मंगलवार, अप्रैल 29, 2008

नेता टिक्का मसाला: यमी यमी यम यम!!

कभी कभी लगने लगता था कि मांसाहारी भोजन करके शायद मैं हिंसा कर रहा हूँ. कोई बहुत बड़ा पाप. आत्म ग्लानि होने लगती है और एक अपराध बोध सा घेर लेता है खासकर तब, जब कि मांसाहार के साथ कुछ जाम भी छलके हों. अपराध बोध भी सोचिये कितना सारा होगा जो हम जैसी काया तक को पूरा घेर लेता है. कहते हैं पी कर आदमी सेंटी हो जाता है. वही होता होगा इस मसले में.
Chicken
तीन चार दिन पहले टीवी पर एक अनोखा समाचार देखा. देखते ही मांसाहारी होने की पूरी ग्लानि और अपराध बोध जाता रहा. उस दिन से निश्चिंत हुआ. अब मुर्गे को कटते देख कोई हीन भावना नहीं आती बल्कि खुशी होती है. वो कौम, जिसकी जिस पर नजर पड़ जाये, उस पूरे गाँव, पूरे शहर, पूरे देश के निरपराध मानवों को मार कर खा गयी हो, उस पर कैसी दया और उस पर कैसा रहम. किस बात की आत्म ग्लानि? अच्छा ही हुआ-जब तुम्हारी कौम में हमको मारने की ताकत आई तो तुमने हमें अपना भोज बनाया और आज हममें ताकत है तो हम तुम्हें खा जायेंगे. खत्म कर देंगे.

टीवी ने बता दिया कि डायनासॉर के पूर्वज मुर्गे थे. टी वी दिन भर ढोल पीटता रहा कि मुर्गे डायनासॉर के बाप थे और उनके पूर्वज थे. टीवी वाले अंधो तक को दिखाकर माने और बहरों को सुना कर हर मसले की तरह.

मुझे तो पहले ही डाउट था कि जरुर कुछ न कुछ बड़ा पंगा किया होगा तभी तो मानव इन्हें खाने पर मजबूर हुआ. अभी बकरे की पोल खुलना बाकी है मगर जान लिजिये, उसकी पंगेबाजी भी जब खुलेगी तो ऐसा ही कुछ सामने आयेगा. पंगेबाजी का अंत तो ऐसा ही होता है चाहे किसी भी स्तर की पंगेबाजी हो. सिर्फ हिन्दी ब्लॉगजगत में पंगेबाजी जायज है और वो भी सिर्फ अरुण अरोरा ’पंगेबाज’ की.
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अब तो शाकाहारियों को देखकर लगता है कि देखो, हम तुम पर कितना अहसान कर रहे हैं. वो मुर्गे जो डायनासॉर बन सकते हैं और तुम्हें और तुम्हारे समाज को पूरी तरह नष्ट कर सकते थे, उन्हें कनवर्जन के पहले ही खत्म करके हम तुम्हें भी बचा रहे हैं. काश, धर्म परिवर्तन जो कि इतना ही खतरनाक कनवर्जन है, के पहले भी ऐसी ही कुछ व्यवस्था हो पाती.

कल ही एक मुर्गा मिल गया था. पूछने लगा कि ऐसी क्या बात है, जो आप जैसी उड़न तश्तरी हमसे इतना नाराज हो गई?

हमने उसे साफ साफ कह दिया कि तुम हमसे बात मत करो, आदमखोर कहिंके. तुम तो वो बने जिसकी जिस पर नजर पड़ जाये, उस पूरे गाँव, पूरे शहर, पूरे देश के निरपराध मानवों को मार कर खा लिया. बर्बाद कर दिया. कहीं का नहीं छोड़ा. तुम पर क्या रहम, तुम्हारा तो यह अंजाम होना ही था.

हमारा खून तो तब से खौला है कि यह डायनासॉर आये कहाँ से, जबसे हमने जोरासिक पार्क फिल्म देखी थी. बस, भरे बैठे थे. जब पता चला कि यह तुम्हारा कनवर्जन हैं, तब से तुमसे नफरत सी हो गई है. मैं तो चाहता हूँ कि तुम्हारा नामो निशान मिट जाये इस धरती से.

मुर्गा मुस्कराया और बोला, " आपका साधुवाद, आप मानव प्रजाति के लिये कितना चिन्तित हैं. मगर हम मुर्गे जैसी ही एक आदमखोर प्रजाति ही तुम्हारी ही शक्ल में तुम्हारे बीच बैठी यही काम कर रही है, उसका क्या करोगे, मिंया. वो भी तो यही कर रहे हैं मगर अपनों के साथ ही कि जिस पर नजर पड़ जाये, उस पूरे गाँव, पूरे शहर, पूरे देश के निरपराध मानवों को मार दें, बर्बाद कर दें. कहीं का नहीं छोड़ें. "

मैं चकराया और पूछने लगा, ’कौन हैं वो?"

मुर्गा हँस रहा है. हा हा हा!! कहता है "तुम्हारे नेता और कौन!!"

बात में दम थी अतः मैं सर झुका कर निकल गया. इस मुर्गे पर न जाने क्यूँ मुझे रहम आ गया. नेता टिक्का मेरे आँखों के सामने तैर जाता है कि अगर उनका भी मुर्गों सा हश्र करने लगे मानव तब??

नेता टिक्का मसाला
neta tikka

फिर पशोपेश मे हूँ कि मांसाहारी बने रहूँ या शाकाहारी हो जाऊँ?

रविवार, अप्रैल 27, 2008

अजब-गजब है ये बात!!

आज वापस कनाडा पहूँच ही गये पूरे ६ माह भारत में फटाफट व्यतित करके. अभी दो घंटे ही हुए हैं आये.

मौसम बेहतरीन है. इस समय ६ डिग्री सेल्सियस हुआ है. दोपहर में १३ डिग्री था. भारत में ४३ डिग्री से आने के बाद आनन्द आना स्वभाविक है. यात्रा लम्बी थी तो थकान भी उतनी ही स्वभाविक और नींद- १० घंटे का टाईम डिफ्रेन्स जान लिये ले रहा है.

आँख नींद से लाल
शरीर थकान से अलाल,
मौसम के बेहतरीन हाल..
खुश हो रहे हैं समीर लाल

अब शायद कल से नेट पर ज्यादा बना रह सकूँ. तब तक भारत का ही एक किस्सा जो वहाँ से पोस्ट हो नहीं पाया था:

महेन्द्र मिश्रा जी http://mahendra-mishra1.blogspot.com/ आये थे रविवार को मिलने. हमसे मिले. जितनी गरमी थी उससे भी ज्यादा गरमजोशी से मिले. हमने पूछ ही लिया कि इतनी गरमी में कैसे निकले?

कम शब्दों में अपनी बात कहने वाले मिश्र जी कहने लगे," वो आज हनुमान जयंति है, तो निकले थे सोचा आपके दर्शन कर लें."

जल्द ही वो चले गये. शायद हनुमान मंदिर ही गये होंगे. बहुत अच्छे मेहमान हैं. न ज्यादा बैठते हैं, न चाय पीते हैं और न ही नाश्ता मिठाई खाते हैं. एक पलक पावड़े बिछा कर ब्रह्म स्वागत योग्य अतिथि.

उनके जाने के बाद शीशे में खुद को निहारता रहा. तरह तरह से मूँह बना कर देखा. फोटो खींची. पत्नी ने लगातार शीशे में निहारने का रहस्य पूछा तो हमने मिश्र जी की बात बताई कि कह रहे थे: "आज हनुमान जयंति है, तो निकले थे सोचा आपके दर्शन कर लें."

पत्नी कह रही हैं कि सही जगह तो आये थे. लगते तो वैसे ही हो.

hanumanji

हमने भी ठान ली है कनाडा जाकर कम खाऊँगा और खूब दौड़ लगाऊँगा और अगले साल मिश्र जी आप जन्माष्टमी पर आना.

राम नवमीं पर बुलाता मगर क्या करुँ-शरीर तो घटाना अपने हाथ में है, रंग का क्या करुँ? कृष्ण जन्माष्टमी ही ठीक रहेगी. आना जरुर दर्शन करने.

चलिये, घटनायें तो होती ही रहती हैं, उन्हीं पर आधारित एक रचना:



ढ़ोंगी!!!

दिखता खुश हूँ पर

भीतर से उदास हूँ!!

हजार कारण हैं...

मंहगाई बढ़ रही है!

रोजगार घट रहे हैं!

किसान मर रहे हैं!

सरकार अपनी कारस्तानियों में व्यस्त है!

एक के बाद एक जादू कर रही है सरकार

मगर फिर भी कहती है कि उनके पास कोई जादूई डंडी नहीं.

वामपंथी नाराज हैं??

बिहारी बम्बई में नहीं रह पा रहे हैं!

बिहारी बिहार में रह कर क्या करेंगे?

कल बात यूपी वालों पर भी आयेगी!

कभी तिब्बत तो कभी कश्मीर!!

गीत को सुर नहीं मिल रहा और गज़ल को काफिया!

हत्यारों को माफी मिल रही है वो भी जिसकी हत्या हुई है उसक घर वालों से!

बेटी अपने आशिक से मिलकर पूरे घर वालों की हत्या कर देती है!

ट्रेन में डकैतियाँ और बलात्कार!

चोरों के नये हथकंडे!

पुलिस डकैत हुई है

और डकैत सरकार!

सेन्सेक्स में गिरावट और गरमी में गले की तरावट का आभाव!

सोना उछलता है, कपास लुढ़कती है!

भ्रष्टाचार तरल से तरलतम हो फैलता जा रहा है

और मानवीय संवेदनायें- जमीं हुई एकदम कठोर!


बिजली गई और पानी आता नहीं!

बांये बांये दांये दांये......उपर नीचे...

हर तरफ कारण ही कारण कि दुखी हो लूँ, उदास हो जाऊँ!!!

खुश कैसे होऊँ??..एक भी कारण नहीं दिखता,,,इस बात से भी उदास हूँ!!

क्या तुम्हारे पास खुशी का कारण है या मेरी ही तरह तुम भी ढ़ोंगी हो!

दिखाने भर को खुश!!

-समीर लाल ’समीर’

( यह सब खबरें एक ही दिन के अखबार से हैं. तारीख क्या बताऊँ-किसी भी तारीख का अखबार उठा लो.)

रविवार, अप्रैल 20, 2008

टिप्पणी कर और गाली खा!!

शब्द पुष्टिकरण यानि वर्ड वेरिफिकेशन. आजकल अन्तर्जाल की दुनिया में आपकी अन्तर्जालिय सुरक्षा के लिये सुझाया गया बहुचर्चित तकलीफदायक उपाय. कम से कम हम जैसे टिप्पणीकर्ताओं के लिये तो बहुत ही तकलीफदायक. यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा भारत में सब थानों के बाहर लिखा होता है कि पुलिस आपकी साहयता के लिये है. चोर सारे तोड़ जानते हैं.

कई बार सोचते हैं कि चिट्ठाकारों से कहें कि मित्र, अपने चिट्ठे पर टिप्पणी और हमारे बीच से इस दीवार को अलग कर दो. क्यूँ दो प्यार करने वालों के बीच लड़की के भाई की तरह खड़े हो? बहुत डर लगता है तो माडरेशन चालू कर लो ताकि बिना आपकी स्विकृति के टिप्पणी प्रकाशित ही न हो. समझो कि जैसे अरेंज्ड मेरिज. फिर तो स्पैम के भर जाने का खतरा नहीं रहेगा. मगर स्वभाववश बस सोचते ही रह जाते हैं. कहना चाहते हैं कुछ और मगर टाईप हो जाता है साधुवाद. ब्लॉगमालिक जान ही नहीं पाता कि हम क्या कहना चाहते थे.

किसी तरह थक हार खीज कर वर्ड वेरिफिकेशन भर भी दें तो पता चलता है वो ढेड़े मेड़े शब्द ही गलत पढ़ डाले थे तो लो, फिर से टाईप करो. दो बार गलत भर दो तो टिप्पणी भी उड़ गई. फिर नये सिरे से टाईप करो कि बहुत बढ़िया लिखे हो, साधुवाद, शुभकामना और न जाने क्या क्या.

चलिये टिप्पणी करने की उमंग में एक दीवाने की तरह हम यह सब भी बर्दाश्त करने को तैयार हैं मगर यह क्या बात हुई??

वर्ड वेरिफिकेशन भरे भी और वो हमें बेवकूफ कहें. ये तो हम न झेल पायेंगे.

नेकी कर दरिया में डाल तो सुना था मगर टिप्पणी कर और गाली खा!!-यह नई परंपरा मालूम पड़ती है. ये हमारे गाँव के संस्कार नहीं हैं.

आप ही बताईये कि इतनी मेहनत के बाद कोई आपको बेवकूफ कहे तो कैसा लगेगा?

हमें तो लगता है कि अगर इस तरह की संगीन वारदातों को अभी नहीं रोका गया तब आगे तो न जाने क्या क्या गालियाँ बकें?

देखा तो था- कभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर, तो कभी अपनी अनोखी पहचान बनाने की खातिर-क्या खुल कर गाकियाँ लिखी गईं चिट्ठो से जो कि सब सार्वजनिक था. यह दीगर बात है कि आज वो अपनी करनी के चलते गुमनामी के अंधेरों मे खो गये हैं और कोई उन्हें अब पूछता तक नहीं मगर आप क्या कर पाये? कुछ नहीं. और फिर यह वर्ड वेरिफिकेशन वाली तो दबी छुपी बात है-बिल्कुल वन टू वन-इसमें तो क्या हाल करेंगे, भगवान जाने.

अब हम खुद अपने हाथ से अपने खुद के लिये गाली टाईप भी करें, तब टिप्पणी प्रकाशित होगी तो मित्र, क्षमा करना. माफी चाहूँगा. अगर मेरी टिप्पणी न दिखे तो यह मत समझना कि हमने कोशिश नहीं की होगी या आये नहीं होंगे (ऐसा कहाँ होता है हमारे साथ, वो भी आपके ब्लॉग पर..न, न!!). बस, समझ लेना कि गाली खाकर चुपाई मारे बैठे हैं अपने मूँह की खाकर.

बीबी अलग कोस रही है कि और जाओ हर जगह साधुवाद का बिगुल बजाने. खा ली गाली, मिल गई तसल्ली!! ऐसा ही चलता रहा तो किसी दिन लतिया भी दिये जाओगे और बैठे रहना अपनी साधुवाद की माला जपते.

मेरी बात पर भरोसा न हो रहा हो तो यह देखो स्क्रीन शॉट-कोई झूठ थोड़े ही न बोलेंगे??

tippaniphoto

अब बोलिये?? हमारा विवेक और मानस तो जबाब दे गया. उपर से बीबी का प्रेशर अलग. आप कर सकते हो तो करो टिप्पणी. हम तो नहीं ही टाईप कर पायेंगे अपने लिये इस तरह की बात.

मेरा निवेदन स्वीकार कर लो मित्र, वर्ड वेरिफिकेशन हटा कर माडरेशन लगा लो!! हमें गाली खाने से बचवा लो, बड़ा आभारी रहूँगा और साधुवाद तो दूँगा ही.

सोमवार, अप्रैल 14, 2008

इनसे मिलिये-मेरे सहपाठी

बचपन से परिचित-हम सहपाठी थे दर्जा आठ तक.

फिर उसकी पढ़ाई की रफ्तार शनैः शनैः मद्धम पड़ गई और ११ वीं तक आते आते उसकी शिक्षा यात्रा ने उस वक्त के लिये दम तोड़ दिया.
neta
अक्सर मौहल्ले के चौराहे पर खड़ा दिखता. सदा ४-६ आवारा लड़कों के साथ. किसी ने बताया कि अब वो छोटी मोटी चोरी की वारदातों में शामिल रहने लगा है. स्वभाव से मिलनसार एवं व्यवहारकुशल.जब भी दिखता तो हाथ उठा कर अभिवादन करता और चाय के लिये जरुर पूछता. यह उसकी आदत का हिस्सा बन गया था. पूछना उसका काम होता और मना करके किसी कार्य की जल्दी बतला कर निकल जाना मेरा.

दरअसल मैं डरा करता था कि कहीं उसके साथ साथ किसी लफड़े में ही न अटक जाऊँ. वो भी शायद समझता होगा तो बस, इतना सा कह कर मुस्करा देता कि ठीक है. आगे कभी सही. मेरे लायक कोई काम हो तो बताना. यह पूछना भी उसकी आदत का ही हिस्सा था अन्यथा किसी चोर से क्या काम बतायें? यही उसकी सहृदयता की निशानी है. धार्मिक वो शुरु से रहा. मंदिर मे सुबह शाम दोनों वक्त माथा टिकाने जाता. बस, कभी कभी मौका देख कर चढ़ावे पर हाथ साफ कर लेता.

फिर सुना बड़ी चोरियों में उसकी गैंग चलने लगी. बहुत कर्मठ है. इलेक्ट्रानिक्स गुड्स की चोरी में स्पेशलाइजेशन हासिल कर लिया. शहर उपर नाम चलने लगा और वो चोर से प्रमोट होकर गुण्डा केटेगरी में आ गया. आदत वही: हाथ दिखाना, चाय और काम को पूछना. मुस्कराना और मेरा विदा हो जाना.

कहते हैं उसकी किस्मत बहुत बुलंद है और हौसला फौलादी. गुण्डागर्दी में भी वो जल्द ही ग्रेड ए का गुण्डा हो लिया. बहुत नाम कमाया. आधा काम तो उसके नाम से हो जाता. वो स्वयं सिर्फ बड़े केसेस हैंडल करने जाता जैसे मकान खाली कराना, चुनाव के दौरान नेताओं के लिये बूथ केप्चरिंग आदि. रसूकदार हो लिया और कालांतर में उच्चस्तरीय गुण्डागीरी के राजमार्ग की स्वभाविक मंजिल को हासिल करते हुए वह नेता हो गया.

शिक्षा और शिक्षा के समाज में योगदान का उसे पूरा भान था. जीजिविषा ऐसी कि ११वीं में दम तोड़ी शिक्षा यात्रा को उसने पुन: जीवित किया और अपने नाम के चलते किसी को भेजकर उसने इस बीच १२वीं और फिर बी.ए. और एल.एल.बी. की उपाधी अर्जित की.

अपनी रसूकदारी और अनेकों नेताओं पर पुराने अहसानों के चलते और भविष्य में काम का सिद्ध होने की पूर्ण प्रतिभा के कारण पार्टी टिकिट से विधायक का चुनाव लड़ा और जैसा की होना था-जीता भरपूर मार्जिन के साथ. एक बार नहीं. लगातार दो बार और आज भी तीसरे दौर में विधायकी बरकरार है.

जैसा बताया कि उसकी किस्मत बहुत बुलंद है और आदमी काम का, अतः इस बार उसे मंत्री बनाया गया.

भावुक हृदयी होने के कारण जनसमस्यायें उसे विचलित करतीं अतः अक्सर उनसे वह मूँह फेर लेता.

कुछ दिनों पहले पुनः दिखा. मानो पद प्रतिष्ठा का घमंड उसे छू तक न सका. वही तरीका: हाथ दिखाना, चाय और काम को पूछना. मुस्कराना-इस बार लाल बत्ती की कार को किनारे रोक कर उसने यह रसम अदायगी की अतः स्वभाविक रुप से हमेशा की तरह मैं मना नहीं कर पाया और उसके साथ वहीं चाय पी.

बड़ा दबदबा. पीछे पीछे पुलिस की गाड़ी. हालांकि उसे कुछ भी नया नहीं लगता होगा. पहले भी उसके पीछे पुलिस की गाड़ी रहती ही थी. मगर तब जनता की उससे सुरक्षा की वजह से. आज जनता से उसकी सुरक्षा की वजह से. बस, इतना सा ही तो अंतर पड़ जाता है गुण्डे से नेता की यात्रा तय कर लेने में. आज जब उसकी चुनाव बाद शोभा यात्रा निकलती है तो भी वह बीच में, चारों ओर पुलिस और समर्थक टाईप आवारा बालक. बहुत पहले भी कई बार उसकी ऐसी ही यात्रायें पुलिस ने निकाली हैं मौहल्ले में मगर तब वो शिनाख्ती परेड की शक्ल में होती थीं और वो कुछ इसी अन्दाज में तब भी मुस्करा कर ही पुलिस को बताया करता था कि फलानी जगह से यह चुराया और फलानी जगह से वो. साथ साथ बहुतेरे आवारा लड़कों की भीड़ भी ऐसे ही चलती थी कुतहलवश.

वह यारों का यार है. पहचान वालों से पैसा लेकर काम करना उसे गवारा नहीं और बिना पैसे लिये कोई काम आज तक उसने करवाया नहीं. अतः उसकी पहचानवालों का उसके माध्यम से कोई कार्य नहीं होता किन्तु किसी को उसने कभी नहीं भी नहीं कहा. एक सकारात्मक सोच का धनी-हमेशा हाँ में ही जबाब देता.

चाहे वो मंत्री हो गया हो किन्तु जमीन से उसका जुड़ाव वन्दनीय है. वह जमीनी नेता के तौर पर जाना जाता है. जमीन से लगाव ऐसा कि क्षेत्र की सारी कभी विवादित जमीनों पर आज उसका मालिकाना हक है और सारे कागजात उसके नाम. शहर के बीचों बीच एकड़ों का मालिक.

समाज में उनके सराहनीय कार्यों एवं क्षेत्र विकास को समर्पित जीवनशैली को देखते हुए विश्व विद्यालय शीघ्र ही उन्हें मानद डाक्टरेट देने पर विचार कर रही है. सारे जुगाड़ सेट हो चुके हैं.

आज उसका मौहल्ले में सम्मान समारोह है. मुझे मंत्री जी का परिचय देने के लिये मंच से बोलना है. अतः, सोच रहा हूँ इसी में से बोल्ड किये हुए मुख्य मुख्य अंश निकाल कर पढ़ दूंगा. अब कहाँ समय मिलेगा फिर से नया लिखने का?

चल जायेगा क्या?

वैसे इस आलेख का कॉपी राईट नहीं है. कभी आपको अपने क्षेत्र के नेता के बारे में बोलना हो, तो बेफिक्र होकर इस्तेमाल करें. बिल्कुल फिट बैठेगा.


नोट: आज ही ५ दिनों की लखनऊ/कानपुर की यात्रा से लौटा हूँ. शायद कनाडा वापसी के लिये २२ को बम्बई जाने से पहले की इस दौर की अंतिम शहर के बाहर की यात्रा.

रविवार, अप्रैल 06, 2008

अपनी औकात में रहो तुम!!!

महेन्द्र मिश्र जी के ब्लॉग पर इस समाचार को पढ़ता था: कम्प्यूटर वाइरस ने ३९ अपात्रो को सरकारी नौकरी दिलवाई ?

बड़ा गुस्सा आया. ये मजाल एक कम्प्यूटर वाइरस की? एक तो हम कुछ बोल नहीं रहे उससे. सरकारी कम्प्यूटर मे रहने दे रहे हैं. एक से एक उम्दा फाईलें खिलवा रहे हैं. जो किसी को नहीं पता वो खाते बही दिखा रहे हैं. फिर भी ये जुर्रत?

मियाँ वायरस, मैं जानता हूँ कि तुम सरकारी लेपटॉप में रहने लगे हो. लाल बत्ती की गाड़ी में घूमने लगे हो. एक चपरासी तुम्हें उठाये घूमता है. कम से कम इस्तेमाल होता है तुम्हारे आवास का, लगभग न के बराबर. अधिकतर तो मॉडल होम टाईप ही सजा रहता है फिर भी?

यूँ तो अर्दली और गार्ड भी पूरे समय मंत्री जी के साथ ही चलते हैं, इसका क्या मतलब वो भी मंत्री हो गये और वैसा ही बिहेव करें जैसा मंत्री जी करते हैं? गलत बात है न!! ऐसा कहाँ होता है?

अपनी औकात पहचानों, वत्स!!

computer-virus

अभी भी वक्त है संभल जाओ वरना पछताओगे. अपने आप को मंत्री समझने की भूल न करो. यह अपात्रों को सरकारी नौकरी वगैरह दिलवाना मंत्रियों के काम हैं और उन्हीं को सुहाते हैं. तुम क्यूँ पड़ते हो इन सब लफड़ों में? देखो, आ गये न सुर्खियों मे, अब??

हालांकि स्वभाव से तुम दोनों एक से हो. एक आम आदमी तुम्हारे और उनके द्वारा पहूँचाये नुकसान को जब तक पहचान पाता है, तब तक देर हो चुकी होती है. सब कुछ तबाह. सामने मची तबाही देखने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचता. आखिर हमने खुद ही तो चुना: उनको भी और तुमको भी, क्लिक करके. किसको दोष दें? बस यही मान कर संतोष कर लेते हैं कि शायद किस्मत में यही तबाही बदी थी.

एक तबाही के बाद जब फिर से जमने की तैयारी करो. तुम दोनों ही तो दूसरे रुप में चले आते हो. कैसे पहचानें? कैसे बचें?

बस, एक अंतर है उनमें और तुममें. वह यह कि तुममे से जो पहचाने जा चुके हो, उन्हें रोकने के रास्ते हैं. लगा देंगे कोई बेहतरीन एन्टी वायरस वेक्सीन..अब रुप बदल कर ही तुम आ पाओगे मगर उन्हें-उनके लिये तो कोई परमानेन्ट एन्टी वायरस ओह!! सॉरी-एन्टी नेता या एन्टी मंत्री वेक्सीन भी नहीं. पूरे ढ़ीट है-वैसे ही फिर चले आयेंगे हाथ जोड़े और हम मूर्ख-उन्हें फिर क्लिक कर देंगे.

इसीलिये वह तुमसे वरिष्ट कहलाये. समझे मियाँ वायरस?

आ जा बेटा औकात में. ज्यादा मंत्री बनने की कोशिश न कर वरना सरकारी आवास से भी हाथ धो बेठेगा और लाल बत्ती से भी. आखिर सारे कार्पोरेशनों के अध्यक्ष भी तो हैं. वो भी तो बिना मंत्री हुए तुम्हारी तरह जी ही रहे हैं. कुछ तो सीखो उनसे!

बुधवार, अप्रैल 02, 2008

बिटिया का बाप

नया जमाना आ गया था. एक या दो बच्चे बस. बेटा या बेटी-क्या फरक पड़ता है. दोनों ही एक समान.

शिब्बू नये जमाने का था उस समय भी. खुली सोच का मालिक. ऐसा वो भी सोचता था और उसके जानने वाले भी.

एक प्राईवेट फर्म में सुपरवाईजर था.

एक बेटी की और बस! सबने खूब तारीफ की. माँ बाप ने कहा कि एक बेटा और कर लो, वो नहीं माना. माँ बाप को पुरातन ठहारा दिया और खुद को प्रगतिशील घोषित करते हुए बस एक बेटी पर रुक गया. पत्नी की भी नहीं मानी. पौरुष पर प्रगतिशीलता का मुखौटा पहने पत्नी की बात नाकारता रहा.

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खूब पढ़ाया बिटिया को. इंजिनियर इन आई टी. नया जमाना. आई टी का फैशन. कैम्पस इन्टरव्यू. बिटिया का मल्टी नेशनल में सेलेक्शन. सब जैसा सोचा वैसा चला.

मंहगाई इस बीच मूँह खोलती चली गई. माँ की लम्बी बिमारी ने जमा पूंजी खत्म कर दी. उम्र के साथ रिटायरमेन्ट हो गया. नया जमाना, नये लोग. वह पुराना, बिना अपडेट हुआ..वर्कफोर्स से बाहर हो गया. उम्र ५८ पार हो गई. नया कुछ करने का जज्बा और ताकत खो गई. घर बैठ गया. बेटी उसी शहर में नौकरी पर. मल्टी लाख का पैकेज. जरुरत भी क्या है कुछ करने की, वह सोचा करता. प्राईवेट कम्पनी में था तो न कोई पेंशन, न कोई फंड.

बेटिया को तो समय के साथ साथ बड़ी होना था तो बड़ी होती गई. शादी की फिक्र माँ को घुन की तरह खाने लगी मगर शिब्बू-उसे जैसे इस बात की फिक्र ही न हो.

पत्नी कहती तो झल्ला जाता कि तुम क्या सोचती हो, मुझे चिन्ता नहीं? जवान बेटी घर पर है. बाप हूँ उसका..चैन से सो तक नहीं पाता मगर कोई कायदे का लड़का मिले तब न!! किसी भी ऐरे गैरे से थोड़े ही न बाँध दूँगा. यह उसका सधा हुआ पत्नी को लाजबाब कर देना वाला हमेशा ही उत्तर होता.

पत्नी अपने भाई से भी अपनी चिन्ता जाहिर करती. उसने भी रिश्ता बताया मगर शिब्बू बात करने गया तो उसे परिवार पसंद न आया. दो छोटी बहनों की जिम्मेदारी लड़के पर थी. कैसे अपनी बिटिया को उस घर भेज दे.

पत्नी इसी चिन्ता में एक दिन चल बसी. घर पर रह गये शिब्बू और उसकी बिटिया.

जितने रिश्ते आये, किसी न किसी वजह शिब्बू को पसंद न आये. लड़की पैंतीस बरस की हो गई मगर शिब्बू को कोई लड़का पसंद ही नहीं आता.

लड़की की तन्ख्वाह पर ठाठ से रहता था और बिटिया ही उसकी देखरेख करती थी.

आज शिब्बू को दिल का दौरा पड़ा और शाम को वो गुजर गया.

उसको डायरी लिखने का शौक था. उसकी डायरी का पन्ना जो आज पढ़ा: १० वर्ष पूर्व यानि जब बिटिया २५ बरस की थी और नौकरी करते तीन बरस बीत गये थे तथा शिब्बू रिटायर हो चुका था उस तारीख के पन्ने में दर्ज था...

शीर्षक: बिटिया की शादी

और उसके नीचे मात्र एक पंक्ति:

" मैं स्वार्थी हो गया हूँ."

आज न जाने कितने शिब्बू हमारे समाज में हैं जो कभी प्रगतिशील कहलाये मगर अपने स्वार्थवश बिटिया का जीवन नरक कर गये. इंसान की सोच कितनी पतनशील हो सकती है?

बिटिया अब घर पर अकेले रहती है. अभी अभी दफ्तर के लिये निकली है-बेमकसद!!


(नोट: १.शिब्बू छद्म नाम मान लें और बिटिया का नाम, जो चाहें रख लें, मगर उससे कहानी कहाँ बदलती है?

२. कितने ही प्रश्न आकर दस्तक दे रहे हैं-बेटा बेटी एक समान!! एक बच्चा और बस!! और भी न जाने क्या क्या!!

३. मुझे न जाने क्यूँ इस पोस्ट को छापना अनमना सा लग रहा है और मेरा मन है कि यह अतिश्योक्ति हो, मगर फिर भी आप सबके साथ अपनी सोच बाँट रहा हूँ.)