राह बीच दंगल घिरे, नहीं किसी की खैर...
नहीं किसी की खैर, महौल तो रहा बिगड़ता
गाली पे गाली चली, आपस में गुत्थम गुत्था.
कहे समीर कवि कि हमें न तुक है बनता
लोग लगे हैं पूछने कि काहे को चुप हैं संता.
--अब जब कबीरा साइलेंट है तो हमारी क्या औकात कि हम कुछ बोलें. वैसे तो मेरा मानना है कि प्रश्न को किस अर्थ में किया गया और उसे किस अर्थ में लिया गया, वह ही ब्रह्म है.
हर चीज हर जगह एक ही तरह से सहज नहीं कहलाती. जैसे इसे देखें कि आम के पेड़ से आम तोड़ने के लिये पत्थर मार कर तोड़ोगे तो इस सहज घटना में आपको आम की प्राप्ति हो सकती है..मगर क्या यूँ ही कमल भी तोड़ोगे. सिवाय छपके कींचड़ के छिंटों के कुछ नहीं मिलेगा. अगर कमल पर निशाना सध भी गया और वो टूट भी गया, तो तुम्हारे हिस्से तो कींचड़ ही आयेगा..कमल उसी कींचड़ मे कहाँ खो जायेगा, पता भी नहीं चलेगा. फिर दोष देते रहना उन अग्रजों को जिन्होंने निशाना साधना सिखाया था.
ह्द करते हो यार, जब कबीरा सिखाता है कि कींचड़ में पत्त्थर मारोगे तो कींचड़ ही तुम्हारे ऊपर आयेगा..तब तो नजर अंदाज कर देते हो...और जब कींचड कपड़े खराब कर देता है तो कबीरा पर दोष देते हो कि उसने कींचड़ को रोकने में हमारा साथ नहीं दिया. कबीरा तो बहुत पहले समझा गया था मगर अभी तो बस इतना ही हुआ कि ....कबीरा चला साइलेंटली...अब इसमें भी दोष दिखे तो कबीरा क्या करे....नट डांस दिखाये.
ह्द करते हो यार, जब कबीरा सिखाता है कि कींचड़ में पत्त्थर मारोगे तो कींचड़ ही तुम्हारे ऊपर आयेगा..तब तो नजर अंदाज कर देते हो...और जब कींचड कपड़े खराब कर देता है तो कबीरा पर दोष देते हो कि उसने कींचड़ को रोकने में हमारा साथ नहीं दिया. कबीरा तो बहुत पहले समझा गया था मगर अभी तो बस इतना ही हुआ कि ....कबीरा चला साइलेंटली...अब इसमें भी दोष दिखे तो कबीरा क्या करे....नट डांस दिखाये.
मेरी बात अभी भी मान लो, फालतू के दंगों मे शहादत देने की जरुरत नहीं, आज तक कोई शहीद नहीं कहलाया इसमें. यह उन्माद भी ठीक नहीं. कोई भी वीर नहीं कहलाया है इस तरह.
अच्छा चलो एक ही प्रश्न दो जगह अलग माहौल मे पूछा जाये तो क्या होता है उसे देखो..सच घटना बताता हूँ:
आदमी बच्चा गोद में उठाये है और पार्टी में चार-पाँच महिलाये बैठी है.. और आदमी पूछता है कि यह किसका बच्चा है..माँ बहुत गर्व से कहती है कि मेरा है...वाह...और उसे गोद ले वो चूमने लगती है.!!
अब दूसरा सीन देखें.. चार -पाँच महिलाये बैठीं हैं और उनमें से एक सात माह की गर्भवती है..और एक पुरूष उसके सामने आकर पूछता है, उसके पेट की तरफ ईशारा कर...यह किसका बच्चा है...कितना मतलब बदल गया..पूछने वाला कितना पिटा...या उसकी क्या दुर्दशा हुई.... बस यही बताना चाह रहा हूँ कि माहौल समझो यार....हर बात का शाब्दिक अर्थ न निकालो.
चलो मैं ग्लानी से भर गया कि तुम्हे गलत कहा गया और मैं चुप रहा और तुम मुझे भाई साः कहते नहीं थके. अब क्या करें...वो भी बता दो... वो वाली हवा बन जायें जो आग को बढ़ावा देती है या वो वाली जो उसे बुझा देती है या वो वाली जो आती ही नहीं और सब समय के साथ अपने आप सामान्य हो जाता है, उसे किसी खास हवा की जरुरत ही नहीं....यह मेरी पसंदीदा है और मैं नहीं आऊंगा ऐसे महौल में, यही मेरी निती है. तुम मुझे गलत समझते हो तो समझो..
मैनें दूनिया देखी है..तुम्हारी उम्र की मजबूरी है कि तुमने कम देखी है मुझसे...शायद भविष्य तुम्हें समझाये या आज मेरी लेखनी..मैने सुना है युवा मुझसे ज्यादा समझता है...शायद तुम इसको सत्यापित कर सको!!!
मैनें दूनिया देखी है..तुम्हारी उम्र की मजबूरी है कि तुमने कम देखी है मुझसे...शायद भविष्य तुम्हें समझाये या आज मेरी लेखनी..मैने सुना है युवा मुझसे ज्यादा समझता है...शायद तुम इसको सत्यापित कर सको!!!
यह मेरी अंतर्भावना है और मुझे लगता है कि अधिकतर ऐसा सोचते होंगे...और मैं गलत न ठहराया जाऊँगा..और बोनस में, कम से कम संजय और पंकज बैगाणी के द्वारा.
चलो, जो भी हो, हम चलते हैं...अच्छा सोचो यही उम्मीद है.........................शुभकामनायें...
अभी भी हमारी सोच को जिंदा रखने वाले लोग हैं... वही झूमेंगे हमारे साथ............कुछ दिन में तो हम आदि हो ही जायेंगे..मगर जब तक चल रहा है आदर सहित चलता रहे......
और बाकि सब तो जय हो जय हो.. हरि ऊँ..............जय हो समिरानन्द की...और जय हो...........कबीरा की...............जो खड़ा है बेचारा साइलेंटली...
फिर तुम तो मेरे साथ ही हो...हो न!!
एक बात रोज सोचता हुँ, हम सब में एक दुर्गुण होता है, लोगों की बातों का अपने मतलब से अर्थ निकालने का. यह सबके साथ होता है. और हम ना चाहकर भी इस चक्रव्यु में फँसते ही हैं...
जवाब देंहटाएंलोग तैश में आकर बहुत कुछ ऐसा कह जाते हैं, जिसको लेकर उन्हे भविष्य में अफसोस भी होगा, ऐसा मुझे लगता है.
त्वरीत प्रतिक्रिया से बचना चाहिए, यह बात समझ में आती है. और फिर जैसा कि फुरसतियाजी कहते हैं, जिसमें जितनी अक्ल होती है वैसा लिखता है.
इस पुरे प्रकरण से कई लोगों के भ्रम तो टुटे ही हैं!!
अंत भला तो सब भला! अब लोगबाग थोडा सम्भल कर लिखेंगे ऐसी उम्मीद है.
इसे हमारा साइलेंट कमेंट माना जाए
जवाब देंहटाएंबहुत सही, कबीर दास जी को बीच मे डालकर सही सलटा लिए।
जवाब देंहटाएंकबिरा खड़ा बाजार मे मांगे सबकी खैर
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।
इन चर्चाओं से ना तो कुछ नई सोच पैदा होती है । बस तलवारबाजी में कुछ लोग जख्मी जरूर हो जाते हैं ।
जवाब देंहटाएंकिसने किसको ठगा, व्यर्थ है चौराहे पर प्रश्न उठाना
जवाब देंहटाएंजितना प्यार, पीर भी उतनी, मुश्किल है ये भी कह पाना
एक कहानी, एक दर्द है, एक सोच है, एक फ़र्क है
एक पुरानी छवि है, रहती सिरहाने पर जो निशि वासर
नाम पीर का लेकर कोई कर देता बदनाम प्यार को
किसको कोरे पॄष्ठ दिखाये, हम सा पीड़ा का सौदागर ?
खूब कहा गुरु जी, लोग बाग बहुत असहनशील हो गए हैं आजकल। लेकिन जैसा मैंने सागर भाई के चिट्ठे पर कहा एक चीज है जो हम सब को जोड़े रखती है और वो है हिन्दी से प्यार।
जवाब देंहटाएंसही है। रहिमन सिट साइलेंटली देखि दिनन को फेर! लेकिन इतना सेंटी न हुआ करो भाई!
जवाब देंहटाएंकबीरा चला साईलेन्टली चाल,
जवाब देंहटाएंदेख उडनतश्तरी है बेहाल,
मौन रख कर कबीरा सब कुछ बोला,
अन्दर के सारे राज चुप रह कर खोला
वाह समीर जी ,आपकी शैली के कायल हुए जा रहे हैं हम ,(आपकी दोनों टिप्पणियां मिल गई हैं धन्यवाद ज्ञापन भी कर दिया है एक बार फिर ध्न्यवाद)
जवाब देंहटाएंवही वही मिले है उसको, जिसको जिसकी चाह
जवाब देंहटाएंधूप सेको और खाओ मुगंफली, क्यों करते परवाह
उमर और समझ (experience)में फैवीकोल का जोड
कोई और हो न हो, हम नही जाने वाले कहीं आपको छोड
लेखन की कला तो कोई आपसे सीखूे। पर यह समझ में नहीं आया कि आपने इस चिेट्ठी को हास्य के अन्दर क्यों टैग किया है। यह तो बहुत गम्भीर बात कह गये
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