर अमल करें। कालजयी कवितायें लिखने के बजाय आसपास की सच्चाईयां लिखने में मन लगाया जाये।

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  3. अच्छा संस्मरण।

    बचपन में इतना धारदार व्यंग्य लिखा, परसाई जी का आशीर्वाद मिला, आपको तो हाहाकारी व्यंग्यकार बन जाना था! अभी भी आपकी कविताओं से व्यंग्य अच्छे होते हैं। अनूप जी ने सही सलाह दी है।

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  4. पारसाई जी का सानिध्य आपको मिला .... आपके लेखन की धार तो उन्होने आपके छठी कक्षा में जब आप थे तभी पहचान ली थी ... मुझे भी उनकी कहानियाँ बेहद पसंद हैं ..... आभार इन पलों को बांटने का ।

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  5. तो यह है आपकी लेखनी में धार का रहस्य. आपके गद्य में चुटीलेपन का राज़. आप खुशकिस्मत हैं कि हरिशंकर परसाई जैसी विभूति का सानिध्य मिला. मुझे लगता है कि परसाई जी पर काफी कुछ किया जाना बाकी है. उनका लिखा हुआ बहुत पढ़ा है लेकिन उनके निजी, पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन जीवन के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. सिर्फ इतना पता है कि वे जबलपुर में रहते थे और अंतिम दिनों में काफी अस्वस्थ रहे थे.

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  6. आपका परसाई जी से जुडाव अच्छा लगा मैं भी इसे पढ़ना चाहूँगा !
    आभार !

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  7. होनहार बिरवान के होत चिकने पात

    आपने सिद्ध कर दिया.... बचपन से ही लेखन की विधा आपने पायी है.

    परसाई जी के व्यक्तित्व की छाया आप पर रही, कितने सौभाग्यशाली है आप..

    मनभावन पोस्ट के लिए साधुवाद.

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  8. आपकी कलम से परसाई जी को पढ़ना अच्‍छा लगा ... आभार

    कल 27/06/2012 को आपकी इस पोस्‍ट को नयी पुरानी हलचल पर लिंक किया जा रहा हैं.

    आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!


    ''आज कुछ बातें कर लें''

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  9. परसाई जी के हाथों पुरस्‍कार। बधाई। वे जिनके मामा होते हैं उनसे होशंगाबाद में हमारी मित्रता रही। पर मिलने का मौका तो कभी नहीं आया। हां मप्र साहित्‍य परिषद की पत्रिका साक्षात्‍कार के अंक में कुछ ऐसा संयोग हुआ कि उनका व्‍यंग्‍य और मेरी कविता आमने सामने के पृष्‍ठ पर प्रकाशित हुई थी। हमने तो उसे ही अपना पुरस्‍कार मान लिया था।
    *
    आपके संस्‍मरण ने बहुत कुछ बताया और याद दिलाया।

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  10. व्यंग और परसाई जी! वाह क्या कहने ...........? आप खुशकिस्मत हैं कि हरिशंकर परसाई जैसी विभूति का सानिध्य मिला. उपरोक्त मनभावन पोस्ट के लिए आभार,,,,,,,

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  11. बढ़िया संस्मरण !
    कहते हैं --गुरु बिन ज्ञान नहीं . आपको परसाईं जी का सानिध्य मिला , तो लेखन की प्रेरणा मिली .

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  12. अच्छा संस्मरण है ... शायद आप उसी पे अमल करके आस पास की बिखरी चीज़ों कों लिखते हो ...

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  13. परसाईजी के सानिध्य में जिसका बचपन बीता हो वह धन्य है. सुंदर प्रेरणादायी संस्मरण. बहुत आभार उन क्षणों को हम सबसे साझा करने के लिये.

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  14. परसाईजी के सानिध्य को साझा करने के लिये बहुत२ आभार,,,,,,,

    RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: आश्वासन,,,,,

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  15. अच्छा अच्छा तो ई सब राज़ छुपाए ही बैठे थे आप । आपको तो राज़ पिछले जलम का " के हाट सीट पर बैठा के सब ठो एक्सकिलुसिव उगलवाना ही पडेगा । वैसे देख लूं तो चलूं को पढने वाला ई समझ सकता है आसानी से कि व्यंग्य में आप सिद्धहस्त हईए हैं । जय हो । बहुत बहुत शुभकामनाएं

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  16. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  17. बेधड़क व्यंग्य-लेखन हरेक के बस की बात नहीं -आप लिखिये हम पढ़ने को तैयार बैठे हैं !

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  18. अरे वाह, बचपन में ही परसाई जी के हाथों पुरस्कार भी पा चुके आप और सान्निध्य भी| सच्ची उपलब्धि|

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  19. अरे वाह, आप तो बचपन से ही प्रतिभाशाली हैं! बधाई हो!

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  20. परसाई जी के प्रति श्रद्धा जगाता हुआ, अंतर तक उतर जाने वाला संस्मरण....
    उन्हे सादर नमन।
    किताब में शामिल होने हेतु आपको सादर बधाइयाँ।

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  21. लिखने के बारे में परसाईजी की सीख हमारे लिये भी मन्त्र है, जागरुक रहते हैं और लिखते हैं, जागरूक रहने के लिये लिखते हैं..

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  22. उनका सानिध्य मिला आपको आप भाग्यवान हैं...लेखन के बारे में उनके विचार हम सभी के लिए अनुकरणीय हैं....

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  23. निश्चित ही सौभाग्यवान है आप कि परसाई जी से मुलाकात हुई। मै जब भी व्यंग्य लिखता हूं तो सोचता हूं कि परसाई जी क्या लिखते इस बारे मे। बस धड़ाधड़ कलम चलने लगती है। खास कर बाबा रामदेव के बारे मे :) :) :)

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  24. आपका सौभाग्य जो आपको परसाईं जी का सानिध्य मिला. व्यंग्य लिखने की कला अपन ने भी उन्हें पढ़कर ही सीखी है...

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  25. तो आज भेद खोल ही दिया आपने अपने लेखन का ! इस पोस्ट को लिखने के पीछे भी तो कहीं परसाई जी की किसी रचना का हाथ तो नही है ? खैर बहुत अच्छा लगा परसाई जी से आपके जुडाव को पढ़कर . चूँकि परसाई जी ने जब दुनिया छोड़ी तब मैं छोटा था, खैर ख़ुशी इस बात से मना लेता हूँ , कि सागर विश्वविद्यालय (जहाँ मैं पढ़ा ) में परसाई जी कुछ समय अध्ययन हेतु रुके , उनसे मिले कुछ लोगो से भी बात- मुलाकात हुई . परसाई जी की एक कहानी 'निठल्ले की डायरी ' के नाम से मैंने फेसबुक पर एक पेज भी बना रखा है . काश आज परसाई जी होते तो आज के राजनितिक माहौल पर कटीले व्यंग्य लिखते और शायद उन पर स्वयं संघी होने का आरोप भी लगाया जाता ! वो इसका भी मजा लेते ..........

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  26. बहुत खूब...!
    आपकी व्यंग्ययात्रा बहुत उम्दा है!

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  27. behatarin shraddhanjali .....


    हमारा वो युग आज जैसा डिजिटल युग क्यूँ न हुआ यह भी एक मलाल रहता है हर वक्त वरना न जाने उनके सानिध्य की कितनी तस्वीरें दिल के साथ दीवारों पर भी सजा कर रखता.

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  28. आपकी यादों को यूँ यादों के रूप में पढ़ना अच्छा लगा ....

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  29. पिछले इतवार को ही यहां बम्बई में एक कार्यक्रम हुआ था जिस में प्रेम जनमेजय जी मुख्य अतिथि थे और वहीं मैं ने व्यंगयात्रा का ये संस्करण पाया था। घर आते ही सबसे पहले सूची में मेरे जाने पहचाने नाम कौन से हैं वो देखा और आप का नाम देख कर सबसे पहले आप का लेख ही पढ़ा।
    बहुत अच्छा लगा आप का संस्मरण पढ़ना। आप भाग्यशाली हैं कि आप को परसांई जी का सानिध्य मिला। सही कहा उन्हों ने कि जीवन का आनंद लेने के लिए लिखना जरूरी है।

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  30. पढकर अच्‍छा तो लगा किन्‍तु तनिक अचरज भी हो रहा है। आपको भले ही परसाईजी नजर आ रहे हों किन्‍तु आपके लेखन में मुझे तो परसाईजी कहीं नजर नहीं आ रहे। आपका तो पूरा लेखन ही भरपूर रूमानियत लिए हुए है। परसाईजी की रूमानियत में भी व्‍यंग्‍य है।

    आप तो 'बिगड गए' समीरजी। अभी भी सुधर जाइए और व्‍यंग्‍य में लौट आईए।

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  31. परसाईंजी,वास्तव में अद्भुत लेखक थे.उन्होंने बचपन में ही आपकी व्यंग्य प्रतिभा को पहचान कर प्रेरित किया था,आज बड़े लेखक ऐसा करने में सकुचते हैं !

    ...आपकी यादें मधुर हैं,उन्हें सीने से लगाकर रखियेगा !

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  32. चरित्र-चित्रण को,शब्दों में जिस तरह से बांधा है,
    लगता है सब कुछ आखों के सामने चित्रपट की तरह घूम गया.

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  33. बहुत अच्छा लगा ये संस्मरण । आप भाग्यशाली है जो आपको परसाई जी के हाथों पुरस्कार भी प्राप्त हुआ और उनका सानिध्य भी ।

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  34. परसाई जी के बारे में आपके संस्मरण और विचार बहुत बढ़िया लगे...आभार

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  35. परसाई जी के बारे में आपके संस्मरण और विचार बहुत बढ़िया लगे...आभार

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  36. बहुत प्यारा संस्मरण.....

    अब जाना आपके उत्कृष्ट लेखन का राज़...

    सांझा करने का शुक्रिया...
    सादर
    अनु

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  37. परसाई जी को पढ़ना अच्‍छा लगा ..रोचक संस्मरण,. आभार

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  38. वाह बहुत किस्मत वाले हैं आप तो ....यह संस्मरण याद रहेगा ..आपने जिस तरह उन यादों को इस लेख में संजोया है वह याद रहेंगी ..लिखना वाकई बहुत जरुरी है परसाईजी की यह बात बहुत बढ़िया लगी ..

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  39. ई शुकुल की सलाह पर अमल किजियेगा त क्या होबे करेगा? जानित हैं?

    चच्चा की सब बच्चा लोगन को टिप टिप।

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  40. बेनामी7/01/2012 03:22:00 am

    बहुत खूब

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  41. jee bhar aaya padhkar.. khushnaseeb rahe aap jo unka saanidhya mila.

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  42. आज आप आनन्‍द ले रहे हैं। शायद यह भी उन्‍हें एक सच्‍ची श्रद्धांजलि नहीं है।


    एक महान व्‍यक्तित्‍व का आपको सानिध्‍य मिला और अब स्‍मृतियां।

    कीमती हैं...

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  43. छा गये गुरु
    वैसे दादा परसाई की शक्कर वाली गोली बंदे को भी नसीब हुई थी. शिखर वार्ता के लिये जब परसाई जी से इंटरव्यू लेने जब हम गये तब वे गंभीर रूप से बीमार हो चुके थे. सो बस हम दर्शन करके लौट आए.
    अरे हां यह आलेख यश भारत ने छापा भी है.. यहां
    http://yashbharat.com/city_page/79_08PG-07.pdf
    देख लैने पाबला जी खों लिंक भेजी हथी मनौ छपी सी नईंयां कोऊ बात नई उतई जाखैं पढ़ लौ....

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