मंगलवार, अगस्त 15, 2006

एक अजब सा एहसास....

एक अजब सा एहसास.

पहले इतनी दूर थे कि फोन पर बात करने मे भी तीन दिन मे काल लग पाता था और जब लग भी जाये तो चीख चीख कर बात हो, वो भी हाल चाल जानने तक सीमित.वजह, एक तो आवाज साफ़ नही और उस पर से फोन दर इतनी मंहगी कि महिनों मे एक बार बात हो जाये तो काफी. सिर्फ़ चिठ्ठियां सहारा होती थी विस्तार से बात करने की.ना एस एम एस और ना ही इंटरनेट. मगर जब भी मिले, बड़ा इंतजार होता था मिलने का.तरह तरह की बात, प्यार भरा स्वागत और फिर मिलने का वादा.

धीरे धीरे वक्त बदला, दुनिया बदली, हम बदले और संबंधों की मर्यादायें बदलीं और आंकलन का पैमाना बदला.इंटरनेट आ गया, ईमेल, चैट, वोइस चैट.फोन एकदम सस्ते और एक डायल मे जैसे लोकल बात हो रही हो.एस एम एस और सैल फोन की दुनिया हो गई.ना चिठ्ठी ना पत्री, बस ईमेल और फोन.अब तो भाई का भाई के पास डाक का पता भी नही होता.होता है तो सिर्फ़ मोबाईल का नम्बर और ईमेल.फोन पर बात हो गई आ रहे हैं, स्टेशन आ जाना लेने.ट्रेन एक स्टेशन पहले होगी तो मिस्ड काल दे देना. अब अगर वो लेने ना पहुँचे, तो इंतजार करो, पता तो मालूम ही नही, कहां जाना है.बस, मोबाइल चटकाओ या एस एम एस.

फोन पर दिन मे कई बार और चैट पर लगातार बात होने के परिणाम ये हो गये, कि दूरियों का एहसास ही खत्म हो गया और साथ आई ढ़ेरों पंचायत.इससे यह बात हुई, उसने ऎसा कहा, वो यह कर रहा है आदि आदि.,बस यही सब मसाला हर वक्त.जब मिले तो कुछ नया बिन बताया बचा ही नही, क्या बात करो.सब तो फोन और चैट पर कर चुके.पहले रिश्तेदारों के यहां पहुँचते ही हमारा बच्चों से फ़ेवरेट वार्तालाप रहता था कि कैसे हो? बाप रे, कितने बड़े हो गये, बिल्कुल बदल गये हो? कौन सी क्लास मे पहुँचे? अब तो हर हफ़्ते ईमेल मे फोटो पहुँच जाता है और बकिया सब फोन पर..तो बच्चों से क्या बात करूँ?सारा लेटेस्ट तो जानता हूँ.

नव युवाओं के क्षणिक प्रेम संबंधों का भी शायद यही कारण होगा कि अत्याधिक बातचीत..शायद दूरियों से जिस कसक और मिलने की चाह का जो एह्सास रहता था, वो अब बचा नही.

सब देख देख कर सोचता हूँ कि क्या यह अच्छा हुआ कि खराब.वक्त की वादियों मे खोया हुआ बस उत्तर की तलाश मे हूँ. समझ नही आता.बस चन्द पंक्तियों ने जन्म ले लिया,इस एहसास से:

भूगोल की बात जबसे इतिहास हो गई
रिश्तों के बीच मानिये, मिठास खो गई.


बीता था बचपन जिनके साथ कभी
आज उनके ही पते की किताब खो गई.


भटकती रही जिन्दगी यूँ हर गली
दिन के ढलने से पहले ही रात हो गई.


भीड़ लेकर चली जब जनाज़ा मेरा
गली उनकी जो आई, बारात हो गई.


वादा निभाने को वो ना लौटे 'समीर'
हर शाम जिंदगी बस उदास हो गई.


-समीर लाल 'समीर'

13 टिप्‍पणियां:

  1. आदमी की आदत है पुराने समय को याद करना और उसे बेहतर मानना। कई बार छोटे-छोटे कदम जो अभी बेहतर लगते है वो उस मंजिल की और पहुँचा देते है जिसे हम पहुँचना नही चाहते। पर क्या करें, अभी के हिसाब से तो सर्वश्रेष्ठ निर्णय ही ले रहे हैं ना। अपने चिठ्ठे पे इसी विषय पर पूरी प्रविष्टी लिखूँगा कभी।

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  2. "परिवर्तन प्रकृति का नियम है" और परिवर्तन का विरोध हम भावुक इंसानों का।
    परिवर्तन के साथ बहना ही इंसान की नियति है समीर जी।
    अगर अच्छे पहलुओं को देखें तो जो बुरे पहलू आपने गिनाये वो कुछ भी नही।
    आज की पीढी से आप ये बातें करेंगे तो ऐसा भी वक्त था, वे यकीन नही करेंगे।
    लेकिन समय के साथ नये को स्वीकारना और पुराने को ज्यादा भावुक हुए बिना भुलाना ही सर्वोत्तम है।

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  3. जैसा आशीष ने लिखा है शायद यही बात को हम "पुराने" आदमियों को बीता समय ही अच्छा लगता हो! पर यह सच है कि घर परिवार की खबर रखना अब हम जैसे प्रवासियों के लिए अधिक आसान हो गया है और कम से कम इस बात के लिए मैं बीते समय का सोच कर दुखी नहीं होता, बल्कि आने वाले समय में होने वाले और नये आविष्कारों की राह देखता हूँ.

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  4. अरे समीरजी आज ही सुबह-सुबह इस कल्पना में डुबा हुआ था की ग्रामीण क्षेत्रो में हरेक के पास अभी कमप्युटर तो पहुंचने से रहा क्यों न हर डाक घर को नेट से जोड दें और वहां से लोग अपनी भाषा में (युनीकोड हैं ना) अपने रिश्तेदारों को ई-पत्र भेजे और सामने वाले भी डाक-घर जाकर उसे पढे या शुल्क देकर प्रिंट प्राप्त कर लें. कितनी सुविधा हो जाएगी.
    कितना सरल हो गया हैं संचार.
    आनंद ले.

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  5. समीर भाई,
    आप एकदम सही फरमा रहे है।लेकिन दूसरी तरह से देखा जाए तो हमे नयी टैक्नोलाजी का शुक्रगुज़ार होना चाहिए, क्योंकि इन्टरनैट ने पूरी दुनिया को एक छोटे से गाँव मे बदल दिया है।अब आप कनाडा मे बैठकर कविता कर रहे है और हम कुवैत से बैठकर वाह! वाह! कर रहे है, वो भी बिन खर्चे के।

    कविता वाकई बहुत सुन्दर लिखी है। इसे और आगे बढाइए।

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  6. बहुत सुंदर प्रस्तुति है। हर बात के दो पक्ष होते
    हैं। ज़रुरत के हिसाब से हम उन्हें आँक लेते हैं।

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  7. भीड़ लेकर चली जब जनाज़ा मेरा
    गली उनकी जो आई, बारात हो गई.

    वाह क्या खूब लिखा है!!!

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  8. समीर भाई
    सही कहा आपने. उन दिनों की एक रचना याद आ गई जो आज अर्थहीन हो गई है.
    जब कभी कोई नंबर डायल किया है
    कभी सही जगह नहीं मिला
    कभी मिलाही नहीं
    और कभी मिला भी
    तो घंटी ही नहीं बजी
    और अगर घंटी बजी भी
    तो दूसरी ओर उठाने वाला कोई नहीं था
    और अगर किसी ने उठाया भी
    तो वह आवाज़ नहीं थी
    जो मुझ तक पहुंच सके

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  9. इस सबके बावजूद मिलने पर बातें निकल ही आती हैं।

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  10. हर शाम बस ज़िन्दगी उदास हो गई
    वो न आए, न कुछ ख़त किताबत हुई
    फोन बजने लगा, उनसे बातें हुईं
    फिर ईमेल लम्बी सी भी आगई
    दिल की कलियाँ खिलीं, करामात होगई

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  11. भूगोल की बात जबसे इतिहास हो गई
    रिश्तों के बीच मानिये, मिठास खो गई.
    माशाल्‍लाह, क्‍या खूब तबसरा पेश किया है समीर जी....मज़ा आ गया ‌
    लेकिन कई प्रणयबंधन में बँधे हैं ईन चॅट की सुविधाओं से ः)
    परंतु जो नज़्‍म पेश किया है वाकई दाद के काबिल है....लिखते रहें जनाब...
    धन्‍यावाद
    फिज़ा

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  12. वाह, इसे कहते है, एक भावुक कवि होना और रिशतो के भार को खुशी से ढोना! समीर जी, सचमुच ये पंक्तियां अपने आप मे अनोखी है कि -

    भीड़ लेकर चली जब जनाज़ा मेरा
    गली उनकी जो आई, बारात हो गई.

    समीर जी,
    हम कहेंगे इतना ही,

    मेरा जनाज़ा भी निकला कुछ एसे
    कि मैयत यादों की सौगात हो गई.
    दीदारे चांद किया करते थे ईद पर कभी
    अब तो ईद ही उनकी हर याद हो गई..!

    समीर जी आज काफ़ी दिन बाद आपका ब्लाग पढ़ पाई हूं, मगर यकीन मानिये, हर बार आपकी रचना और भी ताज़गी लिए होती है.!
    -सादर रेणु आहूजा.

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