उनके देहावसान के बाद "सदाशय शिव रत्न लाल" पुरुस्कार की शुरुवात की गई जो कि हर वर्ष साहित्यकारों को सम्मानित करता है.
बाबा के समय हमारे घर मे उनकी मित्र मंडली की कवि गोष्ठियां हमेशा होती रहती थी जिसमे जानेमाने नाम हरिवंश राय बच्चन, डा. भगवती प्रसाद सिंह, डा.जगदीश प्रसाद श्रीवास्तव 'अतृप्त', डा.राम अवध द्विवेदी, रामाधार त्रिपाठी 'जीवन' जी जैसे महान लोगों का जमवाड़ा रहता था.
रामाधार त्रिपाठी 'जीवन' जी तो हरदम ही घर पर मौजूद रहते थे. उनका पेशा स्वतंत्र कविता लेखन ही था. जीवन जी की पुस्तक शोकांजली गांधी जी की हत्या के ४ घंटे के भीतर प्रकाशित होकर बाजार मे आ गई थी. ३० पृष्ठों की यह कविता पुस्तक भी मेरे पास धरोहर के रुप मे मौजूद है और मेरी पसंदीदा कविताओं मे से है. अगर आप लोग पढ़ना चाहेंगे तो यहां पोस्ट कर दूँगा.बहुत प्रभावित करने वाली लेखनी है. बाद मे, मुझे याद है, जीवन जी गायब हो गये थे और बहुत खोजने पर भी कभी नही मिले.
अब आपके लिये अपने बाबा डा. शिव रत्न लाल की दो कवितायें उनके कविता संग्रह 'अन्त: सलिला' से पेश करता हूँ:
संकल्प
विश्व के अनजान पथ पर,
मै अकेला चल पड़ा हूँ॥
कौन जाने दूर कितनी,
है अभी मंजिल हमारी।
और कब तक झेलना है,
संकटों का बोझ भारी॥
पथ असीमित, किन्तु, सीमा-
से घिरा, सब ओर से मैं।
चल रहा हूं लड़खड़ाता,
एक पतले छोर से मैं॥
अनुभवों से हीन मेरे-
पग अचानक डगमगाये।
लाख यत्न किया संभलने-
का, न पर वे संभल पाये॥
लक्ष्य से रह दूर अपने,
राह बीच फिसल पड़ा हूँ।
विश्व के अनजान पथ पर,
मै अकेला चल पड़ा हूँ॥
'भूल' कहती है सफलता-
की रहस्यमयी कहानी।
'भूल' को पहचान लेना,
है चतुरता की निशानी॥
ठोकरें खाकर निराशा-
से न पीछे को हटूंगा।
लाख बार गिरुं भले, पर,
साधना में रत रहूँगा॥
साधना से विरत होकर,
कौन साधक बन सका है।
सफल साधक के सुपथ में,
कौन बाधक बन सका है॥
साधनों को ही जुटाने-
के निमित्त निकल पड़ा हूँ।
विश्व के अनजान पथ पर,
मै अकेला चल पड़ा हूँ॥
है नहीं साहस किसी में,
जो कि मुझको टोक देगा।
देखना है कौन मेरी,
राह आकर रोक देगा॥
मै हिमालय सा खड़ा हूँ,
हो जिसे साहस झुका ले।
आज़माना हो जिसे बल,
आज अपना आज़मा ले॥
है अटल विश्वास मुझको,
मैं न तिल भर भी झुकूंगा।
चल पड़ा हूं जब कि आगे,
ना मुड़ूंगा, ना रुकूंगा॥
सकल संचित साध लेकर,
लक्ष्य ओर मचल पड़ा हूँ।
विश्व के अनजान पथ पर,
मै अकेला चल पड़ा हूँ॥
--डा. शिव रत्न लाल (डा. शिव रत्न लाल के कविता संग्रह 'अन्तः सलिला से)
उदबोधन
जागो पंछी हुआ सबेरा।
बीत गई अब रजनी काली,
कूक उठी कोयल मतवाली।
विहंस पड़ी सुमनों की डाली,
सौरभ से भर अपनी प्याली॥
देखो प्राची के प्रांगण में,
ऊषा ने है हेम बिखेरा।
जागो पंछी हुआ सबेरा॥
नभ ने ओस बूंद बरसाया,
सरिता ने संगीत सुनाया।
कलियों ने यौवन-रस पाया,
मधुप वृन्द उन पर मंडराया॥
बहने लगा मन्द मलयानिल,
प्रात हुआ अब मिटा अंधेरा॥
जागो पंछी हुआ सबेरा॥
चहक उठो अब कुछ तो बोलो,
अलसाई आँखों को खोलो।
उड़ कर नभ में वन वन डोलो,
पंखों पर निज जीवन तोलो॥
अपने बल की करो परीक्षा,
छोड़ो निर्बल नीड़ बसेरा॥
जागो पंछी हुआ सबेरा॥
--डा. शिव रत्न लाल (डा. शिव रत्न लाल के कविता संग्रह 'अन्तः सलिला से)
दोनों बहुत ही सुन्दर कवितायें हैं और बहुत ही सरल भाषा में लिखी है। अपने दादा के लिये आपका प्यार वाकई काबिले तारीफ है समीर जी।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कवितायें है । और भी पढवायें ।
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया समीर जी ,इतनी अच्छी कविताएँ यहाँ प्रस्तुत करने के लिये..उस दौर की लेखनी को समर्पित है मेरी ये पन्क्तियाँ--
जवाब देंहटाएं"थी शक्ति कलम मे तब अपार
न था शब्दोँ का तब व्यापार
पढकर ह्रदय प्रफुल्लित होता
या फिर आँखेँ नम होती थी
तब लेखनी मे था जादू
तब कविता, कविता होती थी."
आपके लेखन को देख कर लगता था कि आप को यह गुण विरासत में मिले होंगे, आज रहस्य पता चल ही गया!
जवाब देंहटाएंगुजराती में एक कहावत है कि " मोर ना ईंडा चितरवा ना पड़े" यानि मोर के अंडों को पहचानने के लिये उन पर चित्रकारी नहीं करनी पड़ती है।
अब पता चला, राज खुल ही गया. मैं सोचता था आप इतना अच्छा किस प्रकार लिख लेते हैं, यह तो खानदानी गुण हैं जो विरासत में मिला हैं.
जवाब देंहटाएंआजतक जो भी वाहवाही आपकी की हैं वह वापस ले कर आपके बाबा को समर्पित करता हूँ.
शुक्रिया दादाजी से हम सबका परिचय करवाने का !
जवाब देंहटाएंअब पता चला कि आपको साहित्यिक प्रतिभा कहाँ से मिली है। आपके बाबा जी (हम लोग भी बाबा ही कहते है।)की दोनों ही कवितायें बहुत अच्छी लगीं, खास कर दूसरी। बाँटने के लिये धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसब के सब छुपे रुस्तम हैं यार यहां तो।
जवाब देंहटाएंअब समझा समीर लाल के जीन्स में ही कवितायें और साहित्य भरा पडा है।
बहुत सरल कवितायें, वाह वाह।
समीर भाई :
जवाब देंहटाएंविशमताओं और जीवन के यथार्थ को स्वीकारती लेकिन फ़िर भी आशा की किरण और अडिग विश्वास लिये ये दोनों कविताएं बहुत अच्छी लगीं ।
आप के दादा जी की और कवितएं पढनें का मन रहेगा ।
समीर भाई,
जवाब देंहटाएंआपके परिवार के वरिष्ठ सदस्य --डा. शिव रत्न लाल के वारे मेँ जान कर, उनकी कविताएँ पढकर,
बहुत प्रसन्नता हुई !
" जागो पँछी हुआ सवेरा " तो गुनगुनाने का मन हुआ --
उन्हेँ , मेरे शत शत प्रणाम !
कृपया, मेरी टीप्पणी भी आपके ब्लोग पर रख देँ --
शुक्रिया :)
लावण्या
मनोबल बढ़ाने वाली सुंदर कविताएँ हैं। और भी पढ़वाएँ।
जवाब देंहटाएंबताइए, ई पोस्टवा अगर हम पहिलै पढ़े रहे होते त पहिलै से नगैचई होए गए रही होती न!
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