बुधवार, अप्रैल 02, 2008

बिटिया का बाप

नया जमाना आ गया था. एक या दो बच्चे बस. बेटा या बेटी-क्या फरक पड़ता है. दोनों ही एक समान.

शिब्बू नये जमाने का था उस समय भी. खुली सोच का मालिक. ऐसा वो भी सोचता था और उसके जानने वाले भी.

एक प्राईवेट फर्म में सुपरवाईजर था.

एक बेटी की और बस! सबने खूब तारीफ की. माँ बाप ने कहा कि एक बेटा और कर लो, वो नहीं माना. माँ बाप को पुरातन ठहारा दिया और खुद को प्रगतिशील घोषित करते हुए बस एक बेटी पर रुक गया. पत्नी की भी नहीं मानी. पौरुष पर प्रगतिशीलता का मुखौटा पहने पत्नी की बात नाकारता रहा.

dwand

खूब पढ़ाया बिटिया को. इंजिनियर इन आई टी. नया जमाना. आई टी का फैशन. कैम्पस इन्टरव्यू. बिटिया का मल्टी नेशनल में सेलेक्शन. सब जैसा सोचा वैसा चला.

मंहगाई इस बीच मूँह खोलती चली गई. माँ की लम्बी बिमारी ने जमा पूंजी खत्म कर दी. उम्र के साथ रिटायरमेन्ट हो गया. नया जमाना, नये लोग. वह पुराना, बिना अपडेट हुआ..वर्कफोर्स से बाहर हो गया. उम्र ५८ पार हो गई. नया कुछ करने का जज्बा और ताकत खो गई. घर बैठ गया. बेटी उसी शहर में नौकरी पर. मल्टी लाख का पैकेज. जरुरत भी क्या है कुछ करने की, वह सोचा करता. प्राईवेट कम्पनी में था तो न कोई पेंशन, न कोई फंड.

बेटिया को तो समय के साथ साथ बड़ी होना था तो बड़ी होती गई. शादी की फिक्र माँ को घुन की तरह खाने लगी मगर शिब्बू-उसे जैसे इस बात की फिक्र ही न हो.

पत्नी कहती तो झल्ला जाता कि तुम क्या सोचती हो, मुझे चिन्ता नहीं? जवान बेटी घर पर है. बाप हूँ उसका..चैन से सो तक नहीं पाता मगर कोई कायदे का लड़का मिले तब न!! किसी भी ऐरे गैरे से थोड़े ही न बाँध दूँगा. यह उसका सधा हुआ पत्नी को लाजबाब कर देना वाला हमेशा ही उत्तर होता.

पत्नी अपने भाई से भी अपनी चिन्ता जाहिर करती. उसने भी रिश्ता बताया मगर शिब्बू बात करने गया तो उसे परिवार पसंद न आया. दो छोटी बहनों की जिम्मेदारी लड़के पर थी. कैसे अपनी बिटिया को उस घर भेज दे.

पत्नी इसी चिन्ता में एक दिन चल बसी. घर पर रह गये शिब्बू और उसकी बिटिया.

जितने रिश्ते आये, किसी न किसी वजह शिब्बू को पसंद न आये. लड़की पैंतीस बरस की हो गई मगर शिब्बू को कोई लड़का पसंद ही नहीं आता.

लड़की की तन्ख्वाह पर ठाठ से रहता था और बिटिया ही उसकी देखरेख करती थी.

आज शिब्बू को दिल का दौरा पड़ा और शाम को वो गुजर गया.

उसको डायरी लिखने का शौक था. उसकी डायरी का पन्ना जो आज पढ़ा: १० वर्ष पूर्व यानि जब बिटिया २५ बरस की थी और नौकरी करते तीन बरस बीत गये थे तथा शिब्बू रिटायर हो चुका था उस तारीख के पन्ने में दर्ज था...

शीर्षक: बिटिया की शादी

और उसके नीचे मात्र एक पंक्ति:

" मैं स्वार्थी हो गया हूँ."

आज न जाने कितने शिब्बू हमारे समाज में हैं जो कभी प्रगतिशील कहलाये मगर अपने स्वार्थवश बिटिया का जीवन नरक कर गये. इंसान की सोच कितनी पतनशील हो सकती है?

बिटिया अब घर पर अकेले रहती है. अभी अभी दफ्तर के लिये निकली है-बेमकसद!!


(नोट: १.शिब्बू छद्म नाम मान लें और बिटिया का नाम, जो चाहें रख लें, मगर उससे कहानी कहाँ बदलती है?

२. कितने ही प्रश्न आकर दस्तक दे रहे हैं-बेटा बेटी एक समान!! एक बच्चा और बस!! और भी न जाने क्या क्या!!

३. मुझे न जाने क्यूँ इस पोस्ट को छापना अनमना सा लग रहा है और मेरा मन है कि यह अतिश्योक्ति हो, मगर फिर भी आप सबके साथ अपनी सोच बाँट रहा हूँ.)

37 टिप्‍पणियां:

  1. अंततः आपका ये पोस्ट आ ही गया.. कल रात में देखा था क्षण भर के लिये.. अभी बिना पढे ही लिख रहा हूं.. अभी समय नहीं है पढने का.. आफिस जाना है.. बाद में पढकर फिर से लिखूंगा.. :)

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  2. अतिश्योक्ति बिल्कुल नहीं हैं, आज घर घर की यहीं कहानी बन रही है। वो पहले का सोचना कि मां बाप बच्चों के सुंदर भविष्य के लिए अपना वर्तमान न्योच्छावर कर देते हैं दकियानूसी विचार समझा जाता है। हां ये और बात है कि अभी तक इस बात को खुल कर मान कोई नहीं रहा।

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  3. आप की इस पोस्ट से अनेक बिन्दु निकले हैं।
    वह घर जहाँ बेटी को जाना है, दूसरा संतानों की उन्नति में अपना सब कुछ खो देने के बाद उन पर निर्भरता की विवशता। बेटे और बेटी, पुरुष और स्त्री के बीच समाज में भेद, अपनी संतान के लिए श्रेष्ठ जीवन साथी के चुनाव की जबर्दस्त इच्छा और अंत में संतानों के वयस्क हो जाने पर भी उन पर अपनी इच्छाओं का आरोपण और उन का इन्हें सहते जाना।
    इन सभी बिन्दुओं/प्रश्नों का उत्तर समाज को देना पड़ेगा, देर सबेर, वैसे बहुत देर पहले ही हो चुकी है। समाज में कोई सामाजिक आंदोलन नहीं है, परिवारों में जनतांत्रीकरण की प्रक्रिया बहुत धीमी है।

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  4. सही सवाल उठाया जी,

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  5. काश यह अतिशयोक्ति हो !

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  6. अजी हद कर दी।
    ये बिटिया कर क्या रही है।
    खुदै ही अपना घर वर क्यों नहीं सैट करती
    पिता के प्रति उसकी जिम्मेदारी अपनी जगह है, पर अपने प्रति भी उसकी जिम्मेदारी है ना।
    इस बालिका को फौरन अनिताजी के पास भिजवाईये, अनिताजी बहुत शानदार साइकोलोजिकल काउंसलिंग से इसे ठीक कर देंगी।

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  7. बेनामी4/03/2008 12:11:00 am

    अपने बचपन मै सुना था एक बेटी पैदा होती है तों बाप के कंधे झुक जाते हैं । क्यों ? कभी समझ ही नही पायी । आप की पोस्ट और अनिता जी के कमेन्ट से लगा की सारी रेस्पोंसिबिल्टी माँ - पिता की है । ये भी नहीं समझ पायी ? शिबू अगर अपनी बेटी के साथ रहता हैं और बेटी खर्चा करती हैं तों बुराई क्या हैं ? बेटी अगर ३५ पार हैं तों फरक क्या हैं ? क्या ३५ पार के बेटे अविवाहित नहीं होते ? शिबू की डायरी एक बंधी हुई सामाजिक सोच हैं रूढी वादी बंधनों मे जकड़ी इस से आगे कुछ नहीं । समसामाइक ६०-७० के दशक की । आज समय बहुत आगे है । कानूनी रूप से भी अगर पुत्र वारिस है जायदाद का तों पुत्री भी और उसी प्रकार से माँ -पिता की देखभाल भी दोनों का कर्तव्य है । आप बिटिया को चाहे तों रचना नाम देदे पर बिटिया का मानना ये हैं की मेरी शादी माँ - पिता का सामाजिक कर्तव्य नहीं हैं । मुझे सबल बनाना उनका धर्म था उन्होने पूरा किया । समाज हम से बनता हैं सोच भी हम ही बनाते हैं , और सोच बदलते भी हम ही है । बिटिया कहती हैं मै खुश हूँ आप ने अपनी कर्तव्य की इती की मै अपने की करुगी । सम्पूर्णता अगर शादी से होती तों हर विवाहित बिटिया खुश होती । सम्पूर्णता अगर पुत्र के माता पिता बनने मे ही होती तों कन्या भूर्ण हत्या अपराध ना होती । हे पिता तुम अपना कर्तव्य करो , पुत्री को सबल बनाओ और जिस प्रकार से २५ वर्ष की आयु के बाद पुत्र को तुम अपने बराबर समझ लेते हो और दोस्त वर्त व्यवहार करते हो पुत्री से भी करो । अधिकार तुम्हारा हैं पुत्री की आय पर भी बिटिया तुम से ऐसी ही समानता चाहती हैं । हम भी तुमेह सुख देगे अवसर तों दो , अधिकार तों दो हमे भी सुख देने का

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  8. समीर जी
    रचना की बात से पूरी तरह सहमत हूँ ।

    बिना शादी लड़की का जीवन बरबाद है , ये कैसे मान लिया जाता है । माता पिता के लिए लड़की का कर्तव्य इतना नीच दृष्टि से देखा जाना चाहिये । हम क्यो नही समाज ऐसा बनाते कि लडकी शादी भी कर ले और माता पिता की देख भाल भी करे साथ साथ । आर्थिक रूप से भी ।
    और भी बहुत से सवाल उठते हैं यहाँ , पर अभी मुख्य रूप से यही कहना चाहती हूँ ।

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  9. बहुत खुब,चर्चा अच्छी हे ,ओर मे अभी तक अनीता जी ओर दिनेश जी की टिपण्णी से सहमत हु ओर अलोक जी की टिपण्णी बहुत स्टीक लगती हे,

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  10. Achi story hai.

    Beta beti-ek saman- but where? In this planet or in some other unknown planet? Though society is changing but still we need to brush up our thoughts. Sirji, shadi to bus ek samajik parampara hai jise ham sab nibhane ki koshish karte hein. Lekin agar koi akele rahkar khush hai to isme koi burai nahi. Mahadevi verma ne hi kya paya shadi karke, lekin unhone jo apni pahchan banayi woh sarahniye hai. Waise bhi aaj ke samaj mein shadi ki koi umra hi nahi hai, kabhi bhi kar lo aur marzi na kare na karo. Ab bitiya log bhi apna farz nibhana sikh chuki hai.

    Anitaji bilkul sahi kah rahi hein but aaj bhi aise parents hein jo apne bachchon ke liye apna sab sukh bhul chuke hein, aaj bhi aise parents hein jinke liye bachchon ka bhavishya hi sabkuch hai aur unke jeene ka matra ek hi udeshya hota hai bachchon ki zindagi khushhal ho.

    Rachna ji fark padta hai, us 35 shal ki ladki per nahi balki samaj ke respected and so called well cultured logon per.


    rgds.
    Rewa Smriti.

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  11. समीर जी,आपकी अनमनी पोस्ट बहुत पसंद आयी । रचना की बात क़ाबिले तारीफ़ है । लड़की यदि आत्मनिर्भर है तो माँ- पिता स्वयं को दोषी ठराना छोड़ दें ।

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  12. ऐसा ही होता है। सब कुछ आदर्शवाद से प्रारम्भ होता है, सामाजिकता और फिनांस मिसमैनेजमेण्ट उसमें पानी मिलाता है। अंतत: आदमी स्वार्थ पर टिक जाता है।
    घर घर की कथा!

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  13. इसी बात को लेकर अकसर चर्चा होती है. तब हल यही दिखता है की बेटी हो या बेटा एक ही बस. जरूरे नहीं की बेटा बुढ़ापे की लाठी बने ही. ऐसे में वृद्धाश्रम के चलन को अपनाना ही समझदारी है.

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  14. इंजिनियर लड़की और मल्टी नैशनल कम्पनी में नौकरी...फिर भी... जीवन के अहम फैसलों के लिए माता-पिता पर निर्भर....उसे खुद आगे बढ़ना है...बढ़ना ही नहीं है बल्कि अपने साथ साथ अपने माता पिता की सोच को भी बदलना है...

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  15. जय हो भाई....बेटी की भी और उसके बाप की भी...

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  16. बहुत सटीक मुद्दे पे लिखा है!!

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  17. काश....आपकी कही बात अतिशयोक्ति हो और काश....रचना जी की कही बात यथार्थ हो.

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  18. अपनी बड़ी अहम् बात कही है कि समाज मे ऐसे कई शिब्बू मौजूद है जिन्होंने प्रगतिशीलता होने का चोला टू पहिन रखा है पर उन्होंने अपनी बेटियों का जीवन नरकतुल्य बना दिया है . आज के समय मे बेटा और बेटियाँ एक समान होते है . मेरा अनुभव है कि बेटियो से ज्यादा सुख उनके रहते बेटियों से मिलाता है . बहुत ही सुंदर अहम् मसला अपने उठाया है आप बधाई के पात्र है .

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  19. रचना बहूत अच्छी लगी । अब सोचा आपका आभार तो व्यक्त कर ही दूँ । बात आई सबोंधन कि क्या लिखु ?? "उडनतश्तरी जी "यह कुछ जमा नही उडनतश्तरी के साथ जी नही जमता और अगर जी ना लगाये तो हमारा संस्कार कहा दिखेगा ,सो इस संबोधन को रुक्शत करना पडा ।तत्काल हमारे दिमाग मे एक नये आईडिया ने लैडं किया "ब्लागिंग के भिष्म पितामह "फिर वही स्पीड ब्रेकर ,आप ने किताब लिखी है ्माइ ब्लाग माइ वाइफ़ और पितामह ठहरे बाल ब्रह्म्चारी सो फिर वही ढाक के तीन पात -पुवर कांबिनेसन ,आखिर कर काम चलाने लयाक सम्बोधन मिल ही गया "हसबैंड आफ़ हिस ब्लाग " तो इसी सम्बोधन से शुरु करते है ’आपकी रचना के लिये पाँच सेकन्ड पहले मेरे दिमाग मे कौन्धा ये शेर बिल्कूल फ़ीट बैठता है ...

    तुने खुदा को खुदा हि कहा कुछ और नही "
    फिर भी तेरा अंदाजे बयाँ कुछ और है"

    आशा है मेरा सम्बोधन आपको अच्छा लगा होगा ,वैसे तो फ़ोटो से आप तन्दुरुस्त ,हँसते गाते ,खाते पीते आदमी लगते है इसिलिये उम्मिद है आप बुरा नही मानेंगे ,फिर भी अगर आप को कुछ बुरा लगे तो मै क्षमाप्रार्थी हूँ”

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  20. rachanaa aur sujata se sahamat.
    mata-pita ka kam keval santaan ka sahi palan poshan hai aur use aatm-nirbhar banana.
    baaki jeevan vivahit, avivahit, living-together, ya fir kuchh bhee aur vyakti ka chunaav hona chahiye.

    aur us chunaav par samaj ke kisi vyakti ko fatwa nahi dena chahiye.
    doosara jaise diwedi ji ne kaha hai ki parivaar ka jantantrikarana hona chaahiye.

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  21. padha...likhney ka andaaz acha hai....

    lakin mein ise rachna se sehmat nahi hun......kyunki mein bhi apne ghar ke eklouti beti hun aur mere bhi kuch responsbilites hai but haan mein sirf wahi nahi dekh rahi apney liye apna jiwansaathi bhi dhoond rahi hun....vo bhi akali .........ismey harz kya hai ....maa baap agar ladkiyo ko bada kartey hai to unka farz bhi hai ke vo beto ke tarah unki sewa karey aur saath saath apna ghar bhi basaye ......

    keerti

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  22. लड़की का इतना प्रगतिशील होना और शादी के लिए माता-पिता पर निर्भर होना कुछ समझ नहीं आया. बाकी जो कुछ कहना था रचना और सुजाता जी ने लिख दिया है.

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  23. अजीब व्यथा है...बाप और बेटी, दोनों की. वैसे मामला बड़ा पेंचीदा है....वैसे ही..पहले मुर्गी या पहले अंडा..

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  24. आपके स्टाइल से थोडी अलग पोस्ट है पर शायद आपके उस वक़्त के मन को सामने रखती है ,कुछ सच शायद हम नही बदल सकते ,पर कुछ जरुरी प्रशन भी है ,जिनका उत्तर भी हमे ही खोजना है ,संकोच न करे जो मन मे है लिख डाले ......

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  25. समीरजी, आपकी कहानी पसंद आयी, सभी लोग लड़की-लड़के के लफड़े में पड़ गये जो आजकल वैसा ही होता है जैसे राजनीतिक पार्टी वाले एक-दूसरे पर तोहमत लगाते हैं।

    मेरी नजर में आपकी कहानी का सार आदमी के स्वार्थ से था, शायद पिता ने सोचा बेटी चली गयी तो उसका एकमात्र पैसे का सहारा छिन जायेगा क्योंकि शादी के बाद पैसा मिलते रहने की गारंटी नही है।

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  26. रचना जी की हर बात सही है पर समीर जी आपका लिखा भी सच के बहुत करीब है !!

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  27. आपन जिस संवेदनशीलता के साथ यह मुददा उठाया है, वह सीधा दिल को छू गया।

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  28. Sameer ji

    aapki bhavnayeinbhavnayein hriday ki talhati se nikal kar aam ki awwaz ban gayi hai.

    betian to vardan hoti hain maa-baap ke liye is satya ko nakara nahin ja sakta..haan ek baat zaroor honi chahiye ladka ho ya ladki siksh aki shamma haath mein liye ho, to rahein assanion ka sammna kar payengi.

    Devi

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  29. mujhe lagta hai ki aapne baat ko sahi location se nahi likha..par ye post hila kar rakh deti hai. ye meri jaldbaji kee ray ho saktee hai..main ise phir padhkar sochta hoon..

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  30. बंगाली समाज में ऍसे दृष्टांत काफी देखे हैं। बड़ी बेटी सबका भार वहन करते खुद कब अपने बारे में सोचना छोड़ देती है उसे समय रहते नहीं पता चल पाता। आपकी कहानी की बिटिया सीधी थी नहीं तो आज IT उद्योग में बच्चे रिश्ते तो खुद ढूंढ निकालते हैं माँ बाप तो बस आशीर्वाद देने का काम करते हैं।

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  31. बधाई संदेश

    नमस्ते , नमस्कार ,शुभ प्रभात आप सभी मित्रों को स्वामी तरुण मिश्रा की ओरसे नव संवत २०६५ ,दुर्गा पूजा और झूलेलाल जयंती की हार्दिक शुभ कामनाएं .............................

    उर में उत्साह रहे हर पल , विकसित हों तीनों तन ,मन ,धन ,

    स्वर्णिम प्रभात लेकर आये , जो वर्ष आ रहा है नूतन ।

    पुष्पित हो और पल्लवित हो , आप का सघन जीवन उपवन ,

    सस्नेह बन्धु स्वीकार करो स्नेहिल उर का अभिनन्दन

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  32. डायरी में लिखा गया: "मैं स्वार्थी हो गया हूं" जिसे आपने इस बेटी के विवाह के साथ प्रस्तुत किया, एक आम मध्य वर्गीय मानसिकता का ही परिचायक है.
    क्या बेटी का विवाह ही एक मात्र चिन्ता का कारण क्यों होना चाहिये, या उसका बेहतर भविष्य ? ये सावाल तो आपकी पोस्ट से खडा होता ही है.

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  33. इसे सकारात्मक चिंतन की संज्ञा दूँ अथवा सारगर्भित कहानी की , कुछ समझ में नही आरहा .....मगर एक बात जो मेरे समझ में आयी वह यह कि बेटियों के प्रति हमारे समाज के नजरिये में अभी और बदलाव की जरूरत है ! बहुत सुंदर ....बधाईयाँ!

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  34. अलग लिखे - अनमना ही सही - अतिशयोक्ति पता नहीं पर यह हुई बिल्कुल किस्सागोई लहजे में - हो गई

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  35. बेनामी4/15/2008 10:30:00 am

    अद्भुत टिप्पणी है। किसी कहानी की तरह। वास्तविकता कई बार किसी कहानी से ज्यादा प्रभावशाली होती है। इस पर कोई बहस करना दरअसल उस त्रासदी को नजरअंदाज करना होगा जिसकी ओर आपने संकेत करना चाहा है।

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  36. बेनामी4/16/2008 01:06:00 pm

    kahani bahut achhi hai,magar rachanaji se 100percent sehmat.

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  37. true yet not so true. False, yet not truly false. Kya kahoon?

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