रविवार, सितंबर 25, 2011

पावन मकड़जाल ....

पढ़ता हूँ कुछ साहित्यिक पुरस्कार प्राप्त कहानियाँ और कवितायें नये जमाने की और सोचता हूँ:

शब्द शब्द जोड़
कुछ ऐसा सजाऊँ
जैसे काढ़ी हो सलीके से
कुछ बूटियाँ
और तैयार कर....

एक जामा
पहना दूँ अपनी कविता को...
इस खूबसूरती से
कि निखर जाए उसका रूप सौन्दर्य भी
उकेर दूँ उसके अंग अंग...

उसकी निश्चेत
फेन्टिसीज को उभारती हुई..

शायद
जीत लूँ
एक ईनाम मैं भी
साहित्य के इस तथाकथित
पावन मकड़जाल में....

-समीर लाल ’समीर’

writing

मैं पूछता उस अंधेरी रात में बिस्तर पर लेटे अंधेरे में छत को ताकते तुमसे:

’कोई गाना सुनोगी?’

तुम कहती

’क्या तुम गाओगे अपना गीत?’

मैं कहता...

’न, मैं थका हूँ.. सी डी लगा देता हूँ...फरीदा गा देगी.. दिल जलाने की बात करते हो...आशियाने की बात करते हो..’

तुम कहती...

-हूंह्ह...फिर आगे से ऐसी बात न छेड़ना...जो तुम न कर पाओ...बस, सो जाओ...अब...’

मैं सोचता हूँ....

’अब बात क्या छेडूँ???’

मौन की न जाने क्या ताकत है...अब जानूँगा मैं!!!

feri

फेरीवाले की
इकतारे की धुन..
और
बचपन
भाग निकलता था गलियों में....

उस धुन को बजा लेने की कोशिश में
न जाने कितने दीपक फोड़े हैं मैने
न जाने कितने ख्वाब जोड़े हैं मैने

लेकिन
मन है कि
मानता नहीं!!
और
वो फेरीवाला...
ये बात
जानता ही नहीं...

-समीर लाल ’समीर’

woman_crying

जिंदगी की आंधी में
फड़फड़ाते भावों के पन्ने
शब्दों की कलम में
आँसूओं की स्याही..
कुछ खास रच जाने को है..
एक आत्म कथा..
एक कविता...
या
नज़्म पुकारेंगे लोग उसे...
तुम-
चुप रह जाना..
बिना कुछ कहे..
सब सह जाना...

-समीर लाल ’समीर’

(फेसबुक पर बिखेरे टुकड़े सहेजते हुए)

मंगलवार, सितंबर 13, 2011

एक कहानी जिसे शब्द नहीं मिले...

रेल की पांतों पर धड़धड़ाती हुई सी आई एक धुंध चीरती हुई खामोशियों की और मुझमें समा गई एक कहानी बन कर,जिसे मैं कोई शब्द न दे सका चाह कर भी. ...
मेरी कविता बन जाने की अभिलाषा को कितनी ही बार मैने कहानियों में उकेरा है. इतना सजीव चित्रण कि गद्य भी पद्य होने का भ्रम पैदा कर देने में सक्षम. मगर तुम, जो कि समाई हो मेरे भीतर.....क्यूँ नहीं उतर पाती कागज पर.
भावों को शब्द रुप देने की कला ही तो एक ऐसी कला है जो मैं समझता था कि मुझे आती है. परन्तु मैं गलत था..... हार गई मेरी यह एक मात्र योग्यता भी......... कलाकार होने की.
साधारण इन्सानों की तरह मैं जी नहीं पाता. सांस इन्कार करती है लौटने को. दम घुटता है मेरा--भीड़ का हिस्सा बनकर. एक विशिष्ट मुकाम होने की चाहत अलग-थलग कर देती है मुझे, हर उस चीज से जिसमें तनिक भी जुड़ाव की क्षमता हो.

याद है चाहतों के बदलते रंग??? बदलते वक्त के साथ. चाहा था कि अगर वक्त थम नहीं सकता तो कम से कम कुछ सुस्त कदम मेरे आंगन में ही ले ले. .....तब चाहता था कि झील हो जाऊँ. तब तुम साथ होती थी. एक सौम्य ठहराव की दरकार....... मन भावन खामोशी के बीच चन्द पत्ते साज बनते देखे थे. पेड़ हो जाने की इच्छा बस इसी साज की धुन तोड़ती आई.

पेड़ बहुत उदास देखे हैं मैने
पत्ते हो गये साज देखे हैं मैने
जिन्दगी की बुझती नहीं प्यास
जाने कैसे ज़ज्बात देखे हैं मैने.

गंगा जी में स्नान कर नदी बन जाने के बदले रामायण बन जाने का ख्वाब पाल बैठा. तुम्हें निहारते जाने कब पन्ने पन्ने बिखर गई पूरी पुस्तक. धार्मिक पुस्तकों का इस तरह उधड़ कर बिखर जाना, उड़ जाना, बह जाना- दादी कहती थी अपशगुन होता है. दादी की बात ख्याल आई जब तुम्हें खोया. सोचता रहा कि क्यूँ बन बैठा रामायण-सपने में ही सही.
धर्म तो प्रेम पर आकर रुक जाता है. मोहब्बत सिलेबस के बाहर की बात है..पुस्तक को तो बिखरना ही था.

Lake2

झरना बन कर ऊँचाई से गिरना और नदी में समा जाना कभी मन को भाया नहीं तो पहाड़ बना और फिसलता हुआ आ गिरा उसी की तलहटी में. एक गहरी अँधेरी खाई. कुछ सुझाई नहीं देता यहाँ तक कि पहाड़ भी नहीं. ऐसा क्या बन जाने की कोशिश कि खुद को ही न देख पाये.

दम तोड़ते एक के बाद एक चाहतों के सिलसिले. कभी आईना बन खुद को झाँका खुद में. एक नफरत के भाव उभरे जो बदले दयनीयता में हालात का अक्स ओह!! इतना दयनीय.....तोड़ दिया खुद ही खुद को..आईना चकनाचूर हो फर्श पर फैल गया. हर तरफ आईने ही आईने बच रहे.बाँधने वाला कोई नहीं.

गुलाब बनता मगर कांटों की चुभन से गुरेज. यूँ नहीं कि मेरे जेहन में कांटें नहीं मगर वो किसी को मेरे पास आने से रोकते नहीं. किसी को लहुलुहान नहीं करते. वो उगे हैं भीतर की ओर..आज जब तुम आकर समा गई और उतरती नहीं कहानी बनकर शब्दों में तो सहम सा गया हूँ मैं कि कहीं तुम घायल तो नहीं..कहीं उन कांटो ने तुम्हें लहुलुहान तो नहीं कर दिया.

आंसू उतर आये हैं यही सोच कर और लुढ़क गये उन पन्नों पर जिन पर उतरना था मेरे शब्दों को एक कहानी बन कर..तुम्हारी कहानी..जो मुझमें समाई है.

गुरुवार, सितंबर 08, 2011

जेड सिक्यूरिटी ले लिजिये न प्लीज़!!!!!

सर, आप जेड सिक्यूरिटी ले लिजिये.

नही !... हमे सिक्यूरिटी की कोई जरुरत है ही नहीं. हमारे साथ तो सारी जनता है. हम सरकार से जन लोकपाल बिल मांग रहे हैं, और आप हमें जेड सिक्यूरिटी दे रहे हैं? 

सर, ये तो आपको लेना ही पड़ेगा, आपकी जान को खतरा है, और आपकी जिन्दगी सरकार की जिम्मेदारी है।

मुझे...खतरा..वो भला किससे?

सबसे पहले तो आप को सबसे बड़ा खतरा खुद से है...न उम्र देखते हैं, न बॉडी. बस, चार जवानों के बहकावे में आकर भूखे बैठ गए हैं। वो सब तो खाते पीते रहते हैं,और आप...बस, अड़े हैं वन्दे मातरम, इन्कलाब-जिन्दाबाद करते. कभी कुछ ऊँच नीच हो जाये तब वो तो सरकार पर थोप कर अलग हो जायेंगे. निपटोगे आप और फ़ँसेगी ---बेचारी सरकार.

अरे भाई, हमारा क्या है? हम तो यहाँ भी मंदिर में सोये हैं पंखे में..और वहाँ तो चैम्बर  मिल गया था और बढि़या कूलर वगैरह लगा था,तो नींद भी ठीक से आ-जा रही थी. वो भी कह रहे थे कि एक दो दिन में सब सेट हो जायेगा फिर बढ़िया खाना खा लिजियेगा, तो रुके रहे. एक बार तो लगा भी था कि -सरकार और उनके चक्कर में हम पिस गये..१३ दिन निकल गये. मगर कम से कम यह बढ़िया रहा कि इस बहाने पूरा मेडिकल चैक अप- टॉप डॉक्टरों से और टॉप के अस्पताल में हो गया. शानदार गद्दे वाले बिस्तर पर तीन दिन सोये अनशन के बाद. अब कम से कम हेल्थ की तरफ से कुछ दिनों तक कोई टेंशन नहीं. ये तो पता ही था कि- उस समय कोई तो क्या अगर मैं खुद भी मरना चाहता  तो भी वेदांता अस्पताल के डॉक्टर मुझे मरने न देते. 

एक रात जब स्वास्थय को लेकर थोड़ा डाऊट था, तो पुलिस ने डिसाईड कर ही लिया था कि उठवा कर ग्लूकोज लगवा देंगे तो एक प्रकार से चिन्ता मुक्त ही था. ऐसे में मुझे जेड सिक्यूरिटी की क्या जरुरत?

देखिये अन्ना जी, आप समझ नहीं रहे, पिछले दिनों भी आपसे मिलने वाले छलनी होकर ही मिल रहे थे. जिन्हें आपके वो चार स्तंभ चाहते थे वो ही आपसे मिल सकते थे. तब जेड सिक्यूरिटी जैसा काम वो संभाले थे. अब उनका नाम और काम हो गया, वो अपने रास्ते पर चले गये हैं. फिर जब जरुरत पड़ेगी, तब फिर आवेंगे आपके पास. अभी उनको आपकी मेन टेंशन नहीं है, इसलिए सरकार को चिन्ता करनी पड़ रही है. सरकार तो आपका आभार भी कह चुकी है. प्लीज, ले लिजिये न जेड सिक्यूरिटी...ऐसी भी क्या नाराज़गी है सरकार से ...आखिर आपकी सो कॉल्ड जनता ने ही तो सरकार चुनी है...जब जनता आपकी है तो सरकार भी तो आपकी ही कहलाई..कभी हल्का मनमुटाव आपसी वालों में तो होता है, अब भूल भी जाईये उसे..ले लिजिये न प्लीज़ जेड सिक्यूरिटी. देखिये, मना मत करियेगा.

चलिये, अब आप इतनी चिन्ता जता रहे हैं, संबंधों की दुहाई दे रहे हैं तो आपका मान रख लेता हूँ. मगर पब्लिक को क्या कहूँगा कि तुम्हारा अपना मैं, तुम्हारे और मेरे बीच ऐसा बाड़ा क्यूँ बाँध रहा हूँ?

सर, आप अपनी शर्तें डाल दिजिये इस जेड सिक्यूरिटी को लेने में...

व्हाट एन आईडिया सर जी...आप तो मेरे भी अन्ना निकले ! !  तो ऐसा करो..जेड सिक्यूरिटी तो दो मगर सादी वेषभूशा में ----हैं भी है और नहीं भी. पब्लिक को पता भी न चले और मिल भी नहीं सकती. सादी वेशभूषा में ए के ४७ धारक.. सर्फ एक्सल की तरह काम भी बन जायेगा और वजह...बस ढूँढते रह जाओगे. यह बोलते वक्त न चाहते हुए भी जाने कैसे उनकी एक आँख चंचलता में दब ही गई और सुबह का समय था तो पोहा और केला खाने लगे.

बात आगे बढ़ाते हुए बोले कि एक बात ध्यान रखना कि जेड सिक्यूरिटी ले तो रहा हूँ मगर सिर्फ इतनी खबर और कर दो सरकार को...

क्या हुजूर..फरमायें?

देखो, अगले अनशन के लिए ऑफर लाल बत्ती की गाड़ी का चाहिए मगर कण्डीशन ये- कि उसमें लाल बत्ती न हो...आँख को दबाते वे बोले

हो जायेगा सर..

और उसके बाद वाले में दिल्ली में एक सरकारी बंगला..एयर कन्डिशन्ड...मगर स्प्लिट एसी..जो बाहर से न दिखें...

हो जायेगा, सर...

और फिर केबीनेट मिनिस्टर का दर्जा...मगर मैं कैबिनिट मिनिस्टर नहीं बनूँगा...

ठीक है सर...

और मंत्री वाली तनख्वाह  और भत्ते भी...

वैसे ये अलग से बताने की जरूरत नहीं ये तो खैर दर्जे के साथ पैकेज डील में आयेगा ही... है न!!

और मुझे लोकपाल का पद....

चलिये, इस पर भी विचार कर लेंगे...आखिर कितने साल के लिए देना ही होगा ये पद आपको 

क्यूँ...

सर, आप ७४ साल के हो चले हैं....तो ऐसे ही पूछ लिया ...

मगर जेड सिक्यूरिटी का फिर क्या फायदा?

सॉरी सर ...चलिए इस पर कमेटी बैठा देते हैं कि लोकपाल किस तरह नियुक्त किया जा सकता है... 

ओके,...और मेरे लिए भोजन के लिए खानसामा मेरे गाँव से, वो ही दिल्ली जायेगी जो पिछले ३० साल से मेरा खाना बना रही है....

मगर सर, वैसा खाना तो कोई भी बना देगा ...एकदम सादा है....

नहीं ! ! कोई भी कैसे बना सकता है ??और फ़िर  मुझे उसी के हाथ का खाना है..मेरी जिद्द...

सर, आप जिद्द बहुत करते हैं...चलिए कोशिश करेंगे वो भी हो जाए. 
वैसे .....आपकी डाईट तो आजकल दुबले होने की ख्वाहिश लिए युवाओं में अन्ना डाईट के नाम से पापुलर हो रही है...आपकी डाईट ने तो वाईब्रेशन क्रिएट कर दिया है फिटनेस फ्रीक्स में::

अन्ना डाईट...

सुबह एक कटोरी पोहा, दो केला
दोपहर में दो सूखी रोटी, एक कटोरी दाल, एक कम मसाले की हरी सब्जी
रात ७ बजे एक ग्लास फ्रेश फ्रूट ज्यूस....

बस!!!! 
अब आखिरी...

अब क्या?

एक इन्फोर्मेशन और निकलवा कर रख लेना बस, यूँ ही देखने के लिए चाहिये...

क्या?

ये स्विस बैंक में एकाऊन्ट कैसे खुलता है?

आप भी बहुत मजाकिया हैं सर जी...

हा हा!! चलो, कल से जेड सिक्यूरिटी भेज दो!!

ओके सर

याद आता है बचपन में बुजुर्गों से मिली नसीहत कि नशेड़ी पैदा नशेड़ी नहीं होते. शुरु में कोई मित्र हल्की सी चखवा देता है...फिर धीरे धीरे आदत लग जाती है. फिर उसके बिना रहा नहीं जाता. मात्रा भी बढ़ती जाती है और लो, बन गये नशेड़ी. अब वो उनकों ढूँढेगा, जहाँ से नशा मिल जाये...बस!!! और फिर सुविधाओं और पावर से बड़ा नशा और कौन सा?

drug-addiction

ये भी याद है कि पहले पंखा लगा मिल जाये तो अच्छी खासी गरमी में भी सुकून से सो लेते थे और अब हालत यह है कि ए सी न मिले तो कुलर में भी रात करवट बदलते ही गुजरती है. यह सुविधाओं की प्रवृति है, जकड़ लेना उसका स्वभाव!!

आज डा.अंजना संधीर की कविता, अमरीका सुविधायें देकर हड्डियों में समा जाता है, की याद भी अनायास ही हो आई.

डा.अंजना संधीर की कविता का अंश:
............
............
इसीलिए कहता हूँ कि
तुम नए हो,
अमरीका जब साँसों में बसने लगे,
तुम उड़ने लगो, तो सात समुंदर पार
अपनों के चेहरे याद रखना।
जब स्वाद में बसने लगे अमरीका,
तब अपने घर के खाने और माँ की रसोई याद करना ।
सुविधाओं में असुविधाएँ याद रखना।
यहीं से जाग जाना.....
संस्कृति की मशाल जलाए रखना
अमरीका को हड्डियों में मत बसने देना ।
अमरीका सुविधाएँ देकर हड्डियों में जम जाता है!

रविवार, सितंबर 04, 2011

यह नम्बर अब सेवा में नहीं है

कादम्बिनी के सितम्बर, २०११ में प्रकाशित मेरी कहानी:

kadimbini

मधु और आरती- दो जिस्म मगर एक जान हैं हम, को चरितार्थ करती बचपन की सहेलियाँ.

शायद ही सिटी इंजीनियरिंग  कॉलेज के केम्पस में कभी किसी ने दोनों को अलग अलग देखा हो. हॉस्टल से साथ निकलना, क्लास, लायब्रेरी में दिन भर साथ रहना, बाजार भी साथ-साथ और शाम को हॉस्टल भी साथ ही लौटना. डबल शेयरिंग वाले  कमरे में रह्ती भी दोनों साथ साथ. सहेलियाँ उन्हें जब भी खोजती या उनके बारे में बात भी करतीं, तो एक का नाम न लेतीं- हमेशा पूछा करतीं कि-- मधु-आरती नहीं दिख रहीं? 

इंजीनियरिंग के अंतिम साल में हॉस्टल की बजाय कैम्पस के बाहर कमरा लेकर रहना होता था, तब भी दोनों ने मिल कर किराये पर एक कमरा लिया. ऐसा नही कि उनमे या उनके स्वभाव में समानता ही थी दोनों में अंतर भी बहुत था. मधु घरेलु स्वभाव की लड़की थी. पढ़ाई के अलावा कमरा सजाना, साफ सफाई करना, मशीन में कपड़े धोना, इस्त्री करना, तरह-तरह का खाना बनाना आदि उसके शौक थे और वो यह सब बिना किसी शिकन के दोनों के लिए किया करती थी. वहीं आरती को पढ़ाई, किताबें, तरह-तरह की नई टेक्नालॉजी की बाते सीखते रहने की धुन थी. कैरियर ही उसके लिए सब कुछ था. मगर फिर भी दोनों में गाढ़ी दोस्ती थी.

इंजीनियरिंग खत्म हुई. कैम्पस इन्टरव्यू में ही आरती का सेलेक्शन एक मल्टी नेशनल के लिए हो गया था तो वह दिल्ली चली आई. मधु अपने शहर लौट गई और अपने घर पर रह कर ही उसी शहर में एक नौकरी करने लगी. शुर-शुरु में वादे के मुताबिक हर हफ्ते एक दूसरे को लम्बे लम्बे पत्र लिखती रहीं . दिन-दिन भर की गतिविधियों की जानकारी देती रहीं . धीरे-धीरे पत्रों की लम्बाई घटती गई और आवृति भी.

दोनों अपनी-अपनी जिन्दगियों में व्यस्त होती गई. मधु के घर वालों ने उसकी शादी तय कर दी. लड़का मुम्बई में मल्टी नेशनल में काम करता था. आरती को खबर की. उसे उसी दौरान कम्पनी की मीटिंग में सिंगापुर जाना था, तो वह शादी में नहीं आ पाई.

मधु शादी के बाद पति के साथ मुम्बई आ बसी. नई दुनिया,नए लोगो के बीच समय उड़ता गया. दो प्यारे-प्यारे बच्चे भी हो गये. 

उधर आरती अपना कैरियर आगे बढ़ाती रही. घर वालों ने अनेक रिश्ते दिखाये मगर उसे तो बस कैरियर की चिन्ता थी. सब ठुकराती चली गई. हर बार अम्मा उसे रिश्ता बताती तो यही कहती कि अभी उम्र ही क्या हुई है? अभी इन सब झंझटों मे मुझे नहीं पड़ना. अभी मुझे अपने कैरियर पर कन्सन्ट्रेट करने दो. माँ-बाप भी आखिर क्या कर सकते हैं?  हार कर और मन मार कर चुप हो गये. 

अपनी अपनी दुनिया की बसाहट. मधु अपने बच्चों को बड़ा करने में भूल भी गई कि वो भी इंजीनियर है. अब वो और उसकी दुनिया बस उसका पति और उसके बच्चे हैं. समय के साथ बच्चे अच्छे स्कूलों में जाने लगे और मधु घर परिवार में बेहद संतुष्ट और खुशमय जीवन बिताने लगी. इन्हीं सब में आरती से संपर्क भी नहीं रहा. 

अब आरती अपनी कम्पनी की नेशनल हेड हो गई थी. कैरियर के लिए जो सपने संजोये थे, वो पूरे होने लगे. माता जी दो बरस पहले बिटिया की शादी के सपने दिल में ही लिए गुजर गईं और फिर कुछ माह पूर्व पिता जी भी. मृत्यु के एक माह पूर्व पिता जी को दिल्ली बुलवा लिया था. इलाज कराया बड़े अस्पताल में किन्तु बुढ़ापे का क्या इलाज और कौन सी दवा. असल दवा, बेटी का परिवार देखना, तो मिली ही नहीं, बाकी दवा क्या असर करती.

अब आरती इस दुनिया में अकेली थी अपने जुनून के साथ. सोचा कि एक दिन अपने शहर जाकर पिता जी वाला मकान बेच आयेगी और यूँ भी दिल्ली में तो उसने मकान ले ही लिया है. हाल फिलहाल चाचाजी को कहकर उसे किराये पर चढ़वा दिया था.

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वक्त की रफ्तार कब रुकती है. उम्र भी बढ़ चली. दिन भर दफ्तर में बीत जाता और शाम जब घर लौटती तो एक खालीपन, एकाकीपन आ घेरता. शीशे में खुद को निहारती तो घबरा जाती कि एकाएक कितनी उम्र निकल गई. अब जब शादी के लिए रिश्ता लेकर आने वाला, शादी की याद दिलाने वाला भी कोई नहीं बचा तब उसे एक साथी की कमी महसूस होना शुरु हुई. 

सोचा करती कि क्या इस कैरियर के पीछे भाग कर उसने जो पाया वही जिन्दगी है या मधु ने कैरियर दरकिनार कर जो पति, बच्चों के साथ जो सुख पाया, वो जिन्दगी है. या शायद कोई तीसरा विकल्प हो जिसमें कैरियर तो हो मगर उसके लिए वो दीवानापन नहीं और उस कैरियर के साथ ही सही वक्त पर शादी, परिवार, बच्चे और इस सबके बीच सहज सामन्जस्य बैठाता खुशमय जीवन.
अब उसे मधु भी याद आ जाती कभी-कभी.लेकिन मधु से कोई सम्पर्क नहीं रहा. न फोन नम्बर, न पता. वो अपनी ही दुनिया में खुश और मगन थी.

एक दिन दफ्तर की एक मीटिंग में दूसरी कम्पनी से कुछ लोगों का आना हुआ. अजय भी उस टीम का सदस्य था. मीटिंग में काफी बातचीत हुई और शाम को जब निकलने लगी तो अजय ने उसे कॉफी पर चलने का निमंत्रण दे डाला. घर जाकर भी कोई काम तो था नहीं तो उसने उसका आमंत्रण स्वीकार कर लिया.

उस शाम देर तक कॉफी हाऊस में दोनों की बातें होती रहीं. अजय दिल्ली में ही एक बड़ी मल्टी नेशनल का हेड था, फिर एक दो मीटिंग और कॉफ़ी का निमंत्रण. आरती जल्दी ही उससे खुल गई. अजय से पता चला कि अजय की पत्नी शादी के एक साल बाद ही गुजर गई और तबसे उसे समय ही नहीं मिला कि फिर से शादी के बारे में सोचता. मगर उसने बताया कि अब उम्र के इस पड़ाव में उसे एक सच्चे साथी की जरुरत महसूस होने लगी है. घर पर खालीपन खाने दौड़ता है.

दोनों का दुख एक ही. जल्द ही करीब आ गये. अक्सर ही कभी लंच, कभी डिनर से होते हुए कब दोनों साथ ही कुल्लु मनाली भी छुट्टियाँ मना आये, पता ही नहीं चला. वक्त फिर पंख लगा कर उड़ने लगा. आरती को लगता कि जल्द ही अजय उससे शादी की बात करे. यूँ भी बचा क्या था शादी के लिए, सिर्फ एक औपचारिकता और मुहर.

अजय दफ्तर के काम से दो माह के लिए अमेरीका चला गया. आरती इस बीच अपने शहर जाकर पिता जी का घर भी बेच आई. मधु भी उसी शहर से थी तो किसी के माध्यम से उसका मुम्बई का फोन नम्बर और पता लेते आई. मधु का घर भी इन्हीं कुछ परिस्थियों में मधु के भाई ने बेच कर खुद को किसी और शहर में बसा लिया था.

दिल्ली लौटी, तब मधु को फोन लगाया. इतने साल बाद अपनी प्रिय सहेली की आवाज सुन कर मधु तो खुशी के मारे चीख ही पड़ी. बस, मधु की एक ही जिद्द कि तू जल्दी मुम्बई आ, तुझसे मिलना है. खूब बातें करनी हैं. बस, चली आ तुरंत.

अगले दिन ही ऑफिस के कार्य के सिलसिले में आरती को पूना जाना पड़ा. उसने तभी मन बना लिया कि हफ्ते भर की छुट्टी भी साथ ही ले लेती हूँ और पूना से ही मुम्बई जाकर मधु के साथ आराम से रहूँगी. खूब बात करुँगी और फिर वापस आऊँगी.

मधु को फोन पर सूचित कर दिया. पूना से काम खत्म कर शाम को ही टैक्सी से मधु के पास जाने के लिये निकल पड़ी. रास्ते में दो-दो बार मधु से बात हुई कि जल्दी आ, खाने पर हम सब तेरा इन्तजार कर रहे हैं.

दरवाजे पर मधु बाहर ही इन्तजार करते मिली. देखते ही लिपट गई. आसूँओं की अविरल धारा बह निकली. दोनों सहेलियाँ एक दूसरे से लिपटी देर तक रोती रही. टैक्सी वाले ने जब जाने के लिए आवाज दी तो तन्द्रा टूटी. दोनों मुस्कराईं टैक्सी वाले को विदा कर दोनों घर के भीतर आ गई. मधु ने दोनों बच्चों से मिलवाया.ये कहते हुए कि-  बस, कालेज जाने वाले हैं इस साल से,छोटे साहबजादे भी. 
तुम फ्रेश हो लो कहते हुए आरती को अन्दर बेडरूम में ले गई मधु. मेरे पति देव  भी आते ही होंगे, तीन दिन से बैंगलोर में थे टूर पर, बस, फ्लाईट आ गई है. एयरपोर्ट से रास्ते में ही है, अभी बताना शुरु ही किया था मधु ने कि दरवाजे पर घंटी बजी और उसके पति आ गये. मधु ने आरती को ड्राईंगरुम से आवाज देकर बुलाया और मिलवाया- ये हैं मेरे प्यारे पति, अजय!!!

आरती के तो पैरों तले से जैसे जमीन ही खिसक गई. अजय मधु का पति?? यहाँ मुम्बई में? वो तो अमेरीका गया हुआ था दो महिने के लिए.

अजय भी अवाक खड़ा था. आरती दोनों हाथ जोड़े नमस्ते की मुद्रा में सन्न!!!! उसे लगा कि वो मूर्छित हो कर गिर जायेगी और मधु, वो तो बस अपने बोलने में ही मस्त थी कि आजकल अजय भी तो अधिकतर दिल्ली में ही रहते हैं. कम्पनी का दिल्ली ऑफिस सेट अप कर रहे हैं. उस दिन जब तेरा फोन आया तो सोचा कि तुझे बताऊँ लेकिन तब अजय बैंगलोर गये थे और मै तुझे सरप्राईज देना चाहती थी.

किसी तरह आरती ने अपने आपको संभाला. अजय यह कह कर अंदर चला गया कि ’बहुत ज्यादा थक गया है. स्नैक्स बैंगलोर में ही खा चुका है. कुछ हैवी लग रहा है. शॉवर लेकर सोयेगा. सुबह उठ कर आराम से बातें करते हैं, कल मेरी छुट्टी भी है.’ 

मधु आरती के साथ ड्राईंगरुम में आ बैठी. आरती की हालत देख मधु ने उससे पूछा भी कि क्या बात है, तबीयत ठीक नहीं लग रही है क्या?

आरती सर दर्द का बहाना बना कर टाल गई. कब खाना लगा, बेमन से  कब खा लिया, आरती को कुछ पता ही नहीं लगा. एकाएक उसने मन ही मन कुछ तय किया और मधु से कहा कि यार, दफ्तर का एस एम एस आया है, मुझे तुरंत दिल्ली जाना होगा. कल सुबह सुबह कोई अर्जेन्ट मीटिंग आ गई है जिसे टाला नहीं जा सकता .मधु तो अजय की वजह से मल्टी नेशनल के सीनियर एक्जूकेटिव्स की कार्य प्रणाली से वाकिफ थी ही. उसने भी बहुत जिद नहीं की. टैक्सी को फोन कर दिया और देर रात की फ्लाईट ले आरती वापस दिल्ली आ गई. 

अगली सुबह ही दफ्तर जाकर आरती ने इस्तीफा दिया और एक ब्रोकर से बात कर घर जिस भाव में बिका, बिकवा दिया और निकल पड़ी एक अनजान शहर की ओर एक अनजान जिन्दगी बिताने. मधु का फोन नम्बर, पता, अजय का फोन नम्बर- ना सिर्फ उसने अपने फोन से बल्कि जेहन से भी मिटा दिया हमेशा हमेशा के लिए. 

आज वो कहाँ है, कोई नहीं जानता.

मधु के अनुसार- उसका फोन नम्बर कहता है- ’यह नम्बर अब सेवा में नहीं है.’

धुँध को चीरती रेल

धड़धड़ाती हुई

रुकती हैं प्लेटफॉर्म पर

उतरते हैं कुछ यात्री

चढ़ते हैं कुछ यात्री

मचती है अफरा तफरी

और फिर धीरे धीरे 

चल पड़ती है रेल

अपने पीछे छोड़ कर

एक सन्नाटा

खो जाती है 

उसी धुँध में...

-जीवन के कुछ और भेद जाने हैं मैने!!!!!!!

-समीर लाल ’समीर’