पिछले दिनों एक पोस्ट लिखी...दूरियाँ जो घंटों में नापी गई...फिर एडिनबरा, स्कॉटलैण्ड की यात्रा का वृतांत राजस्थान पत्रिका के इंदौर संस्करण से 9 अगस्त, 2011 में प्रकाशित हुआ....मगर थे दोनों इसी आलेख के भाग...हर जगह पूरा छपना संभव नहीं होता..अतः टुकड़े टुकड़े दिये गये...पूरा और अधिक विस्तार से अब पढ़ें:
विचार बना कि जब यॉर्क, यू.के. तक आ ही गये हैं तो दो दिनों के लिए ऐतिहासिक नगरी एडनबर्ग, स्कॉटलैंड भी हो आया जाया. इच्छा जाहिर करने पर सबसे पहले यह बताया गया कि इस शहर को लिखते एडनबर्ग हैं मगर कहते एडनबरा है. मान गये और सीख लिया एडनबरा बोलना, ठीक वैसे ही जैसे बचपन से स्कूल में मास्साब सिखाते रहे कि कनाडा की राजधानी ओटावा और कनाडा पहुँच कर पता चला कि उसे आटवा बुलाते हैं. अच्छा है कि हमारा नाम लिखते भी समीर लाल हैं और बुलाते भी समीर लाल है, नहीं तो एक समझाईश का काम और सर पर आ टपकता. बताया गया कि यॉर्क से ४ घंटे दूर है.
दंग हूँ इस नये फैशन पर जिसमें दूरियाँ घंटों में नापी जाने लगी हैं. वैसे है १६१ मील याने लगभग २५९ किमी.
खैर, कार में सवार हो एडनबरा पहुँच ही गये. ऑनलाईन बुक करते समय दो गेस्टहाऊस इस लिए रिजेक्ट कर दिये थे कि वो दूसरी मंजिल पर थे और तीस सीढ़ियाँ चढ़कर जाना (वहाँ गेस्टहाऊसेस घरों को बदल कर बनाये गये हैं अतः लिफ्ट नहीं होती) हमारी जैसी काया के संग अगर टाला जा सके तो ही बेहतर. जो गेस्ट हाऊस बुक किया था, वो था तो ग्राउन्ड फ्लोर से ही मगर उसमें बाहर से न हो कर अंदर से तीस सीढ़ियाँ चढ़कर दूसरे मंजिल पर कमरे थे. ग्राउन्ड फ्लोर पर रेस्त्रां और रिसेप्शन और प्रथम तल पर मालिक का घर. ले दे कर किसी तरफ हाँफते फुफकारते चढ़ ही गये तो शाम हो चली थी, अतः फिर उतरे नहीं कि अब कल सब घूमा जायेगा. खाना तो साथ था ही, वो ही पूड़ी, करेले की सब्जी और पुलाव. सच्चे भारतीय, फ्री की चाय कमरे में ही बना कर दो बार पी ली और भोजन कर के सो गये.
अर्थशास्त्र के पितामह कहे जाने वाले एडम स्मिथ का शहर, फोन के अविष्कारक ग्राहम बेल का शहर..सुबह नींद खुली तो मौसम कुछ ज्ञानी ज्ञानी सा होने का अहसास देता रहा. हवा का असर होगा. याद आई हरिद्वार की सुबह, अक्सर बहुत धार्मिकता का अहसास करा जाती थी.
खिड़की के बाहर दिखता ऊँचा टीलानुमा पहाड़ और उस पर ट्रेकिंग करते लोग. मुश्किल से ७ बजा होगा और कुछ लोग तो लगभग टीले की चोटी पर पहुँचने ही वाले थे. पता किया तो ज्ञात हुआ कि लगभग ३.३० घंटे लगते हैं ट्रेकिंग में मतलब जो टीले के उपर पहुँचने वाले हैं वो ३.३० बजे रात से लगे होंगे इस कार्य को अंजाम देने में. अब ये तो अपने अपने शौक और शरीर हैं, हमारा तो ऐसे शौकों और इनको पालने वाले प्राणियों को दूर से नमन. हमारी तरफ से दुआएँ है कि आप कभी भारत पधार कर माऊन्ट एवरेस्ट चढ़े, हमारा क्या ले लोगे. ट्रेकिंग का जायजा खिड़की से लेकर स्नान ध्यान से फुरसत हो नीचे रेस्त्रां में नाश्ता किया गया, कमरे के किराये में शामिल था सुबह का कान्टिनेन्टल नाश्ता, तो दबा कर के कर लिया ताकि लंच की जरुरत ही न पड़े (आपको पहले ही बता दिया था न कि सच्चा भारतीय हूँ)
गेस्ट हाऊस के सामने से ही बस चल रही थीं. पता करके डे पास ले लिया. अब जितनी बार दिन भर में मन करे, बस पकड़ो, बदलो और घूमो. बस ने एडनबरा के किले के नीचे वेवरली (Waverley) पुल पर लाकर उतार दिया. गजब का जमघट. लगातार आती जाती बसों का रेला. मात्र ५ लाख की आबादी वाला शहर, देखकर लगा मानो वो सारे ५ लाख तो इसी एरिया में घूम रहे हैं, घास पर जोड़ा बना बना कर लेटे, बैठे, आलिंगनबद्ध और तरह तरह की भाव भंगिमाओं मे सभी यहीं चले आयें है कि समीर लाल आ रहे हैं, एक झलक मिल जायेगी. पता चला कि जितनी आबादी है, उतने ही टूरिस्ट भी हर वक्त यहाँ इस शहर में मौजूद रहते हैं और इस शहर को विश्वपटल पर सैलानियों के बीच अपने उपन्यास से इतना प्रचलित करने वाला, जिनके १८१४ में लिखे एतिहासिक उपन्यास वेवरली के नाम पर इस पुल का नाम वेवरली रखा गया और उससे सटा हुआ एक बहुत बड़ा स्मारक और पार्क उन्हीं के नाम उनकी ऊँची मूर्ति के साथ बना हुआ है, सर वाल्टर स्कॉट. हालात यह कि उसके बाद उनके लिखे कई उपन्यास वेवरली सिरीज़ के नाम से जाने जाते रहे और उनके प्रचार के लिए हर उपन्यास पर लिखा जाता रहा कि ’बाई द ऑथर ऑफ वेवरली’. इस उपन्यास के चलते प्रिन्स रिजेन्ट जार्ज ने १८१५ में सर स्कॉट को अपने महल में भोज पर आमंत्रित किया क्यूँकि वो वेवरली के उपन्यासकार से मिलना चाहते थे. आज भी सारी टूरिस्ट बसों में गाईड भगवान का दर्जा देते हुए उनका नाम उदघोषित करते हैं कि टूरिस्ट के बीच इसे प्रचलित कर हमें रोजी रोटी मुहैया कराने वाला सर वाल्टर स्कॉट. मन में विचार आया कि उपन्यास का नाम वेवरली क्यूँ रखा तो पता चला कि जिस पैन से उन्होंने उपन्यास लिखी थी, वह स्कॉटलैण्ड की पैन बनाने वाली कम्पनी वेवरली के द्वारा निर्मित थी.
कभी सोचता हूँ कि काश!! देश की तो छोड़ो, मोहल्ले में भी अपने साथ ऐसा हो जाये और पुल की जगह पुलिया का ही नामकरण हो ले तो उसका नाम पड़ेगा ’देख लूँ तो चलूँ’ , हा हा!! नाम तो बुरा नहीं है और हो भी तो क्या, हमारा तो पहला उपन्यास यही है. वैसे वेवरली को आधार माना जाये तो मेरा उपन्यास तो पैन से लिखा ही नहीं गया, सीधे डेल कम्प्यूटर की बोर्ड से निकला तो उसका नाम पड़ता ’डेल’ और फिर सोचो, पुलिया का नाम ’डेल पुलिया’ कैसा लगता भला? और रही भोज आमंत्रण की बात, तो वो तो हमें ही इस काम को अंजाम तक पहुँचाने के लिए न जाने कितने लोगों को देना पड़ेगा.
सर वाल्टर स्कॉट के दर्शन कर के भीड़ भाड़ से कटते बचते चल पड़े किले की ओर. सामने ही दिख रहा था. सामने लेकिन उपर..पता चला कि २०० तो सीढ़ियाँ चढ़नी है और फिर पहाड़ के बीच से चढ़ाईदार सड़कों पर करीब ३ किलोमीटर चल कर. रास्ता सुनते सुनते ही गला सूख आया. विकल्प पता किये गये और एक टूरिस्ट पैकेज खरीद कर उसकी खुली छत वाली बस में सवार हो लिए. बड़ा आराम मिला और जानकारी तो इतनी सारी गाईड ने दी कि सब घुलमिल गई. हर बिल्डिंग का एक इतिहास, हर सड़क से लेकर पत्थर, नाले, पेड़, पौधे, पक्षी तक ऐतिहासिक. नेता के सारे साथी नेता. संगत की बात है. बस ने घुमाते फिराते रॉयल कैसल के मिख्य द्वार पर उतारा. थोड़ा ही चलना पड़ा मगर वो भी काफी था. किले की दीवार से बाद में झाँक कर वो जगह भी देखी, जहाँ से हम पैदल आने वाले थे. कलेजा मूँह में आ गया कि अगर पैदल उपर आने का निर्णय ले लिया होता तो शायद आधे रास्ते से ही बिल्कुल उपर निकल गये होते. सलाह है कि टूरिस्ट बस के पैसे खर्च करो, मजे से घूमो. जानकारी भी गाईड से मिलेगी, घूमेंगे भी ज्यादा और आराम भी रहेगा. कोई खास मंहगा भी नहीं है. कहीं भी उतरो, घूमो और आने वाली अगली टूरिस्ट बस पकड़ो. सुबह जो पास लिया था वो सिटी बस का होता है सिर्फ शहर घूमने को. टूरिस्ट स्पॉट की बस अलग होती है.
वैसे एडनबरा अपने सालाना ४ सप्ताह के उत्सव के लिए विख्यात है जो अगस्त के पहले सप्ताह से शुरु होता है. उस समय सैलानियों का हुजूम उमड़ पड़ता है. उमड़ा तो खैर हर वक्त रहता है, उस वक्त शायद और ज्यादा हो जाता हो. सालाना उत्सव कई सरकारी और गैर सरकारी उत्सवों को मिलाकर आयोजित किया जाता है जिसमें विशाल पर्फोर्मिंग आर्ट उत्सव, बुक फेस्टीवल, अंतर्राष्ट्रीय उत्सव, मिलेटरी टेटू उत्सव आदि शामिल रहते हैं. स्कॉटलैण्ड की पारम्परिक वेशभूषा में बैगपाईपर बजाते हुए खड़े लोग और उनके साथ सैलानी अपनी तस्वीर खिंचवाते हर जगह दिख जायेंगे.
किले के द्वार पर ही मिलेटरी टेटू उत्सव के लिए स्टेडियम की तैयारी चल रही थी. किले ऊँचाई पर बने होने के सिवाय कोई खास आकर्षित नहीं करता. जिसने भी भारत में राजस्थान, मैसूर, आगरा आदि के किले देखें हैं, उनके लिए यह किला खिलौना ही नजर आयेगा. इंगलैण्ड, स्कॉटलैण्ड आदि में तो खैर जो हो रॉयल ही होगा. खाना तक तो रॉयल डिनर करके खाते हैं, तो रॉयल के नाम पर इस किले को देखना और उस पर से वो रॉयल बेन्केट हॉल, जिसमें रॉयल डिनर आयोजित किये जाते थे, वो किसी वाय एम सी ए के डिनर हाल से ज्यादा न निकला. नाम है, तो घूमे, इतिहास सुना, किले के अंदर चैपल भी देखी जिसमें पहले रानी साहिबा रहती थी. आजकल आप उसे बुक करके उसमें अपनी शादी करवा सकते हैं. फायदा ये है कि एक तो रॉयल चैपल में ब्याहे जाने की प्रमाणपत्र मिलेगा और गेस्ट लिस्ट छोटी सी रहेगी क्यूँकि उसमें कुल जमा २० मेहमानों की ही जगह है तो उससे ज्यादा क्या बुलवा लोगे.
वहाँ से थक कर निकले, तो सामने ही स्कॉच टेस्टिंग का सेंटर था. एक दो छोटे छोटे शॉट टेस्ट किये और एक बोतल खरीद भी ली. स्कॉच के लिए स्कॉटलैण्ड यूँ भी विख्यात है और इसके स्कॉच टेस्टिंग सेन्टर सैलानियों के लिए आकर्षण का केन्द्र हैं. फिर बस पकड़ी और जो सारा शहर घुमाते, बताते, रॉयल पैलेस, म्यूजियम, लायब्रेरी, यूनिवर्सिटी, जानवरों का बाजार, अर्थशास्त्री एडम स्मिथ के नाम का हॉल, शरलॉक होम्स वाले सर आर्थर कोनन डोयल के बारे में बताते, बाजार होते हुए शाम तक वापस ले आई वेवरली पुल पर. बाजू में ही बेस्ट होटल ऑफ द वर्ल्ड ’द बलमोरल है. यूँ तो सस्ते से सस्ता कमरा भी वहाँ पर ३५० यूरो का है मगर देखने के क्या पैसे. देखना जरुर चाहिये. ठहरे तो गेस्ट हाऊस में हैं ही, सोना ही तो है. कोई लोरी तो सुनाने से रहा ’द बलमोरल’ में.
एक खासियत और हम भारतीयों की, जिस दूसरे देश के शहर में जायेंगे, खाने के लिए भारतीय रेस्त्रां तलाशने लगते हैं. भले ही भारत में इटालियन पिज़्ज़ा, बर्गर, चाईनीज़, ग्रीक खाने भागें मगर देश से निकलते ही भारतीय रेस्त्रां की तलाश शुरु. सो हमने भी खोज लिया ’ताजमहल रेस्त्रां’. भारतीय खाना खाकर लौट आये गेस्ट हाऊस, वो सुबह वाले पास से बस पकड़ कर.
अगली सुबह पुनः वही कान्टिनेन्टल स्टाईल फ्री का नाश्ते भरपेट किया और चैक आऊट कर निकल पड़े अपनी कार से कुछ बाजार करने और उसके बाद रॉयल यॉच (The Royal Yacht) देखते हुए, जो अब एडनबरा के समुन्द्र में खड़ा है किन्तु कभी महारानी का जल निवास हुआ करता था. उसके आस पास बहुत सुन्दर मॉल भी है लेकिन बाजार चूँकि पहले ही कर चुके थे, अतः उसमें जाकर समय गंवाने का कोई फायदा नहीं था. यूँ भी यूरोप में खरीददारी कुछ जरुरत से ज्यादा ही मंहगी है.
शाम घिरने से पहले निकल पड़े यॉर्क के लिए वापस लेकिन इस बार समुन्द्र के किनारे किनारे चलने वाले मार्ग से. सुन्दर प्राकृतिक सौदर्य निहारते, फोटो खींचते खिंचाते !!!