मंगलवार, अप्रैल 24, 2012

सेन फ्रेन्सिसको से कविता...

एक सप्ताह गुजर चुका है सेन फ्रेन्सिसको आये. एक सप्ताह होटल में और रहना है फिर एक किराये का अपार्टमेन्ट ले लिया है, उसमें शिफ्ट हो जायेंगे. नजदीक ही है. ३० मिनट लगेंगे दफ्तर पहुँचने में. यूँ कर शायद ६ माह गुजारना हो यहाँ कि कौन जाने- शायद और ज्यादा. एक साल-हम्म!! जितना किस्मत में यहाँ रहना बदा होगा- रहेंगे. टोरंटो तो लौटना है ही. घर मकान वहीं है. सो तो भारत में भी है- तो वाया टोरेंटो- उम्र के पड़ाव निर्धारित करेंगे यह सब कि कब और कहाँ.
फिलहाल इस एतिहासिक शहर सेन फ्रेन्सिसको से लिखी और फेस बुक पर इस बीच मेरे द्वारा चढ़ा दी गई कुछ पंक्तियाँ – चाहें तो ३ कवितायें कह लें...अभिव्यक्ति...अनुभूति...विचार...भाव!!! आपकी इच्छा- हम तो छाप ही रहे हैं.
आगे कभी आपको इस शहर की गलियाँ, सड़कें और तापमान के साथ इसका चेहरा और व्यवहार पढ़वायेंगे. फिलहाल तो यह पढ़ें:
gcBridge
--१—
वो पूछता है मुझसे
मिरा हाल और के
मैं हूँ कहाँ- इन दिनों
इस रोज!!
क्या कह पाता –
सो लिखा.. मौन
क्या हाल किसी दीवाने का
और क्या पता किसी बंजारे का...
जो कि समझ सको - तुम हे ज्ञानी
हम रमता जोगी औ’ बहता पानी!!

--२—
वो तोड़ती पत्थर...
देखा उसे मैने
इलाहाबाद के पथ पर
वो तोड़ती पत्थर...
दो बूँद पसीना....
सुखा पाने की कोशिश
घूप दिखा ..
ज्यूँ सूखता हो चद्दर...
देखा उसे मैने
इलाहाबाद के पथ पर
ज्यूँ सूखता हो चद्दर...
बदल गये युग......
मात्र कुछ पलों में...
निराला गुजरे..
हुए छिन्न तार...
लुटी इस्मत...
वो पहने था खद्दर...
देखा उसे मैने
इलाहाबाद के पथ पर....
वो पहने था खद्दर...

(आदरणीय निराला जी की रचना से प्रेरित और उनको नमन करते हुए आभारी)
(गुरुदेव राकेश खण्डेलवाल का सुझाव अमल करते हुए निराला जी से क्षमायाचना की जगह उपरोक्त कथन)

--३--
हूँ......न!!
क्या?
एक नई कविता..
वाह!!
खुद बुनी??
हूँ..सहारा उन बिम्बों का...
जो “न” कहे गये हैं
इस्तेमाल को समाज में...
समाज...अपरिभाषित...
हमेशा की तरह...
एक उहापोह..कोई जबाब...
फिर भी...हूँ..
ह्म्म!!.............लोग वाह कहते हैं..
लोग उफन भी जाते हैं...ह्म्म!!
फायदा कहीं...वाह! आह!
जो हासिल इक मंजिल
मात्र ऐसे कि कोई कहे...
वाह!! आह!!
एक नई कविता..
एक उलझी कविता..
एक अनसुलझी कविता..
ताकतवर,,,,बोल्ड अंग्रेजी में..
बोल्ड...या क्लीन बोल्ड हिन्दी में...
भाषा का तमाशा!!
एक नई कविता..
नई या पुरानी..
हू केयर्स!!
डैम!!!
-समीर लाल ’समीर’

सोमवार, अप्रैल 02, 2012

शान्ताराम-एक नज़र!!

फरवरी १४, तब मैने लिखा था कि शायद १७०० पन्नों की ई बुक शान्ताराम की शुरुवात ही है- वाकई ९८८ पन्नों की पुस्तक- परन्तु ईबुक में पन्ने बढ़ जाते हैं. आज १ अप्रेल- खत्म हुई पुस्तक. मानो एक युग का अन्त हुआ. यह ४५ दिन- सुबह शाम ४५-४५ मिनट इस पुस्तक का अध्ययन चलता रहा- सप्ताहंत छोड़ कर. बस और ट्रेन में-ऑफिस जाते और आते वक्त. आस पास का कुछ ध्यान न रहता. बस, पुस्तक में मन रचा बसा रहता. लेखन की महारत ऐसी, कि लगे पुस्तक के साथ उसी जगह खड़े हैं, जहाँ घटना घट रही है. कभी कहानी में गोली चलती, तो इतनी जीवंत कि मैं कँधा किनारे कर लेता गोली से बचने के लिए. एक एक महक- एक एक दृष्य़ जीवंत- अंत तक.

कहानी का नायक लिनबाबा उर्फ शान्ताराम, उसका आस्ट्रेलिया से जेल तोड़कर भारत का सफर, प्रभाकर नामक एक भले टूरिस्ट गाईड बालक के साथ मुलाकात, मुम्बई में आजीविका के लिए गैरकानूनी कामों में जुड़ना, महाराष्ट्र में प्रभाकर के गांव की ६ माह की यात्रा, पुनः मुम्बई वापसी, दोस्तों की मण्डली, झोपड़पट्टी में जाकर रहना, वहाँ के गरीबों के लिए क्लिनिक चलाना, मुम्बई के गैंगस्टरों से जुड़ना, उनके साथ काम करना, आर्थर रोड़ जेल की यात्रा और यातना, कालरा नामक गर्लफ्रेण्ड का बनना, मैडेम जाहू के चुंगल से कालरा के कहने पर लीसा को वेश्यावृति से उबाराना, लीसा का दोस्त बन जाना और फिर फिल्मों में विदेशी एक्स्ट्रा स्पलाई करने में उसके साथ पार्टनरशीप, मुम्बई के माफिया डॉन का खास हो जाना, उसके साथ पासपोर्ट, करेन्सी का धन्धा, ड्रग्स में डूब जाना और फिर उबरना, अफगानिस्तान में पाकिस्तान के रास्ते मुजाहिद्दुन लड़ाकों को मुम्बई माफिया डॉन के साथ अस्त्र शस्त्र पहुँचाना, दोस्तों के मर्डर और मौतें, खून खाराबा, लड़ाई झगड़े, दिल से जुड़ते बेनामी रिश्ते, कुछ रिश्तों को वो नाम देना जिनसे पहले किनारा कर आया, क्रिमन्लस की जिन्दगी के अनेक पहलूओं पर नजर डालती पुस्तक पूरे समय अपने साथ बाँधे रखती है. पुस्तक में रोमांच है, रोमान्स है, एक्शन, स्टंट, क्राईम से लेकर धर्म, दर्शन, अध्यात्म सब कुछ है.

फिर भी न जाने क्यूँ-अंत तक पहुँचते हुए ऐसा लगता है कि युवाओं को जो जिन्दगी की लड़ाई की शुरुवात कर रहे हैं- उन्हें इस पुस्तक को नहीं पढ़ना चाहिये. मेरी यही व्यक्तिगत सोच है. शायद क्राईम की दुनिया का ग्लैमर किसी को भा ना जाये, यह डर लगता रहा पुस्तक खत्म करके.

अंत भी ऐसा होता कि किए की सजा भुगत रहा हो तो भी बेहतर होता किन्तु अंत एक खुला छूट गया है इतनी बड़ी पुस्तक होने के बाद भी. अंत बहुत जल्दबाजी में समेटा गया लगा- अन्यथा एक पुस्तक का उद्देश्य कि समाज को कुछ अच्छा संदेश देकर जाये, वो अवश्य पूरा किया जा सकता था.

फिर भी लेखनशैली, व्याख्या, एक एक संदर्भ पर बगैर कौतोही बरते विस्तार से विवरण तो सीख लेने लायक है. तो मिलीजुली प्रतिक्रिया यही है कि इसे एक लेखक की दृष्टि से लेखन की सीख लेने के लिए अवश्य पढ़ना चाहिये किन्तु पुनः वही भय- कहीं कोई युवा इसके प्रभाव में बहक न जाये.

Shantaram

पुस्तक पढ़ते पढ़ते-उसमें जाने अनजानों से बनते जुड़ते रिश्तों को अहसासते कुछ पंक्तियाँ यूँ भी उभरी:

काश!! कोई दीमक

रिश्तों के अजनबीपन को

चाट पाती!!!..

अजनबीपन..

परिचय की ओट में

सिर छुपाये बैठा

और

उस अजनबीपन की नदिया

जिन पर बनते हैं

रिश्तों के पुल

बिलकुल

नदिया पर बने

पत्थर के पुल की तरह ..

टूट भी जाये

वो पुल...

या

तने रहें दृढ संकल्पित...

नदिया बहती रहती है

अपनी धुन में...

कल कल- छल छल!!!

जैसे कोई भी रिश्ता

अविरल..

अविचल..

और निश्छल.....

-समीर लाल ’समीर’