रविवार, जुलाई 24, 2011

चलती सांसो का सिलसिला....

अपनी लम्बी यॉर्क, यू के की यात्रा को दौरान जब अपनी नई उपन्यास पर काम कर रहा था तो अक्सर ही घर के सामने बालकनी में कभी चाय का आनन्द लेने तो कभी देर शाम स्कॉच के कुछ घूँट भरने आ बैठता और साथ ही मैं घर के सामने वाले मकान की बालकनी में रोज बैठा देखता था उस बुजुर्ग को.

उसके चेहरे पर उभर आई झुर्रियाँ उसकी ८० पार की उम्र का अंदाजा बखूबी देती. कुर्सी के बाजू में उसे चलने को सहारा देने पूर्ण सजगता से तैनात तीन पाँव वाली छड़ी मगर उसे इन्तजार रहता दो पाँव से चल कर दूर हो चुके उस सहारे का जिसे उसने अपने बुढ़ापे का सहारा जान बड़े जतन से पाल पोस कर बड़ा किया था. जैसे ही वह इस काबिल हुआ कि उसके दो पैर उसका संपूर्ण भार वहन कर सकें, तब से वो ऐसा निकला कि इस बुजुर्ग के हिस्से में बच रहा बस एक इन्तजार. शायद कभी न खत्म होने वाला इन्तजार.

बालकनी में बैठे उसकी नजर हर वक्त उसके घर की तरफ आती सड़क पर ही होती. साथ उसकी पत्नी, शायद उसी की उम्र की, भी रहती है उसी घर में. वो ही सारा कुछ काम संभालते दिखती. कुछ कुछ घंटों में चाय बना कर ले आती, कभी सैण्डविच तो कभी कुछ और. दोनों आजू बाजू में बैठकर चाय पीते, खाना खाते लेकिन आपस मे बात बहुत थोड़ी सी ही करते. शायद दोनों को ही चुप रहने की आदत हो गई थी या इतने साल के साथ के बाद अकेले में एक दूसरे से कहने सुनने के लिए कुछ बचा ही न हो. कुछ नया तो होता नहीं था. वही सुबह उठना, दिन भर बालकनी में बिताना और ज्यादा से ज्यादा फोन पर ग्रासरी वाले को सामान पहुँचाने के लिए कह देना. पत्नी बीच बीच में उठकर गमलों में पानी डाल देती. उनमें भी जिसमें अब कोई पौधा नहीं बचा था. जाने क्या सोच कर वो उसमें पानी डालती थी. शायद वैसे ही, जैसे जानते हुए भी कि अब बेटा अपनी दुनिया में मगन है, वो कभी नहीं आयेगा- फिर भी निगाह घर की ओर आने वाली सड़क पर उसकी राह तकती.

उनके घर से थोड़ा दूर सड़क पार उसकी पत्नी की कोई सहेली भी रहती थी. नितांत अकेली. कई महिनों में दो या तीन बार इसको उसके यहाँ जाते देखा और शायद एक बार उसे इनके घर आते. जिस रोज वो उसके यहाँ जाती या वो इनके यहाँ आती, उस शाम पति पत्नी आपस में काफी बात करते दिखते. शायद कुछ नया कहने को होता.

अक्सर मेरी नजर अपनी बालकनी से उस बुजुर्ग से टकरा जाती. बस, एक दूसरे को देख हाथ हिला देते. शायद उसने मेरे बारे में अपनी पत्नी को बता दिया था. अब वो भी जब बालकनी में होती तो हाथ हिला देती. हमारे बीच एक नजरों का रिश्ता सा स्थापित हो गया था. बिना शब्दों के कहे सुने एक जान पहचान. मैं अक्सर ही उन दोनों के बारे में सोचा करता. सोचता कि ये बालकनी में बैठे क्या सोचते होंगे?  क्या सोच कर रात सोने जाते होंगे और क्या सोच कर नया दिन शुरु करते होंगे?

मुझे यह सब अपनी समझ के परे लगता. कभी सहम भी जाता, जब ख्याल आता कि यदि इस महिला को इस बुजुर्ग के पहले दुनिया से जाना पड़ा तो इस बुजुर्ग का क्या होगा? मैने तो उसे सिर्फ छड़ी टेककर बाथरुम जाते और रात को अपने बिस्तर तक जाने के सिवाय कुछ भी करते नहीं देखा. यहाँ तक की ग्रासरी लाने का फोन भी वही महिला करती. तरह तरह के ख्याल आते. मैं सहमता, घबराता और फिर कुछ पलों में भूल कर सहज हो जाता हूँ.

मैं भरी दुपहरी अपने बंद अँधेरे कमरे में ए सी को अपनी पूरी क्षमता पर चलाये चार्ल्स डी ब्रोवर की पुस्तक ’फिफ्टी ईयर्स बिलो ज़ीरो’ को पढ़ता आर्कटिक अलास्का की ठंड की ठिठुरन अहसासता भूल ही जाता हूँ कि बाहर सूरज अपनी तपिश के तांडव से न जाने कितने राहगीरों को हालाकान किये हुए है. कितना छोटा आसमान बना लिया है हमने अपना. कितनी क्षणभंगुर हो चली है हमारी संवेदनशीलता भी. बहुत ठहरी तो एक आँसूं के ढुलकने तक.

समय के पंख ऐसे कि कतरना भी अपने बस में नहीं तो उड़ चला. कनाडा वापसी को दो तीन दिन बचे. उस शाम बहाना भी अच्छा था कि अब तो वापस जाना है और कुछ मौसम भी ऐसा कि वहीं बालकनी में बैठे बैठे नियमित से एक ज्यादा ही पैग हो गया स्कॉच का. शराब पीकर यूँ भी आदमी ज्यादा संवेदनशील हो जाता है और उस पर से एक्स्ट्रा पी कर तो अल्ट्रा संवेदनशील. कुछ शराब का असर और कुछ कवि होने की वजह से परमानेन्ट भावुकता का कैरियर मैं एकाएक उन बुजुर्गों की हालत पर अपने दिल को भर बैठा याने दिल भर आया उनके हालातों पर. सोचा, आज जा कर मिल ही लूँ और इसी बहाने बता भी आऊँगा कि दो दिन में वापस कनाडा जा रहा हूँ. एक बार को थोड़ा सा अनजान घर जाते असहजता महसूस हुई किन्तु शराब ने मदद की और मैं अपनी सीढ़ी से उतर कर उनकी सीढ़ी चढ़ते हुए उनकी बालकनी में जा पहुँचा.

वो मुझे देखकर जर्मन में हैलो बोले. जर्मन मुझे आती नहीं, मैने अंग्रेजी में हैलो कहा. हिन्दी में भी कहता तो शायद उनके लिए वही बात होती क्यूँकि अंग्रेजी उस बुजुर्ग को आती नहीं थी. इशारे से वो समझे और इशारे से ही मैं समझा. फिर उनका इशारा पा कर उनके बाजू वाली कुर्सी पर मैं बैठ गया. उनकी गहरी ऑखों में झांका. एकदम सुनसान, वीरान. मैने उनके हाथ पर अपना हाथ रखा. भावों ने भावों से बात की. शायद एक लम्बे अन्तराल के बाद किसी तीसरे व्यक्ति का स्पर्श पा दबे भावों का सब्र का बॉध टूटने की कागर पर आ गया हो. उनकी आँखें नम हो आईं. मैं तो यूँ भी अल्ट्रा संवेदनशील अवस्था में था. अति संवेदनशीलता में शराब आँख से आँसू बनकर टप टप टपकने लगी. बुजुर्ग भी रो दिये और मेरा जब पूरा एक्स्ट्रा पैग टपक गया, तो मैं उठा. उन्हें हाथ पर थपकी दे ढाढस बँधाई और उन्हें नमस्ते कर बिना उनकी तरफ देखे सीढ़ी उतर कर लौट आया.

सुबह उठकर जब उनकी बालकनी पर नजर पड़ी तो वह बुजुर्ग हाथ हिलाते नजर आये. एक बार फिर मेरी आँख नम हुई यह सोचकर कि कल से यह मेरा भी इन्तजार करेंगे हाथ हिलाने को. आँख में आई नमी ने अहसास करा दिया कि कल जो बहा था वो शराब नहीं थी. दिल की किसी कोने से कोई टीस उठी थी उस एकाकीपन और नीरसता को देख, जो आज न जाने उस जैसे कितने बुजुर्गों की साथी है....

Old-Man

सुबह जागते
चलती सांसो का सिलसिला
दिलाता है याद मुझे..
फिर एक दिन
फिर एक शाम
और
फिर एक रात
बाकी है अभी...

-समीर लाल ’समीर’

<<इस बीच यू के यात्रा की व्यस्तता में पोस्ट डालने का क्रम कम होकर भी जारी तो रहा ही किन्तु मुझे याद ही न रहा कि कब मेरी ५०० पोस्ट पूरी भी हो गईं और आज यह पोस्ट ५०५ वीं है>>

गुरुवार, जुलाई 21, 2011

बड़ी दूर से आये हैं….ब्लॉगर मिलने!!!

उत्साहित तो थे ही लन्दन जाकर मित्रों से मिलने को और साथ ही सुबह ७:५० की बस जानी थी यॉर्क बस अड्डे से. ५ बजे ही उठ गये. सूरज महाराज पहले से ही तैनात थे खिड़की के रास्ते. जाने कब सोते हैं और कब उठते हैं यहाँ गर्मियों में. रात १० बजे तक तो आसमान में टहलते नजर आते हैं और सुबह ४ बजे से फिर आवरगी. पावर के नशे में नींद नहीं आती होगी शायद. विचित्र नशा होता है यह भी.
खैर, दो दिन का सामान, लैपटॉप, एक किताब बाँध कर निकल पड़े घर से ७.१५ बजे बस अड्डे के लिए और ठीक ७.५० पर बस चल पड़ी लन्दन ले जाने को. दीपक मशाल से पहले ही भारत से बात हो गई थी कि वह शाम ६ बजे तक भारत से लन्दन पहुँच जायेंगे. होटल बुक कर लिया था, वहीं हम दोनों का रुकना तय हुआ. दिन इतवार था अतः तय पाया कि शाम होटल में बिताई जायेगी इतने दिनों की ढेरों बात करते और फिर अगले दिन सुबह शिखा वार्ष्णेय जी के घर धावा बोला जायेगा. वहीं डॉ कविता वाचक्नवी जी भी आ जायेंगी. नाश्ता, लंच, शाम का नाश्ता, रात रास्ते के लिए पैक करवा कर एक बार में ही पूरा हिसाब किताब तय कर शाम को अपने अपने घरों के लिए वापसी, मैं यॉर्क, दीपक नार्थ आयरलैण्ड और कविता जी अपने घर लन्दन में ही लौट जायेंगे. इस तरह एक अन्तर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन की योजना बनी जिसमें लन्दन, कनाडा और आयरलैण्ड का ब्लॉगर मिलन होना तय पाया था.
रास्ता आरामदायक, दर्शनीय और ’दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ फिल्म के सरसों के खेत की याद दिलाता मजेदार था. ७.५० को बस चली और बादलों ने सूरज को आ घेरा. बरसे नहीं, बस घेर कर बैठ गये. शायद सूरज से पूर्व में समझौता करके आये थे कि बस, कुछ देर घेर कर बैठे रहेंगे और फिर निकल जायेंगे. बरसे बरसायेंगे नहीं सिर्फ जनता को बरसात का मनोरम सपना दिखायेंगे. मगर दो घंटे बीत गये. बस रास्ते में एक शहर मिडलैण्ड भी पहुँच गई, जहाँ से लन्दन के यात्री ट्रेन में बैठा दिये जाते हैं उसी टिकट पर लन्दन जाने को मगर बादल थे कि हटने का नाम ही न लें. ट्रेन भी १२.३० बजे लन्दन किंग क्रास इन्टरनेशनल स्टेशन पहुंच गई और बादल अपना घेराव जारी रखे हुए थे अनशन पर डटे से नजर आये.
इस बीच मैने मेन से लोकल स्टेशन बदला. मकड़ी के रंग बिरंगे जालेनुमा उलझा उलझा नक्शा देख समझ कर लन्दन ट्यूब ट्रेन (शहर के भीतर चलने वाली ट्रेन) पकड़ी और निकल पड़ा उस जगह जाने को जहाँ होटल मौजूद था और वो था शिखा जी के घर से मात्र १० मिनट की दूरी पर. एक स्टेशन पर ट्यूब बदलकर फिर जिस स्टेशन पर उतरा, वही स्टेशन शिखा जी के घर जाने के लिए उतरने का उचित स्थान है मगर वहाँ से होटल पैदल जाने के लिए जरा ज्यादा दूर और टैक्सी पकड़ने के लिए जरा ज्यादा नजदीक था सो बीच का रास्ता संभालते हुए सामने से उस दिशा में जाती बस पर चढ़ लिए. १० मिनट में होटल पहुँच गये.
दोपहर का तीन बजने को था. कमरे में चाय बना कर पी गई और लैपटॉप कनेक्ट करके बैठ गये. दीपक का इन्तजार शुरु हुआ. इस बीच जाने कहाँ से ख्याल उड़ते आये और विदेश का धन- भगवान पद्मनाभम वाला आलेख भी लिख गया और पब्लिश करने हेतु शेड्यूल भी कर दिया. खिड़की के बाहर नजर पड़ी तो देखा बादल सूरज द्वारा खदेड़े जा रहे हैं. लगा कि पूर्व समझौते के अनुसार समय पर न हट कर जनता याने मेरी पसंद देखते हुए उनके अनशन पर डटे रहने से खफा सूरज ने लाठी चार्ज करवा दिया हो. कोई बादल कहीं भागा, कोई कहीं कूदा, कोई कहीं काले से सफेद बादल का वेश बदल कर भागा. बादल भी न!! समझते नहीं हैं- उनका क्या है- आज है, कल नहीं होंगे. सूरज को तो हमेशा रहना है. रामलीला मैदान और बाबा रामदेव की याद हो आई बिल्कुल से.
इन्हीं सब में दो घंटे बीत गये. आम जन की भाँति इस अफरा तफरी भरे मौसम का मैने भी आनन्द उठाया. तब तक दीपक का फोन भी आ गया कि एयरपोर्ट पहुँच गया है. १ घंटे में होटल पहुँच जायेगा. भारत से आया था इतने दिन रह कर और वो भी शादी करके तो मैने स्वतः उसके अनुमान को ठीक करते हुए उसके कहे १ घंटे को २ घंटे मानते हुए सोच लिया कि ७.३० से ८ के बीच आयेगा और मैं आसपास के इलाके में घूमने निकल पड़ा.
इल्फोर्ड नामक इलाका- पूरा पाकिस्तान, बंगलादेशी और पिण्ड के सरदारों से भरा पड़ा. सब नौजवान सरदार लेटेस्ट मॉडल के बर्बाद से बर्बाद हेयर स्टाईल, कान में बाली, लगभग घुटने तक झूलती जिन्स, गैन्ग टाईप बनाकर घूमते, लड़कियाँ छेड़ते, गालियाँ बक बक कर बात करते, संदिग्ध गतिविधियों में लिप्त से नजर आते बड़ा असहज सा वातावरण निर्मित कर रहे थे. जगह जगह देशी दुकानें, रेस्टारेन्ट, पान की दुकानें, साड़ी, ज्वेलरी, सलवार सूट, ग्रासरी से लेकर हर देशी सामान का बाजार. थोड़ा सा परेशान करता माहौल. कुछ देर उस भीड़ भरे माहौल में टहलकर मैं कमरे में वापस आ गया. अनुमान से ज्यादा भारत से अपना आना साबित करते दीपक महाराज ९.३० बजे अवतरित हुए. फिर शुरु हुआ कुछ जामों का दौर, लम्बी चर्चायें, कविताबाजी, खाने का आर्डर और देखते देखते, बतियाते बतियाते, पीते पीते रात दो बजे हालात ऐसे कि बिना गुड नाईट कहे अपने अपने बिस्तर में कब सो गये, पता ही नहीं चला.
सुबह ८ बजे उठकर होटल में ही ब्रेकफास्ट कर लिया और ११ बजे चैक आऊट कर शिखा जी के घर पहुँच गये.
स्वागत की पूरी तैयारी बेहतरीन नाश्ते के साथ. तैयारी देखकर यह बताने की हिम्मत ही नहीं हुई कि नाश्ता करके आये हैं बल्कि अफसोस ही हुआ कि क्यूँ करके आ गये. खैर, एक दिन की बात थी तो फिर से काजू, बदाम से लेकर तले हुए प्रान्स खाये गये. कविता जी लन्च टाईम तक पहुँचने वाली थी. अतः शिखा जी द्वारा बनाई मनपसंद चाय के साथ बातों का सिलसिला प्रारंभ हुआ. किताबें दी गईं. संगीता स्वरुप जी कविता की किताब प्राप्त की गई. शिखा जी से उनकी आने वाली किताब, हाल के हिन्दी सम्मेलन और जावेद अख्तर, शबाना आज़मी और प्रसून जोशी से मुलाकात का ब्यौरा और नेहरु सेन्टर की गतिविधियों के बारे में जानकारी ली गई. तब तक कविता जी आ गई.

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लन्च हुआ. एक से एक लज़ीज़ पकवान बनाये थे शिखा जी ने. कुछ ज्यादा ही खा लिए. फिर चाय का दौर.
कविता जी के आ जाने से पुनः ढ़ेर वार्तालाप. उनकी रचना यात्रा, ब्लॉगिंग पर चिन्तन. फेसबुक पर पलायन करती ब्लॉगरों की भीड़. इस व्यवहार पर अपने अपने मत. एग्रीगेटर्स की भूमिका और आवश्यक्ता. कमेंटस की महत्ता आदि पर विमर्श किया गया.
इस बीच दीपक को मौसम की बदलाव की मार पड़ती रही और उनकी नाक धीरे धीरे दिल्ली के पीक ट्रेफिक की स्थिति को प्राप्त होते हुए लगभग बन्द हो गई. दवाई खाकर वो इस लायक हुए कि अब चुपचाप सो जाये. अतः वह उपर सोने चले गये. तभी शिखा जी के प्यारे प्यारे बेटा और बेटी भी स्कूल से आ गये. दोनों ने मिलकर हम लोगों की तस्वीरें खींची.
घंटा भर सो लेने के बाद दीपक इस लायक हुए कि फोटो खिंचवा कर ट्रेन पकड़ी जाये और वो एयरपोर्ट जायें और मैं यॉर्क के लिए ट्रेन लेने किंग क्रास स्टेशन. कविता जी, मैं और दीपक एक साथ ही ट्यूब ट्रेन से शिखा जी की मेहमान नवाजी का लुत्फ उठा कर गदगद हो निकले. रास्ते में पहले कविता जी उतरी. फिर चन्द स्टेशन बाद दीपक और आखिर में मैं. रात ११ बजे जब ट्रेन से यॉर्क घर वापस पहुँचा, तो दीपक का फोन आ चुका था कि वो आयरलैण्ड पहुँच चुके हैं और घर जाने के लिए एयरपोर्ट से बस ले रहे हैं.
इन दो दिनों में दीपक जितना हमारे साथ थे, उससे दुगना भारत में थे. एक माह भी पूरा नहीं हुआ है अभी विवाह को. उनकी पत्नी का भारत से लगातार फोन पर उनके मूमेन्टस का लिया जाना और दीपक का बार बार किनारे जाकर बात करना मजा दे रहा था. दीपक इस मिलन और अपनी भारत यात्रा पर दो दिन पूर्व लिख ही चुके हैं. शायद शिखा जी और कविता जी की कलम भी चले.
एक यादगार यात्रा, ढेरों वार्तालाप, मधुर कभी न भूल सकने वाली मुलाकात साथ में सहेज लाये हैं. लगा ही नहीं कि सबसे पहली बार मिले हैं.

कुछ चित्र देखें इस मिलन के.

रविवार, जुलाई 17, 2011

स्पेस- एक तलाश!!!!

यू के का यॉर्क शहर - सालों साल धूप और बादलों के बीच चलती ठिठोली. कभी धूप जीत जाती तो कभी बादल जीत कर रिमझिम बरस जाते हैं. एक सिलसिला सा है जो कभी नहीं रुकता. शहर के भीतर पैदल चलने का शौक या पतली एकल मार्गी सड़को पर गाड़ी न ले जा पाने की मजबूरी- सड़को के किनारे या किले की दीवार पर पैदल चलते लोगों का हुजूम. उसी भीड़ का पिछले २० दिनों से नित हिस्सा बनता मैं, उद्देश्य शहर देखना और उसकी धड़कनों को समझना. लेकिन यह बाकी भीड़ कहाँ जाती होगी? कुछ ठीक ठीक कहना मुश्किल ही लगता है. सुबह एक निश्चित समय तक तो काम पर जाते लोग समझे जा सकते हैं मगर दिन भर वही रफ्तार. पर्यटकों की चाल की रफ्तार तो इतनी नहीं होती.

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किले की दीवार

ज्यादा वाशिंदे अपना रिटायरमेन्ट गुजारते ही नजर आते हैं. मकानों के बाहर से गुजरते उन मकानों के भीतर बसते सन्नाटे की चीख जहाँ तहाँ सुनाई दे ही जाती है. किसी खिड़की से कुर्सी पर बैठी आसमान ताकती दो बूढ़ी आँखे- बहुत समय तक यादों में आपका पीछा करती हैं. कौन थकता है, नहीं मालूम मगर मुश्किल से ओझल होती हैं स्मृति पटल से.
इस बीच अपनी यॉर्क यात्रा के दौरान मेनचेस्टर, लीडस, नॉरिच, लन्दन और स्कॉटलैण्ड की ऐतिहासिक नगरी एडिनबर्ग (कहा जाता है एडिनब्रा) की यात्रा पर भी निकल जाता हूँ. हर शहर की अपनी तरंग, अपना स्पंदन, अपनी गति, अपना स्वरुप और अपनी एक अलग खुशबू. बोली के भाषाई स्तर पर जहाँ इंगलैण्ड के लोग बोलते वक्त गोली चलाते महसूस होते हैं वहीं स्कॉटलैण्ड के लोग कोई लयबद्ध गीत गाते हुए.
यॉर्क वापस आकर पाता हूँ कि प्रकृति और मानव आर्किटेक्चर लन्दन से इतना करीब है कि यॉर्क की लायब्रेरी के सामने मैदान की बैंच पर पीली धूप सेंकते अक्सर नज़रें निर्मल वर्मा की ग्रेता को तलाशने लगती हैं कि शायद कहीं इन फूल वाली घासों के मैदान के बीचों बीच खड़े तीन एवर ग्रीन पेड़ों के साथ वाले मोटे तने वाले ओक के पेड़ के पीछे से कोई प्यारी सी आवाज उठेगी- आप पकड़े गये....अब आप नहीं जा सकते हैं बिना इन पेड़ों को खाना खिलाये. लेकिन न तो ग्रेता दिखी और न वो आवाज उठी. शायद इसलिए कि निर्मल वर्मा की कहानी ’दूसरी दुनिया’ में जिक्र लन्दन शहर का है. जाने क्यूँ मैं फिर भी कुछ मुरझाये फूल और बिखरे सूखे पत्तों को बटोर कर उन पेड़ों की जड़ों के पास रख देता हूँ, यह सोच कि शायद भूखे होंगे. इन शहरों की यात्राओं पर विस्तार से कभी अलग से जिक्र करने का मन है. 
यॉर्क शहर में मुख्य मार्ग से कुछ दूरी पर शहर के बीचों बीच से बहती, अपने दोनों बाजूओं के विस्तार को मानवों द्वारा अपने कांक्रीटी टहल मार्ग द्वारा बाँधी हुई दो दो नदियाँ, ऊज़ एवं फॉस, के किनारे किनारे लगभग लगातार टहलने वालों का तांता/ तो कुछ कुछ दूरी पर चंद कुर्सियों टेबलों को लगाकर किसी पब या बार की बैठक और बीयर सुटकते लोग. चाय के शौकीनों के लिए टी हाऊस, वह भी जगह जगह हर थोड़ी दूर पर. भारतीय पकवानों की रेस्टारेन्टों की बहुलता मगर अधिकतर के मालिक पाकिस्तान या बंगला देश से आये हुए/ गोरों की एक बड़ी भीड़ को रोज आकर्षित करते.
घर से मुख्य मार्ग पर आने के बाद गाड़ी जब तक ठीक ठीक एकरस रफ्तार पकड़े, तब तक आप अपने आपको शहर से बाहर पाते हैं - ऐतिहासिक धरोहरों/ पुराने किले और अनुपयोगी एबेन्डन्ड भवनों से पटा पड़ा शहर/ भारत के किसी गाँव की अधकच्ची दीवारों पर चिपके पुरानी फिल्मों के उधड़े हुए इश्तेहारी पोस्टरों के तरह कुछ खुले अधखुले औद्योगिक प्रतिष्ठान एवं सेल्फ स्टोरेज हाऊस/ देखने के लिए किले की दीवालें/ एक अदद रेल्वे का म्यूजियम और उनके बीच से मूँह निकाल कर झाँकता विशालकाय यॉर्क मिनिस्टर -एक केथेड्रल- भगवान के निवास का एक भव्य भवन एवं साथ ही नई आबादी के लिए बनते दड़बेनुमा मकान/ एक दूसरे से टकराते सटे सटे फ्लैट.

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यॉर्क मिनिस्टर

बेतरतीब पुरातन विरासतों को जतनपूर्वक सहेजता आर्किटेक्चर. सरकारी इमारतों को मुहैय्या की गई ढेर सारी जगह. बीच बाजार में नट नटनियों के बरसों से दोहराये जा रहे करतबों को देखने घंटों तक लगा जमावड़ा. छोटे छोटे से पब और बारों में बीयर की कड़वाहट को सिगरेट के धुँए में उड़ाते प्राचीन भव्यता की सुधि लेने जाने कहाँ कहाँ से आए नाउम्मीद अहसासों के पालक भिन्न भिन्न परिवेशों के सेलानी. पतली पतली गलियों नुमा सड़कें/उस पर से गलियों की असीमित ख्वाहिश, दो भवनों के बीच झीरी में तब्दील होती/ जिन गलियों में घुस कर घूम लेने की गुँजाईश दिखी, उनकी ईंट जड़ित जमीन मुझे एहसास कराती कि मैं बनारस की गलियों में घूम रहा हूँ- गलियों में आती हवा में घोड़े की लीद की गंध और दीवारों से उठती सीलन मेरी इस सोच को और पुख्ता करती लेकिन शीघ्र ही अपनी विशिष्ट गंध से आकर्षित करती पान, जलेबी और दूध की दुकानों का आभाव और पंडों का न दिखना मुझे वापस यॉर्क के धरातल पर ला पटकता.
दिमाग को घुमा देने वाले हर ओर से आये मार्गों को जोड़ते गोल चक्कर/ हर प्रश्न के जबाब में स्पेस की कमी का रोना - ये शहर अखबारों और पत्रिकाओं का नव लिख्खाड़ों के साथ किए जा रहे व्यवहार की नुमाईश लगता है मुझे. इनकी नजरों और सोच में जो कुछ कालजयी रचा जाना था, रचा जा चुका. अब स्पेस नहीं है इन तथाकथित बेशउर नवलेखकों के लिए और इनसे भला कालजयी रचे जाने की उम्मीद भी कहाँ है!! जो भी स्पेस दे दो, वो अहसान ही है!!

किले की दीवार नाखून से खरोच कर देखता हूँ. पक्के पुराने पत्थर. नाखून चोटिल हो जाते हैं, पत्थर पर कोई निशान नहीं उभरता.

रविवार, जुलाई 10, 2011

विदेश का धन!!!

आज वो दिन आ ही गया जब आप सबके सामने में बरसों से छिपाया राज खोल दूँ.

राज की खूबी ही यही होती है कि उसे एक न एक दिन खुल ही जाना होता है. खुला खुलाया कभी राज नहीं हो सकता. राज को राज होने के लिए राज को कुछ समय बंद रहना भी उतना ही आवश्यक है जितना की राज को राज होने के लिए उसका खुलना.

यह बात तो सर्वविदित है कि सभी प्राणियों के हृदय में ईश्वर का वास होता है. करोड़ों भगवान हैं. किसी के हृदय में राम रहते होंगे, किसी में श्री कृष्ण. जो राज मैं खोलने जा रहा हूँ वो यह है कि मेरे हृदय में भगवान श्री पद्मनाभम रहते हैं.

जब मनुष्य एक विशिष्ट अवस्था को प्राप्त कर लेता है तो सर झुका कर अपने ही हृदय में ईश्वर के दर्शन कर सकता है और उससे वार्तालाप करने हेतु सक्षम हो जाता है. फिर वह उसी के बताये मार्ग का अनुसरण करता है जैसा कि मैं पिछले दो हफ्ते से भगवान पद्मनाभम के बताये मार्ग पर चल निकला हूँ.

तो हे ऑडनेरी प्राणियों (क्यूँकि मैं जानता हूँ आपको मेरी बात मजाक लग रही होगी...मात्र इस वजह से क्यूँकि आपने अभी उस अवस्था को न तो प्राप्त किया है और न ही इस विषय में आपको कोई ज्ञान है- मुझ जैसे बिरले ही हैं जो मृत्यु पूर्व इस अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं वरना तो..आप जैसे सांस के आने जाने को जीवन मान लेने वालों से दुनिया पटी पड़ी है..आप अपवाद नहीं हैं, दरअसल अपवाद मैं हूँ) कल जब पुनः मैं ध्यान की गहराई में उतरा तो मेरी भगवान पद्मनाभम से मेरी चर्चा हुई. काफी चिन्तित थे. कहने लगे कि विदेशों से पैसा वापस लाने के मामले में मैं रामदेव के साथ हूँ. इस बात पर उन्होंने तीन बार जोर दिया कि भारत का पैसा वापस भारत में आना ही चाहिये.

मैं उनके विचार सुन, देश भक्ति देख भावविभोर हुआ जा रहा था कि एकाएक वो मेरी तरफ मुखातिब हुए और कहने लगे कि तुम तो अब कनाडा में आकर बस गये हो. यहाँ की नागरिकता भी ले ली है. घर द्वार भी बना लिया है. तुम्हारे हृदय में मेरा निवास है, अतः मैं भी अब कैनेडियन नागरिक कहलाया और भारत मेरे लिए विदेश हुआ. अतः हे मेरे प्रिय मकान मालिक, मैं आपको पॉवर ऑफ अटार्नी देता हूँ कि विदेश में रखा मेरा धन आप यहाँ ले आईये और आज जिस विषय को लेकर पूरा भारत चिन्तित है, उस विषय में प्रथम कदम आप उठाकर एक मानक स्थापित कर दिजिये ताकि भारत के नेताओं की भी आँख खुले और वो भी अपना धन विदेशों से वापस लेते आवें. किसी का धन हो, विदेश में शोभा नहीं देता. और तुम तो जानते हो कि मैं भगवान हूँ. सबके लिए एक सरीखे नियम बनाता हूँ. वो तो इन्सान तोड़ मरोड़ कर अपनी सुविधा के अनुसार उन्हें अपना लेते हैं-सुवर्णों के लिए अलग, दलितों के लिए अलग, रईस के लिए कुछ और, गरीब के लिए ठेंगा. यहाँ तक कि जेल तक अपराधी अपराधी में फरक-तिहाड़ के भीतर तक राजा के लिए कुछ और, प्रजा के लिए कुछ और, कलमाड़ी के लिए कुछ और, कलमूंही के लिए कुछ और. हद दर्जे का  मैन्युपुलेशन है भई इन्सानों की नगरी में.

फिर भगवान श्री पद्मनाभम ने अपनी सुरीली आवाज को आदेशात्मक पुट देते हुए आगे कहा कि इस मामले में कोई ना-नुकुर नहीं सुनना चाहता हूँ. ऑफिस से छुट्टी नहीं मिल रही या अभी हाई सीज़न में टिकट मँहगी पड़ रही है आदि बहाने मेरे सामने लाने की जरुरत नहीं है. आप तुरंत सामान पैक करिये. भारत जाईये और जितने कन्टेनर लोड बने, पूरा एक बार में लाईये. जैसे पांच सुरंगे खुलीं वैसे ही छठवी भी खुलवा कर लोड करवा लिजिये.

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मैने चेताया कि भगवन, वहाँ छठवें चैंबर के दरवाजे पर साँप बना है और राजवंश वाले बता रहे हैं कि उसे खोलना अपशकुन होगा.

भगवान मुस्कराये और बोले, दरवाजे पर जो सांप बना है, उसकी चिन्ता मत करो. वो अपशकुन नहीं है. वो मेरी १५० साल पहले की दूरदृष्टि है. मैने उसी वक्त जान लिया था कि जब इस मुखौटे के लोग देश पर राज करने लगेंगे, तब जरुरत हो आयेगी कि सारा धन वहाँ से हटा लिया जाये. बस, इसीलिए मैने उनकी आकृति आखिरी सुरंग पर काढ़ दी थी ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आये. तुम तो जानते ही हो कि मुझे चित्रकारी का शुरु से शौक रहा है. अपने मंदिरों में भी खूब नक्काशी कराया करता था.

अब तक मैं उनकी बात सुनता रहा किन्तु मन में बस एक ही प्रश्न था कि कहीं भारत सरकार तो इसे कनाडा लाने में अडंगा नहीं डालेगी. मैने अपनी जिज्ञासा भगवान श्री पद्मनाभम के श्री चरणों में रखी याने कि अपने हृदय के निचले हिस्से में.

वे मुस्कराये और कहने लगे कि ये रामदेव किस दिन काम आयेंगे. उनको फिर बैठाल देंगे रामलीला मैदान में. अबकी बार नये नारे के साथ: विदेश में रखा देश का धन वापस लाओ और देश में रखा विदेश का धन वापस भेजो. इस बार मंच भी डबल साईज का बनवा देंगे क्यूँकि मुद्दा भी डबल साईज़ का है.  सरकार समझाने से तो समझती नहीं है मगर कन्फ्यूज कर दो तो तुरंत मान जाती है. लोकपाल बिल के लिए कन्फ्यूजन में मान ही लिया था. वो तो बाद में समझ आया कि जिस डाली पर बैठे हैं, उसी पर कुल्हाड़ी के वार करने का वादा कर बैठे तो अब इधर उधर भाग रहे हैं.

तो मित्रों, मैं भगवान पद्मनाभम जी आदेश कैसे टालूँ? आना ही पड़ेगा उनकी संपदा लेने. कुछ बांटना भी पड़ा तो भगवान की तो आदत ही है प्रसाद देते रहने की. प्रसाद समझ कर बांट देंगे (मैक्स ३०% तक की तो परमिशन भी ले ली है भगवान जी से- वो भी समझते हैं कि इसके बिना कहाँ गुजारा..). लेकिन भगवान के आदेश का पालन करने के लिए जी जान लड़ा देंगे.

देशवासियों, मेरा साथ दो. एक नई क्रांति का बिगुल बजाओ: विदेश का धन वापस भेजो!!!!

मुझे यह भी जानकारी है कि अभी बहुत से लोग आपको गुमराह करने आयेंगे. कुछ व्यंग्यकार कहेंगे कि असल हकदार वो हैं, फिर नेता तो लगभग सभी फिराक में रहेंगे कि असली हकदार वो हैं मगर मित्रों, आप सत्य का साथ दिजिये. मेरे साथ आईये और नारा बुलंद करिये: विदेश का धन वापस भेजो!!!!

house

कनाडा आ बसा
मन करता
तुम्हारी तरह
छ्त पर लेट
निहारुँ चाँद तारों को
रचूँ उन पर कोई कविता....

मकानों की बनावट ऐसी
न छत पर चढ़ना नसीब
न लेट चाँद तारों को निहारना..

समझा लेता हूँ खुद को
यह कह कर कि
मन का क्या है
वो तो भारत जाकर भी मचलता है
नेताओं की ईमानदारी पर
कोई कविता रच डालने को.....

-मन कितना पागल होता है!!!!

-समीर लाल ’समीर’