शनिवार, अक्तूबर 29, 2011

वाह रे, रथयात्री!!

अपना ही एक फेसबुक नोट सहेजने के लिहाज से यहाँ लेता आया:

जबलपुर से मिर्जापुर जाता मुझ सा आम आदमी राह में आने वाले रोड़े पता करके निकलता था कि कहाँ रोड खराब है...यहाँ तक कि मेरी ससुराल मिर्जापुर में गैरेज थोड़ा नीचा है इसलिए हाई हुड की मारुती वैन के बदले मारुती कार लेकर निकलते ताकि रिश्तेदारों से मुलाकात में विध्न न पड़े और परिवार समुचित दिशा में रिश्तों की सुड्रुढता बनाता चलता रहे सारे रिश्तों को हंसी खुशी निभाते.

और एक वो हैं जो देश चलाने का वादा करते हैं और उसे सही दिशा में दूर तक ले जाने का वादा करते हैं, उनकी हालत देख कर रोना आता है कि अपना रथ तक ले जाना प्लान न कर पाये. न जाने कैसे सलाहकार हैं इनके कि कुछ हजार किलोमीटर की रथ यात्रा का मार्ग भी न भाँप पाये...और पटना में १२.९’ ऊँचे रथ को १२ फुट ऊँचे पुल के नीचे से तोड़ फोड़ कर किसी तरह से निकाल कर खुश हो लिए...हे प्रभु, देश इनके हाथ में न देना...वरना ऐसी तोड़ फोड़ रथ तो बर्दाश्त कर गया, गैरेज में रफू लग कर जुड़ भी गया किसी तरह मगर देश तो गैरेज में रिपेयर नहीं होता..उसका क्या होगा???

अनजान दुविधायें तो सफर का हिस्सा होती ही हैं मगर जिसका पता किया जा सके, उससे तो बचा ही जा सकता है..............

१२.९’ ऊँचा रथ बना है ६ फुट से कम ऊँचें आदमी के लिए जो चाहे जो भी कर ले तो १२.९’ ऊँचा तो कूद कर भी नही छू सकता मगर आज शायद अपनी प्रतिष्ठा का कद नापने का यही तरीका बच रहा है इनके पास...बाकी तो क्या नपवायें ये??

rath

और पिछले दिनों दीपावली का तरही मुशायरा हुआ, उसमें प्रस्तुत गुरुदेव पंकज सुबीर जी का आशीर्वाद प्राप्त मेरी गज़ल:

तेरी मुस्‍कान से खिले हर सू
दीप खुशियों के जल उठे हर सू

आग नफ़रत की  दूर हो दिल से
है दुआ ये अमन रहे हर सू

बूंद से ही बना समंदर है
अब्र ये सोच कर उड़े हर सू

नाम तेरा लिया है जब भी तो
कोई खुश्‍बू बहे, बहे हर सू

था चला यूं ’समीर’ तन्‍हा ही
लोग अपनों से पर मिले हर सू

-समीर लाल ’समीर’

शुक्रवार, अक्तूबर 14, 2011

ऋतुपर्णा !! मैं बुद्ध हो जाना चाहता हूँ ..

जिस सुबह तुम मुझसे मिलने आने वाली  होगी, उस रात मैं साधु हो तपस्या करने त्रिवेणी पार्क के उसी पेड़ के नीचे बैठूँगा, जिसके नीचे बैठ हमने तुमने कितनी ही शामें गुजारी थी.

मैं सारी रात आँख मूँद कर जागूँगा. तुम ऋतुपर्णा बन कर आना. मैं आँख खोलूँगा, तुम सामने होगी. मैं बुद्ध हो जाऊँगा.

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तुम्हारे चेहरे पर एक अजीब  भाव होगा - तुम पूछोगी कि यह ऋतुपर्णा कौन है?

ऋतुपर्णा !! 

मेरी कहानी की नायिका- उस कहानी की जो कभी लिखी नहीं गई. एक समुद्र सी मेरे भीतर समाई है, जेहन की किसी गहराई तक 

मुझे नहीं लगता कि मैं कभी लिख पाऊँगा उस कहानी को. कुछ पानी के बुलबुले उकेर भी दूँ तो भी समुद्र तो उतना ही बाकी बच रहेगा. क्या फायदा कुछ छींटें उड़ेलने से भी.

ऋतुपर्णा !! 

देखा तो कभी नहीं उसे मगर उसके बालों की खुशबू- उसके बदन की मोहक गंध नथुनों में समाई रहती है हर वक्त. गुलाब की महक मैं नहीं जानता . बस एक गंध- उन बालों की, एक महक-उस बदन की. इतना ही है मेरे लिए खुशबू का संसार.

ऋतुपर्णा !!

देखा तो कभी नहीं उसे मगर पहचानता हूँ उसकी मुस्कराहट को, उसके चमकते चेहरे को. अहसास है मुझे उसके स्पर्श का. एक कोमल स्पर्श. 

ऋतुपर्णा !! 

सब कुछ वैसा ही जैसी की तुम. एक अंतर बस आवाज का. 

ऋतुपर्णा !! 

सुना तो कभी नहीं उसे - बस आवाज पहचानता हूँ. आवाज कुछ बैठी हुई सी.

याद है जब तुम अपनी सहेली की शादी में रात भर मंगलगान गाती रही थी और सुबह तुम्हारी आवाज बैठ गई थी- वही- हाँ बिल्कुल वैसी ही है ऋतुपर्णा की आवाज. मुझे बहुत भाती है. शायद मोहब्बत का तकाजा हो कि प्रेमिका के ऐब भी ऐब न होकर रिझाने लगते हैं.

तुम यूँ करना कि उस रात भी रात भर मंगलगान गाना, जब मैं तपस्या करने बैठूँगा. पावन मौके पर यूँ भी मंगलगान की प्रथा रही है.

जब सुबह तुम आओगी और मुझे पुकारोगी- तो वही आवाज होगी ऋतुपर्णा की...

मैं मुस्कराते हुए आँख खोलूँगा और बुद्ध हो जाऊँगा...

तुम उलझन में पूछोगी कि बुद्ध कैसे हो जाओगे? बुद्ध को तो बोध की प्राप्ति हुई थी.

मैं कहूँगा - बोध?

बोध का अर्थ जानती हो?

उस रोज मैने तुम्हें एक बौद्ध मठ से कुछ किताबों के साथ निकलते देखा. आवाज लगाना चाहता था मगर तब तक तुम ...शायद बहुत देर से वो वहीं कार में बैठा तुम्हारा इन्तजार कर रहा था....

तुम निकल गई अपने पति के साथ कार में बैठ कर तेजी से

मैं आँख मूँदें जाग रहा हूँ न जाने क्यूँ तब से.और मैं.....

मैं बुद्ध हो जाना चाहता हूँ .. 

एक मुद्दत हुई
कि
जागते हुए
सोया हूँ मैं...
जाने किन ख्यालों में
खोया हूँ मैं...

-कुछ बातें अहसास की- लिखी नहीं जाती.

-समीर लाल ’समीर’