रविवार, जनवरी 31, 2010

ज्ञानदत्त जी की पगली पोस्ट से पगलिया तक

मैने पाया है कि श्री ज्ञानदत्त पाण्डे जी की मानसिक हलचल उनके लिए मानस में चाहे जो भी हलचल मचाती हो मगर उसका एक रुप दूसरे के मन में हलचल मचाने का हमेशा रहता ही है.

कभी मुझे लगता है कि अगर वो ब्लॉग और रेल नौकरी की बजाय राजनीति में हाथ आजमाते तो आज लालू उनके सामने पानी भर रहे होते. वो गेंद दूसरे के पाले में फेंक कर मुस्कराते हुए सामने वाले से शुद्ध हिन्दी में कहते हैं कि अब गेंद आपके पाले में है, नाऊ इट इज़ योर चांस. इज़ में ज के नीचे नुक्ता लगाना भी कभी नहीं भूलते. :)

देवनागरी में उर्दु का सम्मिश्रण कर अंग्रजी शब्दों से नये हिन्द का निर्माण का यह प्रारुप, हिन्दी के सशक्तिकरण का बोझा उठाये उनके कांधे के बोझ को गद्दीदार बना भाषाविद लोगों की लाठी सहने की क्षमता प्रदान करता होगा और वो सुगमता से रीडर्स डाईजेस्ट के हिन्दी संस्करण सर्वोत्तम के बंद होने का दोष हिन्द समाज को दे निकल जाते हैं बिना व्यवसायिक कारण का आंकलन किए, आखिर राजनित में कब किसने अपनी शुचिता और सुभिता के बाहर और उपर देख कुछ भी बोला है वरना क्या मजाल कि एक मंत्री कह जाये कि वह भविष्यवक्ता नहीं शक्कर के भाव बताने को और दूसरा कि मेरे पास जादू की छड़ी नहीं कि घुमाऊँ और मंहगाई खत्म?, बस वैसे ही इतना ही कि गेंद इज़ इन कोर्ट अगेन, खेलो!!

फिर क्या है, कोई मुद्दा पकड़ने गेंद के पीछे भाग रहा होता है तो कोई ज़ में नुक्ता देख ही मुदित हुआ बैठा होता है. मैं तो खैर संपूर्ण प्रक्रिया पर मोहित हूँ ही.

ऐसी ही एक गैंद उन्होंने टिप्पणी द्वार बंद कर ’पगली’ पोस्ट पर उछाली कि अगर आप कुछ सोचते हैं तो अपने ब्लॉग से कहें. वो कहते हैं कि:

’शायद यह पोस्ट मात्र देखने-पढ़ने की चीज है। यह पोस्ट आपकी सोच को प्रोवोक कर आपके ब्लॉग पर कुछ लिखवा सके तो उसकी सार्थकता होगी। अन्यथा पगली तो अपने रास्ते जायेगी। वह रास्ता क्या होगा, किसे मालूम!’

उस पगली की हालात देख कुछ मन में न घुमड़े, ऐसा कैसे हो सकता है लेकिन वहाँ तो टिप्पणी बंद है तो यहाँ से एक पूरी कथा. देखें और बतायें, यहाँ तो टिप्पणी चालू है.


पगलिया!!
pag

रेल्वे पटरी के पार उस बजबजाते नाले के किनारे कचरे के ढेर के पीछे पड़ी रहती है वह. वही उसका घर है. धरती बिछौना है तो आसमान छत. उम्र यही कोई २८ या २९ बरस की होगी. पन्नियाँ बिन कर एक छतरी सी तान ली है उसने बारिश से बचने के लिए. बस्स!

जोर जोर की आवाज में बहुत लय में गाना गाती है;

परदेशवा न जहिहा पिया, सावन में...
सावन में पिया, सावन में...

बादल गरजे हाय, बिजूरी चमके
पिया बिन जिया मोरा धक धक धड़के
धूँधटा न खोलूं पिया....
सावन में...

परदेशवा न जहिहा पिया, सावन में...
सावन में पिया, सावन में...

जाने कितने दर्द उतार देती है वह अपनी आवाज में इसे गाते. आँखें बहती रहती हैं और कंठ गाते रहते हैं..जैसे वो एक दूसरे से परिचित ही न हों!!

पता नहीं कौन सा दर्द समेटे है. जाने कैसे और किस आधात से पागल और विक्षिप्त हो भटकती यहाँ चली आई है. कोई नहीं समझ पाता है उसकी पीड़ा..बस, सब उसे पगलिया कहते हैं और हँसते हैं.

किसी भी इन्सान को नाले के पास आता देखती है, तो अजब अजब तरह की आवाजें निकालती, चिल्लाती और पत्थर फैकती है. दिन में एक दो बार स्टेशन के पास तक आती है. स्टेशन के करीब के ठेले वाले उसे जानने लगे हैं. लोगों का छोड़ा खाना उसे उठाने देते हैं. कुछ भी बचा खुचा फैंका हुआ खाकर वह फिर उसी नाले के किनारे चली जाती है और अपनी गंदी कुचेली जगह जगह से फटी साड़ी में लिपटी पड़ी रहती है. बिखरे बाल, मैल से भरा शरीर और चेहरा, पीले दांत. लोग बताते हैं कि पगली है.

आस पास खेलते छोटे बच्चों का झुंड जब उसे पगलिया पगलिया कह कर चिढ़ाता है तो वो उन पर ढेला फैकती है. सारे बच्चे हो हो कर हँस कर भागते हैं. उन बच्चों के लिए यह भी एक खेल ही है. बच्चों को समझ ही क्या?

कोई नहीं जानता है कि वो कौन है, कहाँ से आई है और कहाँ की रहने वाली है. गाने की भाषा से बस अंदाज ही लगता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में कहीं की रहने वाली है.

रोज ही देखता हूँ उसे स्टेशन के आस पास. कभी गाना गाते, कभी बच्चों को ढेला लेकर दौड़ाते, कभी खाना बीनते. मन में अनायास ही ख्याल आता है कि जाने कौन है? शायद वो भी मुझे रोज रोज देख पहचानने लगी है.

आज शाम जब स्टेशन के पास से गुजर रहा था तब वह हाथ में एक दोना लिए नाली की तरफ जाते जाते एकाएक मेरे स्कूटर से टकराते बची. मैने जोरों से ब्रेक मारा और अनायास ही वह बोल उठी, ’माफ करियेगा’.

मैं आवाक उस मैली कुचैली काया को देखता रह गया और वो दौड़ कर नाले के किनारे चली गई और जोर जोर से जाने क्या क्या बड़बड़ाने लगी.

घर लौटा मगर उसकी वह आवाज मेरा पीछा करती रही, ’माफ करियेगा’.

मन यह मानने को तैयार ही नहीं है कि वह कोई पगलिया है. रात बड़ी देर तक सोने की कोशिश करता रहा लेकिन नींद जाने कोसो दूर चली गई.

बार बार मन में एक ही ख्याल कौंधता रहा कि आखिर वो कौन है और क्या है उसकी मजबूरी?

खिड़की से देखता हूँ आकाश में सूरज निकलने की तैयारी में है और रात सूरज के तेज में तार तार हो अपना अस्तित्व खोती जा रही है.

ख्याल उठता है उस पगलिया का. कहीं इस वहशी दुनिया से अपने अस्तित्व और आबरु की रक्षा के लिए तो यह रुप नहीं धर लिया उस वक्त की मारी ने?

पागलों की दुनिया की पागल नजरों से बिध कर पागल हो जाने से बेहतर पागल बने रहना ही पगलिया को बेहतर विकल्प नजर आया होगा, इसे पागलपन की बजाय समझदारी कहना भी कहाँ तक गलत होगा.

कौन जाने!!

इस वहशी दुनिया की, नजरों से बचने को
कितनी मजबूर है वो, ऐसे स्वांग रचने को

-लोग उस अबला को, पगलिया कहते हैं?

-समीर लाल ’समीर’

बुधवार, जनवरी 27, 2010

कहते हैं मेरी माँ की ५वीं पुण्य तिथि है आज!!

आज माँ को गये पूरे ५ बरस हो गये. लगता है कल ही बात हुई थी.

जाने के एक दिन पूर्व ही फोन से बात हो रही थी. तब सोचा भी नहीं था कि यह बात आखिरी बार हो रही है. भोपाल जा रहीं थी. तय पाया था कि परसों लौट कर फिर बात होगी. वो परसों कभी नहीं आया. भोपाल में ही हार्ट अटैक आया और वो नहीं रही.

भारत में रह रहे मेरे भाई, बहन, पिता जी और सारे परिवार के सदस्यों के साथ वो २८ जनवरी तक रही और मैं परिवार का छोटा, इसमें भी घाटे में रहा, मेरे लिए वो २७ को ही चली गई. हाँ, उस समय कनाडा में २७ तारीख थी और भारत में २८ का सबेरा. सब उसके साथ १२ घंटे ज्यादा रहे और मैं, उसे बाकी सबसे १२ घंटे पहले ही खो बैठा.

फोन आया था दोस्त का. तुरंत पिता जी को फोन लगाया. भोपाल में अस्पताल में थे माँ के पार्थिव शरीर के साथ, बस एक शब्द-हाँ. बाकी मौन सिर्फ अहसास की भाषा अगले ४ मिनट तक!!

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माँ-श्रीमति सुषमा लाल (२८ जनवरी, २००५)

लगता है कि कल ही उससे बात करता था. ये ५ साल, एक खालीपन, कब निकल गये मैं नहीं समझ पाया. अभी भी वो रोज मिलती है मुझे ख्वाबों में. कोई रात याद नहीं जब वो न आई हो. जाने क्या क्या समझाती है. मैं झगड़ता भी हूँ वैसे ही जैसे जब वो सामने थी... फिर नींद खुलने पर रोता भी हूँ मगर वो रहती आस पास ही है. तन से नहीं...मन से तो वो गई ही नहीं. चुप करा देती है. कोई जान ही नहीं पाता उसके रहते कि मैं रोया भी.

मैं उसके नाम के साथ स्वर्गीय लगाने को हर्गिज तैयार नहीं आज ५ साल बाद भी. वो है मेरे लिए आज भी वैसी ही जैसी तब थी जब मैं उसे देख पाता था. तुम न देख पाओ तो तुम जानो.

माँ कभी मरती है क्या...वो एक अहसास है, वो एक आशीष है, वो मेरी सांस है...उससे ही तो मैं हूँ..वो मेरी हर धड़कन में है..वो कोई एक तन नहीं जो मर जाये और हम उसे भूल जायें पिण्ड दान कर पुरखों में मिला कर.

विश्व की हर माँ सिर्फ माँ होती है और बस माँ होती है..भगवान की भी कहाँ इतनी बड़ी बिसात कि माँ बन पाये..भगवान होना अलग बात है!!! वो इससे बहुत उपर है.

आज २८ जनवरी है. भारत के हिसाब से उसकी पाँचवीं पुण्य तिथि. मेरे हिसाब से कल थी. खैर!! मैने इस घाटे से समझौता करना सीख लिया है.

माँ २८ को गई तो साधना के पिता उसके ठीक एक दिन बाद २९ जनवरी को. जब माँ गई तब साधना भारत से कनाडा आने के लिए जहाज में थी और जब यहाँ कनाडा में उतरी, तो उसके पिता जी ने दम तोड़ दिया ऐसी खबर आई.

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साधना के पापा-स्व.श्री के.एन. सिन्हा (२९ जनवरी, २००५)

हम दो दिन बाद भारत पहुँचे. न मुझे माँ के अंतिम दर्शन हुए और न उसे उसके पिता जी के.

बस, कभी हिसाब करने का मन करता है कि यहाँ आकर क्या खोया, क्या पाया!!

बिखरे मोती का विमोचन हुए बहुत समय नहीं बीता है. आज किसी को वही किताब भेंट करता था. माँ को समर्पित यह पुस्तक अनायास ही माँ की याद सामने ले आई, बस, कुछ पंक्तियाँ बह निकली..अनगढ़ सी...बिना सुधार मय आंसू पेश करता हूँ.

आज फिर रोज की तरह

माँ याद आई!!

माँ

सिर्फ मेरी माँ नहीं थी

माँ

मेरे भाई की भी

मॉ थी

और भाई की बिटिया की

बूढ़ी  दादी..

और

मेरी बहन की

सिर्फ माँ नहीं

एक सहेली भी

एक हमराज...

और फिर उसकी बेटियों की

प्यारी नानी भी वो ही...

उनसे बच्चों सा खेलती नानी...

वो सिर्फ मेरी माँ नहीं

गन्सु काका की

माँ स्वरुप भाभी भी

और राधे ताऊ की

बेटी जैसी बहु भी...

दादा की

मूँह लगी बहू

दादी की आदेशों की पालनकर्ता

उनकी परिपाटी की मूक शिष्या..

उन्हें आगे ले जाने को तत्पर...

और नानी की

प्यारी बिटिया

वो थी

अपनी छोटी बहिन और भाईयों की दीदी

और अपनी दीदी की नटखट छुटकी..

नाना का अरमान

वो राधा की सहेली ही नहीं

माँ सिर्फ मेरी  ही नहीं..

उसकी बेटी की भी

माँ थी...

माँ

कितना कुछ थी..

बस और बस,

माँ सिर्फ माँ थी..

हर रुप में..

हर स्वरुप में..

मगर फिर भी

सिर्फ मेरी ही नहीं...

माँ हर बार

सिर्फ माँ थी.

अब

माँ नहीं है

इस दुनिया में...

वो मेरे पिता की

पत्‍नी, बल्कि सिर्फ पत्‍नी ही नहीं

हर दुख सुख की सहभागी

उनकी जीवन गाड़ी का

दूसरा पहिया...

अब

पिता छड़ी का सहारा लेते हैं..

और फिर भी

लचक कर चलते हैं...

माँ!!

जाने क्या क्या थी

माँ थी

मेरा घर

वो गई

मैं बेघर हुआ!

--समीर लाल ’समीर’

माँ, क्या सचमुच तुझे गये ५ साल हो गये??

रविवार, जनवरी 24, 2010

विकलांगता

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लँगड़ी है दादा जी की छड़ी

दीवार का सहारा लिए खड़ी है

गूँगा है माँ का सितार

तहखाने के कोने में उदास पड़ा है

अँधी है बाबू जी की ऐनक

धूल खाती पुस्तकों की आलमारी में..

 

ढो रहा हूँ इनका अस्तित्व

मैं एकमात्र जीवित उत्तराधिकारी

टूटने को तत्पर

अपने झुकते काँधों पर..

 

मेरी अगली पुश्तें मुक्त होंगी

इस पुश्तैनी विकलांगता को

ढोने के अभिशाप से..

 

इसलिये कि वे जड़ों से बहुत दूर

बहुत दूर जा बसी हैं

एक ऐसी दुनिया में जिससे

मैं जुड़ नहीं पाया कभी

जिसका मुझे कोई अनुभव नहीं..

 

फिर भी मुझे विश्वास है

पूर्णता देने वाले इन स्मृतिचिन्हों के साथ

मैं रहूंगा अपनी विकलांगता में खुश

अपने टूटे सपनों अधूरी इच्छाओं

और उखड़ी जड़ों के साथ!!

 


-समीर लाल ’समीर’

(नोट: इस रचना को अपनी पारखी नजरों से गुजारने और सुझावों के लिए मित्र शरद कोकस जी का आभार)

* गणतंत्र दिवस पर आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ *

बुधवार, जनवरी 20, 2010

कैसे सच का सामना??

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रचनाकार पर अगस्त में व्यंग्य लेखन पुरुस्कार के लिए व्यंग्य आमंत्रित किये गये. मन ललचाया तो एक प्रविष्टी मैने भी भेज दी. परिणाम दिसम्बर में आने थे याने लगभग ४ माह बाद, तो भेज कर भूल गये. इस बीच चुपके से दिसम्बर गुजर गया और कल पुरुस्कारों की घोषणा हुई. कुल ५१ शुभ प्रविष्टियों में १३ व्यंग्य लेखक पुरुस्कृत किये गये और उस लिस्ट में अपना नाम देखना सुखद रहा. वही व्यंग्य यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ आपके आशीर्वाद के लिए.

 

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एक नामी चैनल पर कल शाम ’सच का सामना’ देख रहा था.

कार्यक्रम के स्तर और उसमें पूछे जा रहे सवालों पर तो संसद, जहाँ सिर्फ झूठ बोलने वालों का बोलबाला है, में तक बवाल हो चुका है. इतने सारे आलेख इस विवादित कार्यक्रम पर लिख दिये गये कि अब तक जितना ’सच का सामना’ की स्क्रिप्ट लिखने में कागज स्याही खर्च हुआ होगा, उससे कहीं ज्यादा उसकी विवेचना में खर्च हो गया होगा.

खैर, वो तो ऐसा ही रिवाज है. नेता चुनते एक बार हैं और कोसते उन्हें पाँच साल तक हर रोज हैं. अरे, चुना एक बार है तो कोसो भी एक बार. इससे ज्यादा की तो लॉजिकली नहीं बनती है.

बात ’सच का सामना’ कार्यक्रम की चल रही थी.

इतना नामी चैनल कि अगर वादा किया है तो वादा किया है. नेता वाला नहीं, असली वाला. अगर रात १० बजे दिखाना है रोज, तो दिखाना है.

अब मान लीजिये, रोज के रोज शूटिंग हो रही है रोज के रोज दिखाने को और पॉलीग्राफ मशीन खराब हो जाये शूटिंग में. मशीन है तो मौके पर खराब हो जाना स्वभाविक भी है वो भी तब, जब वो भारत में लगी हो. हमेशा की तरह मौके पर मेकेनिक मिल नहीं रहा. रक्षा बंधन की छुट्टी में गाँव चला गया है, अपनी बहिन से मिलने वरना वहाँ ’सच का सामना’ करे कि भईया, अब तुम मुझे पहले जैसा रक्षित नहीं करते. याने एक धागा न बँधे, तो रक्षा करने की भावना मर जाये. धागा न हुआ, ए के ४७ हो गई.

ऐसे में शूटिंग रोकी तो जा नहीं सकती. अतः, यह तय किया गया कि सच तो उगलवाना ही है तो पुलिस वालों को बुलवा लो. इस काम में उनसे बेहतर कौन हो सकता है? वो तो जैसा चाहें वैसा उगलवा लें फिर यहाँ तो सच उगलवाने का मामला है.

प्रोग्राम हमारा है, यह स्टेटमेन्ट चैनल की तरफ से, याने अगर हमने कह दिया कि ’यह सच नहीं है’ तो प्रूव करने की जिम्मेदारी प्रतिभागी की. हमने तो जो मन आया, कह दिया. पैसा कोई लुटाने थोड़े बैठे हैं. जो हमारे हिसाब से सच बोलेगा, उसे ही देंगे.

पहले ६ प्रश्न तो लाईसेन्स, पासपोर्ट और राशन कार्ड आदि से प्रूव हो गये मसलन आपका नाम, पत्नी का नाम, कितने बच्चे, कहाँ रहते हो, क्या उम्र है आदि. लो जीत लो १०००००. खुश. बहल गया दिल.

आगे खेलोगे..नहीं..ठीक है मत खेलो. हम शूटिंग डिलीट कर देते हैं और चौकीदार को बुलाकर तुम्हें धक्के मार कर निकलवा देते है, फिर जो मन आये करना!! मीडिया की ताकत का अभी तुम्हें अंदाजा नहीं है. हमारे खिलाफ कोई नहीं कुछ बोल सकता.

तो आगे खेलो और तब तक खेलो, जब तक हार न जाओ.

प्रश्न ५ लाख के लिए :’ क्या आप किसी गैर महिला के साथ उसकी इच्छा से अनैतिक संबंध बनाने का मौका होने पर भी नाराज होकर वहाँ से चले जायेंगे.’

जबाब, ’हाँ’

एक मिनट- क्या आपको मालूम है कि आज पॉलीग्राफ मशीन के खराब होने के कारण यहाँ उसके बदले दो पुलिस वाले हैं. एक हैं गेंगस्टरर्स के बीच खौफ का पर्याय बन चुके पांडू हवलदार और दूसरे है मिस्टर गंगटोक, एन्काऊन्टर स्पेश्लिस्ट- एक कसूरवार के साथ तीन बेकसूरवार टपकाते हैं. बाई वन गेट थ्री फ्री की तर्ज पर.

जबाब-अच्छा, मुझे मालूम नहीं था जी. मैने समझा था कि पॉलीग्राफ मशीन लगी है. मैं अपना जबाब बदलना चाहता हूँ.

नहीं, अब नहीं बदल सकते, अब तो ये ही पुलिस के लोग पता करके बतायेंगे कि आपने सच बोला था कि नहीं.

पांडू हवलदार, इनको जरा बाजू के कमरे में ले जाकर पता करो.

सटाक, सटाक की आवाजें और फिर कुछ देर खुसुर पुसुर. फिर शमशान शांति और सीन पर वापसी.

माईक पर एनाउन्समेण्ट: "बंदा सच बोल रहा है."

बधाई, आप ५००००० जीत गये. क्या आप आगे खेलना चाहेंगे?

नहीं..

उसे जाने दिया जाता है. जब प्रशासन (पुलिस वाले) उसके साथ है तो कोई क्या बिगाड़ लेगा. जैसा वो चाहेगा, वैसा ही होगा.

स्टूडियो के बाहर पांडू एवं गंगटोक और प्रतिभागी के बीच २५०००० और २५०००० का ईमानदारी से आपस में बंटवारा हो जाता है और सब खुशी खुशी अपने अपने घर को प्रस्थान करते हैं.

सीख: प्रशासन का हाथ जिस पर हो और जो प्रशासन से सांठ गांठ करने की कला जानता हो, वो ऐसे ही तरक्की करता है. माना कि मीडिया बहुत ताकतवर है लेकिन देखा न!! कहीं न कहीं उन्हें भी दबना ही पड़ता है.

यही है सत्य और यही है 'सच का सामना'!!!!

-समीर लाल 'समीर'

बुधवार, जनवरी 13, 2010

दूर हुए मुझसे वो मेरे अपने थे..

कल तक जो मेरे अपने थे, साथ साथ थे, कब किनारा कर बैठे, पता ही नहीं लगा. नये नये साथी जुड़ते गये और भीड़ में खोया मैं उन पुराने साथियों के लिए बस एक भ्रम पाले जीता रहा कि वो अब भी मेरे अपने हैं, मेरे साथ में हैं..

क्यूँ मैं भीड़ में रुक कर नहीं देखता कि जिनके साथ मैने सफर शुरु किया था, जो मेरे साथ मेरी जिन्दगी के कारवां से जुड़े थे, वो कहाँ हैं, किस हाल में हैं, क्या सोचते हैं. मेरे लिए, मेरे साथ भीड़ कितनी है जितना ही महत्वपूर्ण भीड़ किनकी है, जानना भी होना चाहिये.

मैं साथ निभाता रहा मगर जाने क्यूँ, बात जब एक तरफा हो जाती है, तो कुछ समय में समझ आ ही जाती है. एक तरफा झुकाव झुका हुआ दिखने ही लगता है स्वतः.. कब तक कोई नजर अंदाज कर सकता है आखिर इस यथार्थ को.

वैसे तो कौन जाने कि जिसे मैं कहता हूँ कि मैं साथ निभाता रहा, वो मात्र मेरा भ्रम हो और मैं मात्र इतना करता रहा कि मैं उन्हें सप्रयास नजर अंदाज नहीं कर रहा था मगर उनकी अनुपस्थिति संज्ञान में न लेना भी तो गलत ही है.

मैं रुकता हूँ. भीड़ के बीच अकेला महसूस करने लगता हूँ. समझने की कोशिश करता हूँ. कहीं मेरा ही कोई कदम गलत हुआ होगा. कहीं मुझसे ही कोई भूल हुई होगी. वो कुछ भूल करता तो मुझे दिखता. मुझे तो कुछ दिखा ही नहीं. मैं तो पूर्ववत साथ निभाता रहा. मैं तो पूर्ववत उसे साथ समझता रहा.

बात साफ है, उसका तो कोई दोष न होगा. दोष तो दिख ही जाते हैं. न भी दिखें तो महसूस हो जाते हैं. लाख दुर्गुणों के बावजूद दोष में यही सदगुण है कि वो अपने होने का अहसास किसी न किसी तरह करा ही देते हैं.

मैं यह तो जानता हूँ कि कहीं न कहीं, किसी न किसी जगह मेरे ही कदम गलत रहे होंगे. कहीं न कहीं मेरी ही कुछ बातें नाकाबिले बर्दाश्त गुजरी होंगी. पर नहीं जानता कौन सी. जानता होता तो ऐसा करता ही क्यूँ? शायद कर भी गुजरता किसी उन्माद में, तो उसे सुधारता और अपने किये की क्षमा मांगता, प्रयाश्चित करता.

वो मेरा अपना था जो आज किनारे हो दूर बैठा है. वो रुठा है. वो मुझसे नाराज है. मैं भी उसके लगातार बहुत बार मुझे अनदेखा कर देने के बाद यह बात जान पाया. मैं अनदेखा नहीं कर रहा था उसे और न ही उसके चेहरे पर ऐसे भाव थे, इसलिए जानने में भी वक्त लगा.

इतने समय का साथ था. उम्मीद बस यह थी कि जैसे अच्छे कार्यों में सराहना करता था खुले दिल से, वैसे ही गलत कदम पर भी टोकेगा, बतायेगा, साथ निभायेगा. मेरे तर्क सुनेगा. मुझे समझाने की कोशिश के साथ खुद भी मुझे समझने की कोशिश करेगा.

मैने यदि कोई कदम उठाया है तो मेरी नजरों में सही ही होगा, तभी तो उठाया है. उसे गलत लगा तो बताना उसका फर्ज था. फिर मैं अपने तर्क रखता. मानना और मानना उसका अधिकार क्षेत्र था. साथ बनाये रखना तो कतई बाध्यता न था किन्तु इस तरह बिना बताये दूरी बना लेना भी तो उचित नहीं.

ss

नाराज हो मुझसे?

लड़ो

मुझे कोसो

डाँटो

झगड़ो मुझसे

मगर

यूँ चुप रहकर...

मुझे

मौत से बदत्तर

जिन्दगी न दो!!

तुम तो मेरे अपने थे..

इतना उपकार करो मुझ पर!!!

-समीर लाल ’समीर’

(नोट-इस आलेख को पढ़कर कहीं भी आपको यह अहसास तो नहीं हुआ कि इस आलेख में मैं ब्लॉगजगत से संबंधित मित्रों की बात कर रहा हूँ? यदि नहीं, तो लेखन सफल रहा. मेरा पूरा श्रम इसी मुद्दे पर था कि सीधे सीधे कुछ न कहूँ.. :) वैसे तो किस्सा वही है-कभी उस जगत में..कभी ब्लॉगजगत में. क्या अंतर है?)

रविवार, जनवरी 10, 2010

हिन्दी ब्लॉगिंग- कौवा महन्ती!!!!

 

बूंद बूंद पानी को तरसते ऐसे इन्सान को भी मैने देखा है जो समुन्द्र की यात्रा पर निकला तो ’सी सिकनेस’ का मरीज हो गया. पानी ही पानी देख उसे उबकाई आने लगी, जी मचलता था. भाग कर वापस जमीन पर चले जाने का मन करता था. शुद्ध मायने में शायद यह अतिशयता का परिणाम था और शुद्ध भाषा में शायद इसी को अघाना कहते होंगे.

याद है मुझे, कुछ बरस पहले डायरी के पन्ने दर पन्ने काले करना. न कोई पढ़ने वाला और न कोई सुनने वाला. बहुत खोजने पर अगर कोई सुनने वाला मिल भी जाये तो यकीन जानिये कि वो बेवजह नहीं सुन रहा होगा. निश्चित ही या तो उसे आपसे कुछ काम होगा या वो भी अपने खीसे में डायरी दबाये सुनाने का लोभ पाले सुन रहा होगा.

नियमित लिखना, टाईप करना और फिर उसे सहेज कर लिफाफे में बंद कर संपादक को सविनय नम्र निवेदन के साथ भेजना. कुछ संपादक संस्कारी और अच्छे होते थे जो सखेद रचना वापस भेज देते थे वरना तो पता ही नहीं चलता था कि रचना कहाँ गई.

कभी किस्मत बहुत अच्छी निकली और किसी पहचान के माध्यम से यदि निःशुल्क छप भी गई तो संपादक की कैंची से गुजरने के बाद खुद की रचना को खुद पहचानना मुश्किल हो जाता था. शब्द ही नहीं, भाव भी बदले नजर आते थे.

समय परिवर्नशील है.

इन्टरनेट प्रचलन में आ गया, ब्लॉग खुल गये. अब आप ही लेखक और आप ही संपादक. जो जी में आये, छापो. ब्लॉग, छ्पास कब्जियत का रामबाण इसबगोल. औकात आपकी-मरजी आपकी, चाहो तो दूध से फांक लो या पानी से. कब्जियत निवारण की गारण्टी. आज सुनाने के लिए लोगों को खोजना नहीं होता, ये दीगर बात है कि हिन्दी ब्लॉगिंग में अभी भी सुनने वाले उसी टाइप के हैं जैसे पहले थे याने अपने खीसे में अपनी डायरी दबाये सुनाने का लोभ पाले सुनने वाले. थोड़े ही हैं जो इससे अलग हैं कि शौकिया सुनने चले आये.

इस प्रक्रिया में चूँकि सभी सुनाने वाले ही आपको पढ़ रहे हैं तो स्वभाविक तौर पर आप उनको, कम से कम, लेखन से जानने लगते हैं. तब अगर उन्हें आपका लिखा पसंद न आये या वो आपसे आपके लेखन को लेकर नाराज हो जाये तो कैसे बताये?

सीधे सीधे कह देने में आपके भी नाराज होकर बदला लेने का खतरा है या वो अपने नाम से इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाता कि वो सीधे आपसे कह दें कि क्या बकवास लिखा है. तब वह सुरक्षा बाबत या आत्मविश्वास बूस्टर हेतु बेनामी का कवच धारण कर आप पर वार करते हैं. आप चाहें तो उसका किया वार सबको दिखा दें और न चाहें तो उसके वार को डिलिट कर मिटा दें. इसमें साहस कैसा और कायरता एवं अकायरता कैसी?

जंगल के वासी हो तो फिर क्या शेर, क्या सियार और क्या चूहा? सब मिलेंगे और सबसे डील करना होगा अपने अपने तरीके से.शहर जा नहीं सकते, वहाँ लोग ढेला मारते हैं.

सब आपके हाथ में ही तो है, फिर इससे घबराना कैसा? इससे किसलिये नाराज होना? यहाँ ब्लॉगजगत के यही कायदे हैं-इन्हीं के साथ जीना होगा...याद करो सम्पादक का मौन या खेद सहित रचना की वापसी भी मौन धरे ऐसा ही कुछ कहती थी. तब तो आप कुछ नहीं कह पाये फिर अब? तब भी आपकी इच्छा थी कि चाहें तो दोस्तों को बतायें कि रचना वापस लौट आई है या चुप्पी मार जायें. अधिकतर तो चुप्पी ही मार जाया करते थे, क्यूँ?

कहीं छपास पीड़ा के निवारण की इतनी सारी स्पेस देख और इतने सारे सुनने वाले एक जगह इक्कठा देख अघा तो नहीं गये?  वही ’सी सिकनेस’??

ऐसे में एक ही रास्ता है मित्र कि जहाज किनारे लगा लो, उतर जाओ जमीन पर. मगर ध्यान रहे- यह वही जमीन है जहाँ से भाग निकले थे बूँद बूँद पानी की तरसन लिए.

चैन तो कहीं नहीं..

punch

 

ब्लॉग

मुझे

सुविधा देता है..

मैं मन में उठते भाव

जस का तस

लिख देता हूँ..

फिर

पाठकों की अदालत में

पेश कर

सो जाता हूँ..

रात गये

अंधेरे में

विचारता हूँ..

ये क्या लिख दिया मैने..

अपनी ऊँगलियाँ तोड़ देना चाहता हूँ..

तोड़ देना चाहता हूँ..

उस की-बोर्ड को

जिन पर इन ऊँगलियों की मदद से

टंकित किया था...

सुबह उठता हूँ..

देखता हूँ

पाठक कह रहे हैं

वाह!! वाह!!

बहुत सुंदर..!!!.

और

मैं मुस्कराते हुए

अपनी उजबक सोच

को सर झटक कर

अलग कर देता हूँ

और

मार देता हूँ

उस अकेले बेनामी पाठक की सोच को

जिसकी सोच अक्षरशः

मेरी सोच से मिलती थी..

’कौवा महन्ती’ के

अपने कायदे हैं!!

-समीर लाल ’समीर’

बुधवार, जनवरी 06, 2010

सर मेरा झुक ही जाता है...

अक्सर जब तक कोई विशेष मजबूरी नहीं होती, मैं उस गली से गुजरने से रोकता हूँ खुद को. जानता हूँ, उस गली को छोड़ कर दूसरा रास्ता लेने में मुझे लगभग दोगुनी दूरी तय करनी पड़ती है फिर भी.

कुछ विशेष वजह भी नहीं. कुछ सड़क छाप आवारा कुत्ते हैं, वो दिन भर उस गली को छेके रहते हैं. हर आने जाने वाले पर भौंका करते हैं. पीछे पीछे आते हैं. छतरी दिखाओ तो डर कर दुम दबा कर भाग जाते हैं मगर भौंकते हैं. एक बार तिवारी जी को दौड़ाया भी था मगर काटा नहीं. तिवारी जी ने ही बताया था.

dogs

तमाशबीन बने गली में रहने वाले न जाने क्यूँ इस बात पर मुस्कराते हैं मानो चिढ़ा रहे हों. क्या मालूम मुस्कराते भी है या उनका मूँह ही वैसा है. मैने हमेशा, जब कभी मजबूरी में उस गली से गुजरना पड़ा, उनका मूँह वैसा ही देखा है मानो मुस्करा रहे हों.

वो भी तो निकलते होंगे उसी गली में. उनकी तो मजबूरी है है कि वो रहते ही उस गली में है. कुत्तों का क्या है वो तो आवारा हैं, वो तब भी भौंकते होगे. बाकी रहवासी भी शायद तब भी चिढ़ाने को मुस्कराते हों. उनका तो मूँह ही वैसा है. क्या पता!

मेरे घर से दक्षिण में कुछ मकान छोड़ कर एक बरगद का पेड़ है. रात अंधेरे उस तरफ देखो तो बड़ा अजीब सा दिखता है, भयावह. जाने कौन शाम को उसके चबूतरे पर दिया जला कर रख जाता है. टिमटिमाता दिया देर रात तक जलता रहता है. दूर से देखने पर जान पड़ता है को कोई जानवर बैठा है और उसकी आँख टिमटिमा रही है. जानवर भी कैसा-एक आँख वाला. कोशिश तो करता हूँ कि रात गये उस तरफ न जाऊँ मगर कभी मजबूरी में जाना भी पड़ा तो मेरी नजर उस पेड़ को बचा कर निकलती है हमेशा.

जैसे जैसे पेड़ पास आता जाता है, मेरी धड़कने असहज होने लगती हैं. पेड़ भौंकता तो नहीं मगर कभी अजीब सी आवाजें करता है तो कभी डरावना सन्नाटा खींच लेता है. मुझे दोनों हालतों में उसके पास से गुजरने में परेशानी होती है. अक्सर देर रात लौटने में उस गली को छोड़ता, दक्षिण की बजाय और थोड़ा ज्यादा लम्बा रास्ता लेकर उत्तर की तरफ से घूम कर घर जाता हूँ.

आज तक वैसे न तो उन कुत्तों ने काटा और न ही पेड़ ने परेशान किया मगर वो शायद इसलिए कि मैं उनसे बच कर निकलता हूँ या फिर शायद यह सब मेरे भीतर का एक वहम बस हो लेकिन है तो.

ऐसे ही कितने वहम, कितने पूर्वाग्रह और कितने डर पाले मैने अपनी मंजिल को कितना दूर और अपने रास्ते को कितना लम्बा बना लिया है. थकान होने लग जाती है कभी कभी.

एक इच्छा है कि कभी सहज और सरल जीवन जी पाऊँ मगर लगता तो नहीं.

ये डर, ये पूर्वाग्रह और ये वहम-जाने किसने, कब और किन बातों से मेरे भीतर तक उतार दिये हैं. ठीक वैसे ही जैसे की मेरे संस्कार.

शायद कभी न बदलें.

चलते चलते:

मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा
सर मेरा झुक ही जाता है.

माँ ने ये सिखाया था मुझे.

-समीर लाल 'समीर'

माँ बाप की बचपन की समझाईश ऐसे ही तो संस्कार बन जाती है, किसी के भी व्यक्तित्व का हिस्सा.

कहने को बस यूँ ही: माँ बाप बच्चों को शैतानी से रोकने की लिए अक्सर कह देते हैं कि साधु बाबा ले जायेगा, या पुलिस पकड़ लेगी या वहाँ भूत रहता है. आपको क्षणिक आराम मिल सकता है मगर प्लीज, एक डरा हुआ मैं और न बनायें. जरा सोचे. और भी तो तरीके हैं बच्चों की शैतानियाँ रोकने के. उन्हें अपनाईये!!

रविवार, जनवरी 03, 2010

देखा कैसे चल दिया, बिना कहे यह साल

आज महावीर जी  के ब्लॉग पर नव वर्ष का कवि सम्मेलन आयोजित किया गया है. बेहतरीन और नामी गिरामी कवियों के बीच मुझ अदना से कवि को भी स्थान दिया गया है, बहुत आभार आयोजक मंडल का.

मेरे इस गीत को स्वरबद्ध कर अनुग्रहित किया है काव्य मंजूषा ब्लॉग की  स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा' जी ने. सुनने के लिए नीचे प्लेयर पर जायें.

 

देखा कैसे चल दिया, बिना कहे यह साल
बरसों बीते देखते, इसका ऐसा हाल...

अबकी उसके साथ था, मन्दी का इक दौर
लोग राह तकते रहे, मिल जाये कहीं ठौर
जाने कितनों को किया, उसने है बेहाल...
देखा कैसे चल दिया, बिना कहे यह साल....

सूखे ने दिखला दिया,महंगाई का नाच
पण्डित बैठा झूठ ही, रहा किस्मतें बांच
कहीं बाढ़ आती रही, खाने का आकाल
देखा कैसे चल दिया, बिना कहे यह साल....

मेहनत से हम न डरें, खुद पर हो विश्वास
विपदा से हम लड़ सकें, हिम्मत रखना पास
गुजर गया है जान लो, संकट का ये काल
देखा कैसे चल दिया, बिना कहे यह साल....

इक आशा हैं पालते, नये बरस के साथ
दे जाये हमको नई, खुशियों की सौगात
हाथों में लेकर खड़े, आरत का यह थाल
देखो वो है आ रहा, नया नवेला साल...

देखा कैसे चल दिया, बिना कहे यह साल
बरसों बीते देखते, इसका ऐसा हाल...

-समीर लाल ’समीर’

उपरोक्त गीत को सुनिये ऑटवा, कनाड़ा की ब्लॉगर सुश्री स्वपन मंजुषा शैल ’अदा’ जी की मधुर आवाज में:

 

swapna