शनिवार, अक्तूबर 15, 2022

पहाड़ी ओहदों की बस्ती में जिंदगी का अहसास..

 



सरकारी घर मिला हुआ था पिता जी को, पहाड़ के उपर बनी कॉलोनी में- अधिकारियों की कॉलोनी थी- ओहदे की मर्यादा को चिन्हित करती, वरना कितने ही अधिकारी उसमें ऐसे थे कि कर्मों से झोपड़ी में रखने के काबिल भी नहीं, रहना तो दूर की बात होती. मजदूरों और मातहतों का खून चूसना उन्हें उर्जावान बनाता था.

वो अपने पद के नशे में यह भूल ही चुके थे कि कभी उन्हें सेवानिवृत भी होना है. खैर, सेवा के नाम पर तो वो यूँ भी कलंक ही थे तो निवृत भला क्या होते लेकिन एक परम्परा है, जब साथ सारे अधिकार भी पैकेज डील में जाते रहते हैं. खुद तो खैर औपचारिक रुप से सेवानिवृत होने के साथ ही शहर में कहीं आकर बस जाते मगर बहुत समय लगता उन्हें, जब वो वाकई उस पहाड़ वाली कॉलोनी से अपनी अधिकारिक मानसिकता उतार पाते. जिनका जीवन भर खून पी कर जिन्दा रहे, उन्हीं से रक्त दान की आशा करते. कुछ छोड़ा हो तो दान मिले. खाली खजाने से कोई क्या लुटाये.

उसी पहाड़ पर उन्हीं अधिकारियों के बच्चे, हम सब भरी दोपहरिया में निकल लकड़ियाँ और झाड़ियाँ बीन कर चट्टानों के बीच छोटी छोटी झोपड़ियाँ बनाते और उसी की छाया में बैठ घर घर खेलते. अपने घर से टिफिन में लाया खाना खाते मिल बाँट कर और उस झोपड़ी को अपना खुद का घर होने जैसा अहसासते. मालूम तो था कि शाम होने के पहले घर लौट जाना है या अगर ज्यादा गरमी लगी तो शाम से कोई वादा तो है नहीं कि तुम्हारे आने तक रुकेंगे ही, और होता भी तो वादा निभाता कौन है? फिर रात तो गर्मी में कूलर और सर्दी में हीटर में सोकर कटेगी (आखिर अधिकारी के बेटे जो ठहरे) तो झोपड़ी की गर्मी/सर्दी की तकलीफ का कोई अहसास ही नहीं होता. घर से बना बनाया खाना और बस लगता कि काश इसी में रह जायें.

वातानुकूलित ड्राईंगरुम में बैठकर गरीबी उन्मूलन पर भाषण देने और शोध करने जैसा आनन्द मिला करता था उन झोपड़ियों में बैठ कर.

पहाड़ों पर तफरीह के लिए घूमने जाना और पहाड़ों की दुश्वारियों को झेलते हुए पहाड़ों पर जीवन यापन करना दो अलग अलग बातें हैं, दो अलग अलग अहसास जिन्दगी के.

काश!! दुश्वारियाँ, परेशानियाँ और दर्द बिना झेले अहसासी जा सकती. तब इन नेताओं की कपोल कल्पनाएं भी कम से कम कुछ तो वास्तविकता के करीब होतीं. झूठ में थोड़ा सी सही कुछ तो सच भी होता.

एक जमाने में अंधों की बस्ती के राजा ने प्रजा से कहा कि तुम सब खतरे में हो, बस्ती में शेर घुस आया है. सारी अंधी प्रजा राजा के ऐलान पर यहाँ वहाँ भागने लगी. कुछ समय बाद फिर राजा ने ऐलान कराया कि अब आप सब निश्चिंत हो जाओ, मैंने शेर को पीट पीट कर वापस जंगल भगा दिया है. प्रजा ने राजा का जयकारा लगाया. अब जब जब भी राजा को अपना मतलब साधना होता वो ऐसा ही ऐलान करता और फिर शेर को पीट पीट कर भगा देता किन्तु उसे मारता कभी नहीं वरना भविष्य में शेर फिर कैसे आता? बस अंधों की बस्ती थी – न कोई शेर था, न कोई खतरा. राजा अपना मतलब साध रहा था. सदियों पुरानी परंपरा आज भी चल रही है – आज धर्म खतरे में है.     

सुनते हैं आजकल युवराज भी ऐसे ही कुछ अहसास पाने के लिए देशाटन कर रहे हैं वाकई में कुछ दर्द सह कर, मगर न जाने किस आशा में जुड़े हुए भारत को फिर से जोड़ने की एक अथक कोशिश में.

सबके अपने राग हैं और सबके अपने ढोल – आम जनता का काम तो हर हाल में नाचना बस है.

ये सामर्थ्यवान है इनकी हर ढाप सुहानी मगर जनता के नाच में अब दुश्वारियां और दर्द उभरने लगा है.  

कहते हैं न कि भरी रसोई में ही उपवास भी धार्मिक कहलाता है वरना तो फक्कड़ हाली को कौन पूछता है. न कोई पुण्य मिलता है, न ही पुण्य प्राप्ति की आशा उन दो रोटियों की उम्मीद में.

भगवान भी कैसे भेदभाव करता है-शौकिया भूखा रहने वालों को पुण्य और मजबूरीवश भूखा रहने वालों को अगले दिन फिर भूख झेलने की सजा.

-समीर लाल ‘समीर’

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अक्टूबर 16, 2022 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/619

 

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बुधवार, अक्तूबर 05, 2022

जिंदगी शायद इसी कशमकश का नाम है!!

 


आज सुबह जब टहलने निकला तब

आदतन हर रोज की तरह अरमानों का

इक बादल उठा लाया था साथ अपने ,

दिन गुजरा और बदला कुछ मौसम,

सूरज अब डूबने को हुआ है लालायित –

और मैं खोज रहा हूँ उस बादल को

वो भी खो गया कुछ मुझसा मेरे साथ

या फिर बरस गया है कहीं कुछ यूं ही

पसीनों की उन झिलमिल बूंदों के साथ

जो मुझे ले आई हैं दिन के उस पार से

इस पार तक एक नया मैं बनाते हुए !!

हर रोज इक बादल खो जाता है मेरा

इन मेहनतकश पसीने की बूंदों के साथ –

जिंदगी शायद इसी कशमकश का नाम है!!

मगर साथ ही मुझे इस बात का भी भान है-

सूरज डूबता ही है फिर से ऊग आने के लिए!!

-समीर लाल ‘समीर’