बहुत सुन्दर कालोनी है. करीब ८० मकान. अधिकतर लोग, जिन्होंने यह मकान बनवाये थे रिटायर हो गये हैं. कुछ के बेटे बहु साथ ही रहते हैं तो कुछ अकेले.
कौशलेश बाबू की बहु बहुत मिलनसार, मृदुभाषी एवं सामाजिक कार्यों में बहुत रुचि लेती है. कालोनी में रह रहे बुजुर्गों की निरस हो गई जिन्दगी को लेकर उसने एक योजना बना कर महिला मंडल की बैठक में रखी. सभी ने योजना की भूरी भूरी प्रशंसा की तथा उसी बैठक में संपन्न हुए चुनाव में वो महिला मंडल की निर्विरोध अध्यक्षा चुनी गई.
योजना के तहत बुजुर्गों को व्यस्त रखने के लिए एवं उनकी जिन्दगी में रस घोलने के लिए सभी बुजुर्गों से निवेदन किया गया कि वह अपने जिन्दगी के अनुभवों को एकत्रित कर आलेखबद्ध करें जिससे नई पीढ़ी को जहाँ एक ओर सीख मिले, वहीं दूसरी ओर बुजुर्ग भी लिखने और दूसरों के अनुभव पढ़ने में व्यस्त हो जायेंगे.
योजना के तहत एक मासिक पत्रिका निकाली जायेगी. पत्रिका के संपादन एवं प्रारुप निर्धारण के लिए भी उन्हीं बुजुर्गों में से एक संपादक मंडल का गठन किया गया. एक कमेटी का भी गठन हुआ जो उन आलेखों में से हर माह सर्वश्रेष्ट आलेख के लेखक को सम्मानित एवं पुरुस्कृत करेगी और हर नये अंक के साथ एक मासिक गोष्टी का आयोजन भी किया जायेगा.
प्रथम अंक के विमोचन हेतु नगर के सांसद को आमंत्रित कर एक भव्य समोरह का आयोजन किया गया.
ऐसी अभिनव योजना की परिकल्पना के लिए कौशलेश बाबू की बहु की हर तरफ प्रशंसा हुई, उनके बुजुर्गों के प्रति संवेदनशील हृदय एवं भावनाओं को साधुवाद दिया गया एवं सांसद महोदय नें भी उनके इस योगदान को अतुलनीय बताया. सांसद महोदय ने इस योजना के क्रियांवयन पर होने वाले खर्चे के लिए भी सांसद निधि से योगदान का आश्वासन दिया.
इसी आयोजन में प्रथम अंक के सर्वश्रेष्ट आलेख के लिए कौशलेश बाबू का चयन हुआ और उन्हें श्रीफल, शॉल और प्रशस्ति पत्र से सम्मानित किया गया. कौशलेश बाबू का आलेख जिसने भी पढ़ा, उसकी आँखें बरबस नम हो आईं. उन्होंने बुजुर्गों की घर में स्थिति एवं बच्चों से उनकी अपेक्षाओं का बहुत ही मार्मिक आलेख अपने अनुभवों के आधार पर लिखा था. हर बुजुर्ग ने उसमें अपनी कहानी पाई.
अगले दिन सुबह नगर के सभी प्रमुख अखबारों में इस योजना, कौशलेश बाबू की बहु की तारीफ और तस्वीरें और कौशलेश बाबू का आलेख और उन्हें पुरुस्कृत किए जाने के समाचार प्रमुखता से छपे थे.
पिछली रात कौशलेश बाबू उसी प्रशस्ति पत्र को निहारते आँखों में आसूं लिए भूखे ही सोये थे.
बहु और बेटा नाराज थे कि उन्हें ऐसा लिखने की क्या जरुरत थी?
लिखना तो आज राम त्यागी जी से मिलन की कथा था लेकिन कुछ समयाभाव के चलते अभी एक लघु कथा पढ़ें. |
मार्मिक चित्रण घर घर की असली कहानी का ....
जवाब देंहटाएंशायद हम अनजाने में अपनी सहूलियत और वाहवाही के लिए अपने माता पिता को बहुत कष्ट दे जाते है ..आपने अहसास कराया आज ...धन्यवाद !!
बहुत मार्मिक!
जवाब देंहटाएंआपका संस्मरण बहुत ही बढ़िया रहा!
जवाब देंहटाएं--
परन्तु मुझे यह एक लघुकथा का आनन्द दे गया!
--
हमने भी खटीमा में सीनियर सिटीजन वैलफेयर सोसायटी का गठन किया है! पिछले माह इसका पंजीकरण भी करवा लिया है!
पता नहीं इन वृद्ध लोगो को अपने घर की पोल खोलने में मजा क्या आता है ! :)
जवाब देंहटाएंलगता है कौशलेश बाबू के घर में भी दिया तले अँधेरा वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी |
जवाब देंहटाएंआईये हिंदी चिट्ठों पर पाठक बढ़ाएं
लगता है कौशलेश बाबू के घर में भी " दिया तले अँधेरा "वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी |
जवाब देंहटाएंकौशलेश बाबू उसी प्रशस्ति पत्र को निहारते आँखों में आसूं लिए भूखे ही सोये थे.
जवाब देंहटाएंबहु और बेटा नाराज थे कि उन्हें ऐसा लिखने की क्या जरुरत थी?
विडम्बना है और एक सामाजिक प्रश्न भी ।
शब्द ही नहीं मिल रहे लिखने के लिए। कुछ लोग ऐसी ही सेवा करते हैं। बहुत ही बढिया।
जवाब देंहटाएंवाह ... बहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंबज़ुर्गो की दशा का मार्मिक उल्लेख ...
लघु होते हुए भी
जवाब देंहटाएंमहान कथा।
daudte samaaj me khudgarji rishton se kab aage nikal jaati hai pata hi nahi chalta...daudo magar rishton ka hath tham kar...tab hi jeet milegi
जवाब देंहटाएं...................................... सुना है कि खामोशी से ज्यादा कोई नहीं बोल सकता... क्या मेरी खामोशी आप तक पहुँच रही है???
जवाब देंहटाएंati sundr
जवाब देंहटाएंrchna ka viprit mod atyadhik rochk hai
badhai
यही है दोहरी मानसिकता ...बहुत से घरों की कहानी है यह
जवाब देंहटाएंबनावटी पारिवारिकता पर अच्छा कटाक्ष किया है लघु कथा ने ...!!
...बेहद प्रसंशनीय लेखन, लघुकथा की थीम बेहद सार्थकता लिये हुये है, बधाई समीर भाई!!!
जवाब देंहटाएंयह हम सब की कहानी है समीर भाई , हो सकता है मज़बूत होने के कारण कुछ समय हमें आपको यह न झेलना पड़े मगर समय के साथ शक्तिहीन होते जाना हमारी नियति है और अगर आप सत्यप्रेमी हैं तो बच्चे आपकी आपबीती के कारण, कहीं न कहीं समस्याओं में में आये तो यह दिन और बुढापे में अपने ही घर में रोना पद सकता है ! अफ़सोस कि अधिकतर मामलों में बच्चों के पास माँ-बाप के बारे में सोचने का समय ही नहीं होता !
जवाब देंहटाएंआपके लिए और अपने लिए अग्रिम शुभकामनायें !
खाने के दांतों व दिखाने के दांतों का अंतर कभी तो समझा जाना चाहिये. socialization यही सिखाता है पर कुछ लोग anti-social निकलते हैं... क्या किया जा सकता है
जवाब देंहटाएंAankho me aansu aa gae yeh laghu katha padh kar. kya kahe shabd hi nahi hai.
जवाब देंहटाएंदोहरे मापदंड को उजागर करती एक सार्थक रचना ।
जवाब देंहटाएंआजकल समाज सेवा भी कुछ ऐसी ही हो गई है ।
इंसान का रूप अन्दर कुछ और , बाहर कुछ और ।
पुस्कार - शब्द भाव वित्रण का एक निराला अंदाज समीर भाई।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
अक्सर सच्चाई लिखने और बोलने की सज़ा मिल जाती है जब आदमी अपनों के बारें में बोल देता है..लोग अक्सर अपने घर को नज़रअंदाज कर देते है....बहुत बढ़िया लघुकथा..धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंaise vyakti ko mera bhi naman
जवाब देंहटाएंउन्होंने बुजुर्गों की घर में स्थिति एवं बच्चों से उनकी अपेक्षाओं का बहुत ही मार्मिक आलेख अपने अनुभवों के आधार पर लिखा था. हर बुजुर्ग ने उसमें अपनी कहानी पाई.
जवाब देंहटाएं" बहु बेटा को बाराज तो होना ही था....सच हमेशा ही कडवा होता है न..."
regards
समीर जी ,मन को स्पर्श करती है आप की ये लघुकथा ,संवेदनहीनता का उदाहरण देती हुई इस कथा में सहजता भी है और सरलता भी
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक लेकिन आज के समाज का सच है । कथा के माध्यम से समाज पर अच्छा कटाक्ष है शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंसर मॉडर्न परिवारों में ऐसा ही होता है...आधुनिक दौर की बहुए अपने बुजुर्गों के योदगान को भूल जाती हैं...आपने सही लिखा है पब्लिसिटी स्टंट के लिए कुछ लोग आगे भी आते हैं तो उसके पीछे उनका अपना स्वार्थ छिपा होता है
जवाब देंहटाएंआज के समाज के कटु सत्य को उजागर करती मर्मस्पर्शी लघुकथा
जवाब देंहटाएंपर उपदेश कुशल बहुतेरे...
जवाब देंहटाएंघर-घर का सच...
जय हिंद...
बेहद मार्मिक.....भाईसाहब ..यही तो अपने समाज की रीति है..की व्यक्ति सामाजिक तो ईमानदार बना रहना चाहता है और व्यक्तिगत बेईमान
जवाब देंहटाएंओफ्फ...
जवाब देंहटाएंभूल जाते है.. बुढापा सब को आता है..
मार्मिक चित्रण है यथार्थ का । लोगों के मन में पता नहीं क्या चलता रहता है ।
जवाब देंहटाएंआनंद आ गया. घर घर की कहानी. .
जवाब देंहटाएंShayad har ghar me aisi kahani banti hogi...afsos!
जवाब देंहटाएंकथनी और करनी
जवाब देंहटाएंसच कहना और सच का सामना करना
कुछ तो फर्क होगा ही
बहुत मार्मिक, बज़ुर्गो की दशा का मार्मिक उल्लेख
जवाब देंहटाएंbahut badiya bhai ji.....
जवाब देंहटाएंआज के समाज का एक मार्मिक कटु सत्य
जवाब देंहटाएंमार्मिक ....
जवाब देंहटाएंबिंदास पोस्ट....कथा मार्मिक लगी ...आभार -
जवाब देंहटाएंअगर बहु-बेटे को बुरा लगा तो लाज़मी है अगर वाकई में उन्हें बुरा लगा हो तो..
जवाब देंहटाएंऔर अगर उन्होंने तो कुछ ऐसा लिखा है तो ज़रूरी नहीं है कि वो उनके घर की भी कहानी है.. लेखक तो जो आस पास देखता है उसी के बारे में लिखता है..
वैसे एक अच्छी पहल है.. शुभकामनाएं..
mann ko chhu gaya
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक चित्रण.
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक लेकिन आज के समाज का सच है । कथा के माध्यम से समाज पर अच्छा कटाक्ष है
जवाब देंहटाएंसच्चाई यही है...
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक .. समाज का सच!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लिखा है भैया लेकिन बुरा मत मानियेगा कही कुछ कमी लग रही है!
जवाब देंहटाएंमार्मिक लघु कथा. लोगों ने सच्चे अनुभव लिखे तो योजना फेल हो जायेगी.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया, समीर भाई !
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील
जवाब देंहटाएंमन को छूती हुई मार्मिक लघु कथा |हर पीढ़ी में विद्यमान है ऐसी दोहरी मानसिकता |गाँवो में लड़ते झगड़ते है घर के,खेत के बांटे हिस्से हो जाते है और मुसीबत में फिर एक दूसरे का साथ दे देते है कितु पढ़े लिखे तथाकथित संस्कारित लोग मन को ही चुभन देते है |
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण एवं सार्थक रचना।
जवाब देंहटाएंdoglepan ki patti kholti....ek achhi kahani ..mann bujh gaya..
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक, टंगडीमार सलाम, टंगडीमार भेजे में। गोदियाल जी की बात पर ध्यान दिया जाना चाहिये।
जवाब देंहटाएंwah dadda ji ..aankhen nm ho gayi ..aakhri panktiyon ka nichod padh kar...bahut badhiya..
जवाब देंहटाएंसच में हमें अपने बुजुर्गों को जो सम्मान,सेवा देनी चाहिये--शायद आज हम उन्हें नहीं दे पा रहे हैं तभी तो कौशलेश बाबू को अपने मन की बातें पत्रिका में लिखनी पड़ीं---मर्मस्पर्शी और विचारणीय----।
जवाब देंहटाएंमार्मिक... मगर एक सच्चाई...
जवाब देंहटाएंआज के समाज का बेहद मार्मिक चित्रण..एक कडवी सच्चाई!!
जवाब देंहटाएंआदरणीय समीर जी.....
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक और हृदयस्पर्शी .... पोस्ट....
अरे!!!! अन्त इतना मार्मिक होगा, सोचा ही नहीं था....लेकिन सच्चाई यही है.
जवाब देंहटाएंबढ़िया समीर जी।
जवाब देंहटाएं"कौशलेश बाबू उसी प्रशस्ति पत्र को निहारते आँखों में आसूं लिए भूखे ही सोये थे. "
जवाब देंहटाएंसमीर अंकल! आप जब मार्मिक आलेख लिखते हो तब मुझे दर्द होता है ! अंकल! ये बड़े लोग दोहरी मानसिकता क्यों रखते है ! हम बच्चो की तरह दादा दीदी से प्यार क्यू नही करती ! सैम....सैम ......
संपत
समाज के असली चेहरे को दिखाती एक मार्मिक रचना है।समीर जी बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत ही मार्मिक...आज के समाज को आईना दिखा दिया आपने....अब आपकी लेखनी की तारीफ़ करते-करते मुँह दुखा गया है...
जवाब देंहटाएंलगता है जैसे ....
बागबान की कहानी सुना रहे हैं का...
हमरे बाबूजी जब देखो.... तब बागबान का स्टोरी लिए बैठ जाते हैं....का करें उनका तो बड़ा मन है कि उ अमिताभ बच्चन बने और मेरी माँ हेमा मालिनी....लेकिन हमलोग भी हर समय सलमान खान बन जाते हैं फट से.....हाँ नहीं तो..!!
अदा जी से सहमत ....
जवाब देंहटाएंye eak kadva sach hai har jagha yahi to hota ha ...acha lekh ha..
जवाब देंहटाएंआप तो बुढ़ापे वाली मेरी छवि दिखा दी, जब अभी यह हाल हैं तो कल क्या होगा??
जवाब देंहटाएंराम राम
हनुमान जी बुढ़ापे से बचाए अगर इससे नहीं बचा सके तो ऐसे बाल बच्चों से
इतने-सीधे-सच्चे प्रवाह में लिखी गयी है ये रचना...कि रचना नहीं लगती...कोई वृत्तांत लगता है...वो तो अंत में पता चला कि ये हथौड़े मार रहा है रचनाकार...
जवाब देंहटाएंयह रचना न जाने कितनों की सच्चाई होगी.
जवाब देंहटाएंbeta aur bahu ki narajgi sahi bhi to hai
जवाब देंहटाएंalag alag vicharon ka chitra,ya shayad isko hi generation gap kahe,choti magar marmik katha,cil ko chu gayi.
जवाब देंहटाएंअसलियत लिख कर कौशलेश बाबू ने अच्छा ही किया... अब इसमें बहू--बेटे की असलियत भी सामने आ गई तो उसे सहन करने शक्ति भी उनमें होनी चाहिए!...उनका नाराज होना कतई जायज नहीं है!... एक प्रेरक लेख का आपने साक्षात्कार कराया है, धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंशशक्त कथा है...आज के तल्ख़ हालात को व्यक्त करती हुई...
जवाब देंहटाएंनीरज
मार्मिक ... समीर भाई कहीं अपना भी वो हाल न हो जब वापस देश जाने का सोचें ....
जवाब देंहटाएंबाहू बेटे की नाराज़गी अपने आप से है .. अपना सोचेंगें तो नही होगी ....
Namaste sameer ji, how are you? missed you.
जवाब देंहटाएंek marmik kahani......:)
जवाब देंहटाएंSAMAYIK SANDARBHO ME YEH RACHANA WAKAYEE SHRESHTH BAN PADI HAI. SADHUVAD
जवाब देंहटाएंSAMAYIK SANDARBHO ME YEH RACHANA WAKAYEE SHRESHTH BAN PADI HAI. SADHUVADRAH
जवाब देंहटाएंआइना देखने का साहस कहाँ है समाज में ! बहुत प्रभावशाली लघु कथा . बधाई ..............
जवाब देंहटाएंआपकी यह कथा केवल पढने और वाह वाह करने योग्य नहीं बल्कि एक दिशा दिखाती हुई है... मुझे तो इससे बहुत प्रेरणा मिली है...इसने मुझे नया मार्ग दिखाया है...
जवाब देंहटाएंअतिसार्थक कथा...साधुवाद आपका...
अत्यंत हृदयस्पर्शी कथा ! सत्योद्घाटन का दंश तो कौशलेश बाबू को झेलना ही था क्योंकि उनकी बहू की समाजसेवा और बुजुर्गों के प्रति संवेदनशीलता का मुखौटा जो उनके लेखन ने उतार दिया था ! अगर चुप रह जाते तो बेटे बहू की पोल तो ना खुलती ! भूखा सोना तो लाजिमी था ! समाज की कडवी सच्चाई को बयान करती मर्मस्पर्शी कहानी ! बधाई एवं आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढिया....
जवाब देंहटाएंप्रसंशनीय लेखन....
शुभकामनायें !
man ko chhu gayi aapki rachna.
जवाब देंहटाएंसमीर जी
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और मार्मिक रचना... रुला देते हैं आप... झकझोर कर रख देतीं हैं आपकी रचना... बहुत सुंदर.. इसी विषय पर मेरी इक कविता 'घर में जगह' आपने शायद पढ़ी है... लिंक फिर भेज रहा हूँ ... http://aruncroy.blogspot.com/2010/06/blog-post_13.html सादर
आईये जानें ..... मैं कौन हूं !
जवाब देंहटाएंआचार्य जी
दुनिया गोल है
जवाब देंहटाएंओह ! एक और यथार्थ.
जवाब देंहटाएंअगले दिन सुबह नगर के सभी प्रमुख अखबारों में इस योजना, कौशलेश बाबू की बहु की तारीफ और तस्वीरें और कौशलेश बाबू का आलेख और उन्हें पुरुस्कृत किए जाने के समाचार प्रमुखता से छपे थे. पिछली रात कौशलेश बाबू उसी प्रशस्ति पत्र को निहारते आँखों में आसूं लिए भूखे ही सोये थे. बहु और बेटा नाराज थे कि उन्हें ऐसा लिखने की क्या जरुरत थी?
जवाब देंहटाएंबेशक, बहुत अच्छी रचना है.....शुभकामनाएं..
जवाब देंहटाएंआप देख् ही रहे हैं। 89 टिप्पणियां हो चुकी हैं। सब कुछ कहा जा चुका है। मैं क्या कहूं।
जवाब देंहटाएंhttp://udbhavna.blogspot.com/
मर्मस्पर्शी ....
जवाब देंहटाएंमैं हार गया
जवाब देंहटाएंऔर जीत हुई कविता की,
लम्बी लड़ाई के बाद.
उसके पक्ष में
खड़ी थी कवियों की
पूरी फ़ौज,
और मै था अकेला.
जीत तो .....
उसकी होना ही था.
फिर मै..
समर्पण कर दिया खुद को
उसके सामने.
और.. रंग गया,
उसकी रंगों में.
हमारी लड़ाई
द्वितीये विश्वयुद्ध
या.....
पानीपत की नहीं
हम वैचारिक लड़ाई
लड़ाई रहे थे.
नया विचार और सुन्दर प्रस्तुति |रचना बहुत अच्छी लगी |बधाई|
जवाब देंहटाएंआशा