--ख्यालों की बेलगाम उड़ान...कभी लेख, कभी विचार, कभी वार्तालाप और कभी कविता के माध्यम से......
हाथ में लेकर कलम मैं हालेदिल कहता गया
काव्य का निर्झर उमड़ता आप ही बहता गया.
सोमवार, अगस्त 25, 2008
कैनिडियन पंडित-विदेशी ब्राह्मण!!!
वो प्रेमी युगल बात बात में एक दूसरे को लिप टू लिप किसिंग कर रहा है. आते ही- एक किस्स, कैसी हो-एक किस्स--मैं ठीक हूँ-एक किस्स-अच्छा लगा तुम ठीक हो-एक किस्स, तुम्हारा ईमेल मिला-एक किस्स. अरे, ईमेल मिलने का किस्स देने लगें तो हमारा तो दिन १५० से कम किस्स में खतम ही न हो और उपर से वो मास फारवर्ड वाले, किस्स करने के लिए एक दो कर्मचारी रखवा कर ही मानें.
हर बात पर किस्स!! ट्रेन रुक गई-तो किस्स. ट्रेन चल दी-तो किस्स, ट्रेन चल रही है-तो किस्स, ट्रेन रुकी है-तो किस्स!! गजब है भई!!!
मेरी आँख किताब में गड़ी, कान उनकी बातों पर टिके और ट्रेन अपनी रफ्तार में दौड़ी. बीच बीच में कनखियों से उन पर नजर. सीधे भी नजर रखे रहता तो उनको कोई फर्क न पड़ता मगर मेरे हिन्दुस्तानी संस्कार आड़े आ रहे थे.
उसने कहा-मैं अपना पैक्ड खाना ले आया हूँ-एक किस्स-फ्री मिला-एक और किस्स-सो गुड-एक किस्स-तुम क्या बनाओगी अपने लिए-एक किस्स- चिकिन बेक्ड-सो डिलिसियस-एक किस्स-कीप द लेफ्ट ओवर फॉर टुमारो लंच-मेरा खाना बाहर है-एक और गहरा किस्स. किस्स किस्स किस्स!!
मन तो किया कि पूछूँ-क्यूँ भई आप ये करते करते बोर नहीं हो जाते. मगर उनका जबाब क्या होगा, यही न कि जब भी बोर होते हैं-एक किस्स!! सो नहीं पूछा.
गिनते गिनते गिनती खत्म होने को आई, मगर उनके किस्स का आदान प्रदान खत्म न हुआ. धन्य है-४५ मिनट के सफर में जितने किस्स उन्होंने किये-और हम अतीत में झांक कर देखते हैं तो हमारे और पत्नी के बीच सारे जीवन के किस्स-हम हार गये. कॉस्य पदक की तो छोड़ो-क्वालिफाई तक नहीं कर रहे. भारतीय हैं तो ओलंपिक हॉकी की भांति ही बुरा नहीं लगा. अमरीकन होते तो डूब मरते मगर हारना भी एक आदात होता है, एक सांस्कृतिक विरासत होता है जो हमें भारतीय होने की वजह से स्वतः प्राप्त है- सो चल गया. ये दीगर बात है कि महर्षि वात्सायन ने कामसूत्र हमारे मोहल्ले में बैठ कर लिखी थी- सो तो हॉकी के जादूगर ध्यान चन्द भी हमारे ही स्कूल से पढ़े थे.
हम ऐसा सोचने लगे कि ये दोनों सारा होमवर्क यहीं ट्रेन में निपटा लेंगे तो घर जाकर करेंगे क्या? लाईफ स्टाईल मैग्जीन ने ज्ञानवर्धन किया कि पति महोदय घर जाकर बियर पीते हुए सोफे पर बैठ कर टी वी पर बास्केट बॉल देखेंगे और पत्नी सिर्फ अपने लिए खाना बनाते हुए अपनी सहेली से नई रेसिपि पर फोन पर बात करेगी. फिर थक कर दोनों सो जायेगे और सुबह ५ बजे उठकर दफ्तर जाने की जद्दोजहद. कठिन जिन्दगी है!!
आत्मग्लानि आत्मविश्लेषण की जननी है-इस सिद्धांत के तहत हम आत्मविश्लेषण करने में जुट गये.
पिछले बरस भी एक ऐसा ही जोड़ा जो बात बात में या बात बेबात में चुम्बन यज्ञ मे बिला जाता था, सामने बैठा करता था. इस बरस, दोनों सामने से हट कर कुछ दूर वाली सीट पर बैठते हैं अलग अलग दिशा में मगर अपने अपने नये साथियों के साथ. क्रियायें और भंगिमाऐं प्रायः वही हैं.
निष्कर्ष स्वरुप जिस फल की प्राप्ति मैने की, वह आम से कम मीठा मगर फिर भी मीठा सा ही नजर आया.
मुझे यह कैनेडियन पंडित यानि विदेशी ब्राह्मण टाइप आईटम लगे. वो पंडित जो दिन भर मंदिर में राम राम जपते हैं मगर दिल में बस एक उम्मीद कि कोई जजमान फंसे और वो उसे लूटें. सारा जैव रस इसी लूटम लाट को निछावर. भगवान गये तेल लेने, नोट आयें तो काम बने. भगवान का नाम नोट लाने के हाईवे की तरह- बस, दौड़े चले जाओ. छल एवं दिखावा ही परम धर्म!!
ये वो साधु संत हैं, जो यह बताने के लिए लाखों रुपये बतौर फीस लेते हैं कि धन की जीवन में कोई महत्ता नहीं-धन त्यागो और बैकुंठ का फ्री पास लो. रोज सुबह टीवी पर दाढ़ी खुजाते उज्जवल सफला वस्त्र धारण किए और अपने नाम के साथ महाराज या बापू जोड़े गाँधी जी को गाली बकते सबको ब्रह्मचर्य का पाठ पढ़ाते और अपने बेटे पर कोई कंट्रोल बिन हवा में पिचकारी चलाते सभी प्रकार के धतकर्मों में लीन ये बाबा, बिल्कुल ऐसे ही नजर आते हैं.
वो सारा जीवन रस जो हम पति पत्नी अपने रिश्तों क दीर्घजीवी बनाये रखने के लिए सरेस की तरह बचाये रखते हैं, उसे ये किसिंग में लुटाये दे रहे हैं. यह पंडितों की तरह मंत्रोच्चार के दिखावे के बिलिवर हैं और हम एक आम भक्त जो दिल में श्रृद्धा को जगह देता है, मौन रहता है और परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना करता है कि हमारा वैवाहिक जीवन सुखमय बीते की तरह. भले हम बास्केट बॉल न देख पायें, मगर जो भी रुखी सूखी मिले, मिल बांट कर खायें. आधा तुम, आधा हम.
साधु संत तुम्हें मुबारक-हमें हमारी मुक्ति का मार्ग मालूम है. परिवार बंधा रहे-बच्चे लोन मुक्त पढ़कर परिवार के साथ यथा संभव रहते रहें, अपने परिवारिक दायित्व समझें और उन दायित्वों के प्रति सजग रहें और हम उन पर भरसंभव बोझ न बन मार्गदर्शक बनें रहें, इसे ही हम मुक्ति का मार्ग समझते हैं और हम इससे खुश हैं.
आपको आपकी कनैडियन पंडिताई और संतई मुबारक...एन्जॉव्य किजिये. हेव फन!!! हेव एनदर किस्स!!
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नोट:कनाडा में कम उपलब्ध गरमियाँ चल रही हैं. शायद एक दो हफ्ते के और मजे. फिर वही ठंड और सब घर में पैक. अतः सप्ताहंत घूमने फिरने और बाह्य कार्यक्रमों में उपयोग किये जा रहे हैं. अभी राजधानी ऑटवा से तीन दिन बाद वापस आया हूँ, अतः पिछले तीन दिन से कोई टीप नहीं कर पाया अब कोशिश कर कुछ देखता हूँ कल!!! अगला सप्ताहंत भी लॉस वेगस (विश्व की जुआ राजधानी) का कार्यक्रम है.
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बुधवार, अगस्त 20, 2008
अंदर की बात!!!
क्या आप में से कोई छात्र इस विषय पर कुछ कह सकता है?
’सर, परिभाषा तो नहीं मगर उदाहरण से बता सकता हूँ.’ यह वही छात्र है जिसने पिछली बार निबंध में टॉप किया था.
मैं बहुत खुश हुआ कि अगर उदाहरण से बता देगा तो परिभाषा सिखाना तो बहुत आसान हो जायेगा.
’सर, आपने अभी कहा कि मास्साब छुट्टी पर हैं, यह बाहर की बात है और असल में मास्साब को छुट्टी पर भेजा गया है क्यूँकि उन पर हमारे निबंध चुरा कर छापने की इन्क्वायरी चल रही है, यह अंदर की बात है.’
चुप रहो-मैं मास्साब की बची खुची इज्जत पर डांट का पैबंद लगाने की मित्रवत कोशिश करता हूँ. तुम लोग बस शारीफ लोगों को बदनाम करना जानते हो.
अब मैं उनको बोलने का मौका न देते हुए परिभाषा पर आ जाता हूँ:
दरअसल, बाहर की बात वह होती है जो अंदर से आती है बाहर सबको बतलाने के लिए और सामन्यतः उसी के द्वारा भेजी जाती है, जिसके विषय में बात है. अंदर की बात सामन्यतः बाहर से बाहर के लिए आती है और सामन्यतः अंदर से टूटे हुए व्यक्ति द्वारा भेजी जाती है.
उदाहरण के लिए, संसद में चमका चमका कर दिखाया गया कि हमें १ करोड़ घूस दी गई. यह बाहर की बात कहलाई एवं यह उन्हीं के द्वारा कही गई जिन्हें घूस मिली. इसमें अंदर की बात यह है कि घूस दरअसल २५ करोड़ मिली और यह बात उसने बताई जिसने घूस दिलवाने के लिए अंदर के आदमी का काम किया-देयता और ग्रेहता के बीच सेतु के समान.
मगर सर हमने तो सुना था कि अंदर की बात अक्सर अफवाह होती है! यह फिर वही विद्व छात्र पूछ रहा है.
बेटा, अंदर की बात स्वभाववश अफवाह जैसी ही लगती है किन्तु अफवाह और अंदर की बात के बीच एक बारीक धागे जैसी लकीर का विभाजन है इसे ज्ञानी लोग समझ जाते हैं और मौका देख कर किनारा कस लेते हैं जैसे अडवानी जी ने इस घूस कांड में किया. अफवाह अक्सर कोरी बकवास होती है जबकि अंदर की बात मूलतः ठोस. अतः यह अंतर करना सीखना परम आवश्यक है और यह मात्र अनुभव से आ सकता है. जिस तरह घाघ नेता बनने की कोई किताबी पाठशाला नहीं है, बस अनुभव से बना जा सकता है, ठीक वैसे ही इसे पहचानने के लिए भी मात्र अनुभव की ही आवश्यक्ता है.
जैसे उदाहरण के तौर पर अमरीका का कहना कि इराक के पास वेपन ऑफ मास डिस्ट्रक्शन हैं, यह बाहर की बात थी असल में अंदर की बात यह थी कि इराक के पास तेल के लबालब कुएं थे, जिस पर अमरीका की नजर थी.
एक अन्य उदाहरण के माध्यम से यह बात समझने की कोशिश करो कि अडवानी जी चिल्ला रहे थे कि परमाणु करार नहीं होना चाहिये, यह बाहर की बात थी यानि मात्र जनता के लिए दिखावा. पुख्ता बात यह थी कि होना तो चाहिये मगर हमारे शासन काल में, न कि कांग्रेस के.
बाहर की बात है मनमोहन सिंग कहते है यह परमाणु संधि देश हित में है. इसमें अंदर की बात का विशिष्ट उदाहरण है कि मैडम ने ऐसा कहने को कहा है बाकि तो मनमोहन सिंग को खुद नहीं मालूम कि किसके हित में है. यह अपने आप में एक विचित्र उदाहरण है.
ऐसा ही अपवाद एक और है कि जब अंदर की बात कई बार अंदर से ही धीरे से बाहर करवा दी जाती है बाहर वाले के द्वारा जो अंदर का आदमी होता है-जैसे कि अडवानी जी नहीं चाहते कि मायावती प्रधान मंत्री बने.
मगर सर, यह बात तो बाहर से बाहर आई थी, बालक कुतहलवश पूछ रहा है.
हाँ मगर भिजवाई तो अंदर ही से थी, मैने बताया.
अन्य भारतीय समस्यायों के जंजाल में फंसी आम जनता जिस तरह इन नेताओं की चालों और बयानों से कन्फ्यूज होकर चुप बैठ जाती है, कुछ वैसे यह छात्र भी अपनी कुर्सी पर वापस बैठ गया.
इसी तरह अपवादवश कभी बाहर की बात बाहर से ही अंदर वाला बाहर वालों के लिए अंदर के व्यक्ति के द्वारा कहलवा देता है जिसका उम्दा उदाहरण अटल जी के समस्त संदेश स्व. महाजन जी द्वारा प्रसारित किए जाना था.
अब बालक और ज्यादा कन्फ्यूज था, शायद किसान होता तो आत्महत्या कर लेता मगर सारांश में इतना समझ पाया कि बाहर की बात झूठी और अंदर की बात सच्ची, अगर अफवाह न हुई तो और अफवाह और अंदर की बात के बीच भेद करना अभी उसके लिए बिना अनुभव के संभव नहीं.
फिर भी हिम्मत जुटा कर वो पूछ ही लेता है कि फिर वो मास्साब की चोरी की इन्क्वायरी वाली बात तो अंदर की बात कहलाई.
मुझे जबाब नहीं सुझता और मैं सर दर्द का बहाना बना कर निकल लेता हूँ यह कहते हुए कि जब तुम्हारे मास्साब आ जायें, तो उनसे पूछ लेना.
बुधवार, अगस्त 13, 2008
बारिशों का मौसम है...
एक से एक लिख्खाड़, एक से एक कवि, एक से एक आवाज के धनी पॉड कास्टर और उन सब से बढ़ कर एक से एक शब्दों के जादूगर गद्यकार. नाम तो खैर किसी का नहीं लेता मगर सब मिल जुल कर एक ही काम करते हैं: मेरा खून जलाते हैं और मैं सोचता रह जाता हूँ फिर वही..काश!!! हम ये क्यूँ न हुए.
यह सब तो बस सोच की बातें हैं. शायद और भी ऐसा ही सोचते हों. मुझे क्या पता.
कुछ दिन पहले महावीर जी और प्राण शर्मा जी से बात चलती थी. वो ऑन लाईन मुशायरा कर रहे थे. बड़ा भव्य आयोजन किया. मुझे जैसे कवि को भी न जाने किस सोच में आमंत्रित कर लिया और मैने अपने आपको धन्य महसूस किया. उनकी गल्ती और धन्य हम हो लिये. बड़े बड़े कवि/ कवियत्री शिरकत कर रहे थे, हम भी बीच में ठस लिये. अपनी सबसे बेहतरीन, अपनी समझ से, कविता भेज दी. तब पता चला कि लिस्ट से नाम कट जायेगा क्यूँकि बारिश पर लिखना है. समय कम, पुरानी लिखी में कोई बारिश पर लिखी नहीं..क्या करें. लगे जल्दी जल्दी लिखने. आखिर ऐसे मौके कब आ पाते हैं जब इतने बड़े नामों के साथ आप खड़े हों और इतने नामी गिरामी आय्जक आपको निमंत्रण दें. जल्दी जल्दी जो बन पड़ा, भेज दिया. आप भी पढ़ें और इन पॉड कास्टरर्स के चलते, सुनें भी:
पहले बारिश पर एक दोहा सुनें:
बारिश बरसत जात है, भीगत एक समान,
पानी को सब एक हैं, हिन्दु औ’ मुसलमान.
अब एक गीत:
बारिशों का मौसम है प्रिय! तुम चले आओ..
सांस सावनी बयार, बन के कसमसाती है
प्रीत की बदरिया भी ,नित नभ पे छाती है
इस बरस तो बरखा का ,तुमहि से तकाजा है
मीत तुम चले आओ ,ज़िन्दगी बुलाती है
बारिशों का मौसम है प्रिय! तुम चले आओ..
खिल उठे हैं फूल फूल, भ्रमर गुनगुनाते हैं
रिम झिमी फुहारों की, सरगमें सुनाते हैं
उमड़ घुमड़ के घटा, भी तो यही कहती है
साज बन के आ जाओ, रागिनि बुलाती है.
बारिशों का मौसम है प्रिय! तुम चले आओ..
झूम रही है धरा ,ओढ़ के हरी ओढ़नी
किन्तु है पिपासित बस ,एक यही मोरनी
इससे पहले दामिनी ,नभ से दे उलाहने
प्रीत बन चले आओ, प्रेयसि बुलाती है
बारिशों का मौसम है प्रिय! तुम चले आओ..
--समीर लाल 'समीर'
पुनः एक बार आभार, महावीर जी का और प्राण शर्मा जी का.
यहाँ सुनिये यह कविता:
गुरुवार, अगस्त 07, 2008
अगले जनम मोहे बेटवा न कीजो...
अगले जनम मोहे बेटवा ना कीजो ऽऽऽऽ
अगले जनम मोहे बेटवा न कीजो!!
अब के कर दिये हो, चलो कोई बात नहीं. अगली बार ऐसा मत करना माई बाप. भारी नौटंकी है बेटा होना भी. यह बात तो वो ही जान सकता है जो बेटा होता है. देखो तो क्या मजे हैं बेटियों के. १८ साल की हो गई मगर अम्मा बैठा कर खोपड़ी में तेल घिस रहीं हैं, बाल काढ़ रही हैं, चुटिया बनाई जा रही है और हमारे बाल रंगरुट की तरह इत्ते छोटे कटवा दिये गये कि न कँघी फसे और न अगले चार महिने कटवाना पड़े. घर में कुछ टूटे फूटे, कोई बदमाशी हो बस हमारे मथ्थे कि इसी ने की होगी. फिर क्या, पटक पटक कर पीटे जायें. पूछ भी नहीं सकते कि हम ही काहे पिटें हर बार? सिर्फ यही दोष है न कि बेटवा हैं, बिटिया नहीं.
बेटा होने का खमिजियाना बहुत भुगता-कोई इज्जत से बात ही नहीं करता. जा, जरा बाजार से धनिया ले आ. फलाने को बता आ. स्टेशन चला जा, चाचा आ रहे हैं, ले आ. ये सामान भारी है, तू उठा ले. हद है यार!!
जब देखो तब, सारा फेवर लड़की को. अरे बेटा, कुछ दिन तो आराम कर ले बेचारी, फिर तो पराये घर चले जाना है. उनके लिए खुद से क्रीम पावडर सब ला ला कर रखें और वो दिन भर सजें. सिर्फ इसलिये कि कब लड़के वालों को पसंद आ जाये और उसके हाथ पीले किये जायें. हम जरा इत्र भी लगा लें तो दे ठसाई. पढ़ने लिखने में तो दिल लगता नहीं. बस, इत्र फुलेल लगा कर शहर भर लड़कियों के पीछे आवरागर्दी करते घूमते हो. आगे से ऐसे नजर आये तो हाथ पैर तोड़ डालूंगा-जाओ पढ़ाई करो.
बिटिया को बीए करा के पढ़ाई से फुरसत और बड़े खुश कि गुड सेकेंड डिविजन पास हो गई. हम बी एस सी मे ७०% लाकर पिट रहे हैं कि नाक कटवा दी. अब बाबू के सिवा तो क्या नौकरी मिलेगी. अभी भी मौका है थोड़ा पढ़ कर काम्पटिशन में आ जाओ, जिन्दगी भर हमारी सीख याद रखोगे. पक गया मैं तो बेटा होकर.
जब कहीं पार्टी वगैरह में जाओ कोई देखने वाला नहीं. कौन देखेगा, कोई लड़की तो हैं नहीं.
-लड़का लड़की को देखे तो आवारा कहलाये और कोई लड़की देखे तो उनकी नजरे इनायत.
-लड़की चलते चलते टकरा जाये तो मुस्कराते हुए सॉरी और हम टकरा जाये तो ’सूरदास है क्या बे!! देख कर नहीं चल सकता.’
-उनके बिखरे बाल, सावन की घटा और हमारे बिखरे बाल, भिखारी लगता है कोई.
-उनके लिए हर कोई बस में जगह खाली करने को तैयार और हमें अच्छे खासे बैठे को उठा कर दस उलाहने कि जवान होकर बैठे हो और बुजुर्गों के लिए मन में कोई इज्जत है कि नहीं-कैसे संस्कार हैं तुम्हारे.
हद है भई इस दोहरी मानसिकता की. हमें तो बिटिया ही कीजो, नहीं तो ठीक नहीं होगा, बता दे रहे हैं एक जन्म पहले ही. कोई बहाना नहीं चलेगा कि देर से बताया.
ऑफिस में अगर लड़की हो तो बॉस तमीज से बात करे, कॉफी पर ले जाये और फटाफट प्रमोशन. सब बस मुस्कराते रहने का पुरुस्कार और हम डांट खा रहे हैं कि क्या ढ़ीट की तरह मुस्कराते रहते हो, शरम नहीं आती. एक तो काम समय पर नहीं करते और जब देखो तब चाय के लिए गायब. क्या करें महाराज, रोने लगें? बताओ?
अगर पति सही आईटम मिल जाये तो ऑफिस की भी जरुरत नहीं और आराम ही आराम. जब जो जी चाहे करो बाकी तो नौकर चाकर संभाल ही रहे हैं. आखिर पतिदेव आईटम जो हैं. जब मन हो सो कर उठो, चाय पिओ, नाश्ता करो और फिर ठर्रा कर बाजार घूमों, टीवी देखो, ब्लॉगिंग करो..फिर सोओ. रात के लिए क्या बनना है नौकर को बता दो, फुरसत!! क्या कमाल है, वाह. काश, हम लड़के भी यह कर पायें.
क्या क्या गिनवाऊँ, पूरी उपन्यास भर जायेगी मगर दर्द जरा भी कम न होगा. रो भी नहीं सकता, वो भी लड़कियों को ही सुहाता है. उससे भी उनके ही काम बनते हैं. हम रो दें तो सब हँसे कि कैसा लड़का है? लड़का हो कर रोता है. बंद कर नौटंकी. भर पाये महाराज!!
बस प्रभु, मेरी प्रार्थना सुन लो-अगले जनम मोहे बेटवा न कीजो. हाँ मगर ध्यान रखना महाराज, रंग रुप देने में कोताहि न बरतना-इस बार तो लड़के थे, चला ले गये. लड़की होंगे तो तुम्हारी यह नौटंकीबाजी न चल पायेगी. जरा ध्यान रखना, वर्कमैनशिप का. उपर वाली फोटू को सुपरवाईजरी ड्राईंग मानना, विश्वकर्मा जी. १९/२० चलेगा-खर्चा पानी अलग से देख लेंगे.
ब्लॉगिंग स्पेशल: अगर लड़की होऊँ तो कुछ भी लिखूँ, डर नहीं रहेगा. अभी तो नारी शब्द लिखने में हाथ काँप जाते हैं. की-बोर्ड थरथरा जाता है. हार्ड डिस्क हैंग हो जाती है कि कहीं ऐसा वैसा न लिख जाये कि सब महिला ब्लॉगर तलवार खींच कर चली आयें. हालात ऐसे हो गये हैं कि नारियल तक लिखने में घबराहट होती है कि कहीं नारियल का ’यल’ पढ़ने से रह गया, तो लेने के देने पड़ जायेंगे. इस चक्कर में कई खराब नारियल खा गये मगर शिकायत नहीं लिखी अपने ब्लॉग पर.
बस प्रभु, अब सुन लो इत्ती अरज हमारी...
अगले जनम में बना देईयो हमका नारी..
चित्र साभार: गुगल ईमेज
सोमवार, अगस्त 04, 2008
कुछ तो बदलना चाहिये!!
यूँ भी एक न एक दिन तो नहीं ही रहना था-काल करे सो आज कर-की तर्ज पर आज ही नहीं रहे. सामने सामने प्यार से सब उन्हें बाबू जी कहते थे.
बहुत ही भले आदमी थे हर स्वर्गवासी की तरह. अंतर बस इतना था कि वो जब तक जिन्दा रहे, दूसरों की तकलीफों के प्रति अति संवेदनशील थे. मरने के बाद का पता नहीं मगर शायद मरते वक्त उन्हें आभास नहीं हो पाया होगा कि वो जा रहे हैं अन्यथा मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि किसी को कोई तकलीफ न हो इसलिये वो खुद ही पाँच मिनट पहले बस से शमशान चले जाते और चिता पर लेट कर ही अंतिम सांस लेते याने कि पर-तकलीफ के प्रति संवेदनशीलता की पराकाष्टा.
अन्य मित्रों की भाँति मैं भी शमशान गया था उनको अंतिम विदाई देने. बिल्कुल गमगीन चेहरा, आँख पर काला चश्मा और मूँह में पान मसाला कि भूले से भी कोई शब्द न फूटे. बस, मौन की आवाज, सामने जलती चिता, हवाओं की सरसराहट, पसीने की चिपचिप और शमशान का सन्नाटा. गम का इससे बेहतर सीन क्या हो सकता है?
पूरा माहौल सेट मगर कुछ नालायक किसम के लोग पास ही खड़े हँसी मजाक भी कर रहे थे और अनाप शनाप राजनिती से लेकर शहर की बिजली, पानी की कभी न हल हो सकने वाली शास्वत समस्या पर कभी न खत्म होने वाली शास्वत बातचीत. मुझे ऐसे लोग पसंद नहीं. अरे भाई, गम का माहौल है, कुछ देर मत हंसों, कुछ देर इन समस्याओं को दर किनार करो. गम में शामिल रहो. ऐसे नहीं चुप रह सकते तो पान दबा लो सुरती वाला मगर चुप रहो. खराब लगता है जिसके घर गमी हुई है उसे. उसकी मजबूरी है वो चाह कर भी हँस नहीं सकता और उसे तो मूँह उतारे खड़े ही रहना है और तुम हो कि मूँह बाये तो ऐसा कि बंद ही नहीं कर रहे हो.
वो तो खुद ही जल्दी में है, आधे घंटे भी उसे भारी लग रहे हैं. क्या तुम उतना भी साथ नहीं दे सकते? कैसे दोस्त हो यार? देखा नहीं, कितनी फटाफट धोती पहनी. चिता के दो चक्कर काट कर लगे पंडित की तरफ देखने और फिर उसके कहने पर दौड़ कर तीसरा चक्कर काटा. फट से दाग दी और जल्दी आग पकड़े इसलिये दनादन धौंख मरवाई. इधर से घी डालो, उधर से घी डालो-ये दूसरे भाई बोल रहे हैं जिन्होंने दाग नहीं दी. वो भी लगे हैं जल्दी आग पकड़े. पांच मिनट पहले से ही कपाल क्रिया के लिये लट्ठ उठाये खड़े पंडित जी की तरफ ताक रहे हैं कि कब वो कहें और ये सर फोड़े. चंदन फैंके और घर निकलें. गर्मी भी तो कितनी है? सर पर सीधे तपता सूरज और सामने चिता का ताप. बाप रे बाप!!
बाबू जी तो निकल लिये और सुना है उपर तो बढ़िया ठंडक रहती है. हवाई जहाज में बाहर का तापमान बताता है एकदम ठंडा हर समय, तब ये तो उससे भी उपर निकले हैं. न धूल, न धक्कड़-पोल्यूशन फ्री-कूल कूल. अब तक तो वो डेस्टीनेशन पर टच कर रहे होंगे-कोई भारतीय रेल से तो गये नहीं हैं कि चले जा रहे हैं-गंतव्य आ ही नहीं रहा या फिर नोयडा से कनॉट प्लेस जा रहे हों कि ट्रेफिक में फंसे के फंसे ही रह गये और सुबह से शाम हो ली.
फिर सब लोग वहीं पेड़ के नीचे जमा हुए. भाषण अधिभार हमारा क्षेत्र था सो चबूतरे पर मित्र हमारे बाजू में सर झुकाये खड़े हो लिये और बोले हम, भारी भर्राई आवाज में:
" बाबू जी नहीं रहे. वे व्यक्ति नहीं, एक युग थे. आज एक युग समाप्त हुआ आदि आदि जरुरी व्यवहारिक फैशनारुप नियमित अंतिम क्रिया के बाद की बातें. आदतन बीच में एक पुराना शेर भी ठेल दिया:
जिन्दगी मानिंद बुलबुल शाख की,
दो पल बैठी, चहचहाई और उड़ चली"
कवियों के साथ ये बीमारी है. मंच दिखा, श्रोता दिखे और मन मचल उठता है. सो, मैं बीमार, लोभ संवरण न कर पाया. फिर कब अस्थि संकलन है आदि के बाद दो मिनट के नाम पर ३० सेकेंड का मौन रख फुर्ती से विदाई.
खैर, बाबू जी चले गये ठंडे में और पीछे रह गये उनके पुत्र याने हमारे मित्र गर्मी में-एकदम खड़ी धूप. यही होता है जब गर्मी में सर से साया हट जाये. शायद किसी के बुजुर्ग ऐसी ही गरमी में निकल लिये होंगे और शमशान चिंतन तो जग प्रसिद्ध है, तब उसी चिंतन के क्षणों में उसने यह कहावत रची होगी:
"बुजुर्ग एक वट वृक्ष से साये की तरह होते हैं."
इस बीच एक दो बार और भी उनके घर जाना हुआ. सब रिश्तेदारों का जमावड़ा. कहीं नाश्ता चाय. कहीं मामा गाना अच्छा गाते हैं, तो उनको घेरे रिश्तेदार लोग गाना सुन रहे हैं. कहीं बड़े दिनों बाद मिल रहे कजिन्स ताश जमाये बैठे हैं. कोई अनजान हो, तो समझे घर में शादी है.
बात यूँ निकल पड़ी कि आज उनकी तेहरवीं थी. मित्र ने सर मुंडवा रखा था. बकौल कई दोस्त, उस पर यह स्टाईल बहुत सूट कर रही थी. एकदम कूल ड्यूड. बड़े बेहतरीन बेहतरीन व्यंजन मनुहार कर कर के खिलाये जा रहे थे. हमारे मित्र प्रसन्न मुद्रा में सभी आंगतुकों का स्वागत कर रहे थे. चेहरे पर वही पुरानी मुस्कान. हँसी ठ्ट्ठे की फुहार हर तरफ.
हमने भी लुत्फ उठाया स्वादिष्ट व्यंजनों का. बकौल हमारे मित्र याने दिवंगत के पुत्र, शहर के सबसे बेहतरीन केटरर ने जो बनाया था, फिर लज़ीज तो होना ही था. वाह!! निकल पड़ा हमारे मूँह से अनायास ही. पता चला चमचम बनारस से बुलवाये हैं. कहिन कि बाबू जी को बहुत पसंद थे. पता नहीं कब पसंद थे, हमारे होश में तो हमने उन्हें मुहल्ले की हलवाई की दुकान पर जाते तक कभी नहीं देखा, फिर बनारस के चमचम पसंद, वो भी ठेठ जबलपुरिया को-जो कभी जबलपुर के बाहर गया ही नहीं. सारे रिश्ते-नातेदार यहीं. उनकी लीला वो जाने, हमें तो चमचम बहुत पसंद आये. दो खा लिये.
चलते चलते वे हमसे पूछ बैठे-"और कब तक हो इंडिया में?"
हमने बताया कि अभी तो अप्रेल के आखिर तक हैं तो बड़े खुश हो लिये और कहने लगे कि चलो, अब आज सब झंझट से फुरसत हुए जा रहा हूँ. तुम तो जानेते ही हो कि कब से यह सब लफड़े लगे थे..पहले तो पिता जी बहुत दिन बीमार रहे फिर ......खैर, बस एकाध दिन में सब रिश्तेदार निकल लें तो बैठते हैं तुम्हारे साथ फिर महफिल जमें. वो जो बोतल कनाडा से लाये हो, वो तो रखी होगी न कि साफ हो गई.
मैं उस दुखी मित्र (अरे भाई, उसके पिता को गुजरे अभी मात्र १३ दिन ही तो हुए हैं) को यह बता कर और दुखी नहीं करना चाहता था कि ४ महिने हो गये हैं हमें आये. अगर न भी साफ करते तो अल्कोहल तो अब तक हवा में ही उड़ लेती, और बोतल मिलती ऐसी ही खाली. इसलिये, हाँ में हाँ मिला कर चल दिया.
सोचता हूँ कि हम सब भी एक न एक दिन किसी न किसी के लिये ऐसे ही लफड़े साबित होंगे और वो भी फुरसत होकर महफिल जमाने की फिराक में लगेंगे. बस, यह शेर याद आ लिया:
देखो भाईया, सब कुछ पारी पारी है...
आज तेरी है तो कल मेरी बारी है....
शायद वक्त आ गया है कि पुरातन परंम्पराओं को कुछ आसान किया जाये इसके पहले कि हमारी खुद की फजीहत हो.
पुनश्चः : किसी की भावनाओं को आघात पहुँचाना इस आलेख का उद्देश्य कतई नहीं है. बस जैसा देखा और जैसा मन में आया कि बदलना चाहिये, उस हिसाब से लिख दिया.