शनिवार, अप्रैल 30, 2022

त्रासद मानसिकता के गुलाम

 


अभी लम्हा पहले, जैसे ही अपने थके शरीर को कुछ आराम देने की एक ख्वाहिश लिए उसने पलंग पर लेट आँख मूँदी ही थी कि उसे लगा कि मानो कई सारी रेलगाड़ियाँ धड़धड़ाती हुई उसके मकान के नीचे से गुजरी हों...आँख खोली तो देखा पूरा मकान और उसकी हर दीवार उस धड़धड़ाहट से जैसे काँप उठी हो...न कभी सोचा होगा और न कभी अहसासा होगा इस धड़धड़ाहट को तो दहल कर काँप जाना ऐसे में एकदम लाज़मी सा है.

उसने महसूस किया अपने सीने पर आ गिरी छत की उस बीम का वजन कि इंच भर मौत से दूर...सांसे दफन होने की कगार पर..और खिड़की से आती कोहराम की आवाजें..हृदय विदारक क्रंदन के बीच...पदचापों की भागती चित्कार...जाने कौन कहाँ कैसे दफन होगा..कौन से अरमान...कौन से सपने...क्या कोई सोचता होगा इस मंजर के बीच...एक जिन्दगी की भीख मांगती मौत से फरियाद करती जुबां...चुप चुप सी घुँटी हुई आवाज...

अखबार बोल रहा है रूस का बर्ताव यूक्रेन के साथ.  महामारी का बर्ताव मानवता के साथ और उन सब के ऊपर हमारे सर पर बिना बोले चढ़ा मजहब का बुखार – महामारी से घातक – रूस, महामारी और यह मजहबी महामारी – सब सियासत को सुहाती है- उनके सत्ता मे बने रहने की साजिश की कड़ी का एक हिस्सा. कोशिश ही तो है एक भरम में जीने की मानो एक हिटलरी प्रयास यहूदियों का नामों निशान मिटा डालने का -क्या हासिल आया? अंत हिटलरी की खुदकुशी के साथ और यहूदी कौम विश्व की आर्थिक सत्ता पर अपना वर्चस्व कायम कर बैठी.

मोहब्बत और सत्ता की जंग की मधान्तता में सब कुछ जायज है.

घातक है मगर नियम तो यही है -सहना भी होगा। आजतक सहा ही है. अब तक तो सर्कस के हाथी की तरह लाचारी में जीने की आदत भी पड़ ही गई होगी – क्या बंधन छुड़ाना?  

चलते चलते एक विचार...कि इस जीवन से..जाने क्या किसने पाया होगा और जाने क्या किसने खोया होगा, कौन किस अपराध बोध तले क्या महसूस करता होगा की सोच से आगे ...आज सोच मजबूर हुई होगी...इस जीवन से...मात्र जी लेने की एक ऐसी तमन्ना लिए..और आती एक साँस...

और वो भी एक और इन्तजार में कि कैसे ले लूँ एक सांस और....

त्रासदी से गुजरती मानसिकता कभी सुकूं नहीं तलाशती...

उसकी सोच के परे की बात है सुकूँ और शांति जैसी शब्दावलि....

उसे तलाश होती है तो बस इतनी कि त्रासदी का असर कुछ कम हो जाये...

दुर्गति की गति को थोड़ा विराम मिल जाये..और वो जी सके एक और पल..चाहे जैसा भी पल..

एक अगला पल..जिसका उसे न अंदाज है और न ही कोई अरमान कि कैसा गुजरेगा वो पल..

मगर वो पल आये बस इतनी सी चाह...चाह कहें कि एक मात्र बचा विकल्प..

सुकूँ और शांति से भरे बेहतर पलों को जीने की चाह सिर्फ बेहतर पलों में जीते लोगों का शगल है ..

वरना तो किसी तरह जी पायें..बस इतना सा है सारा आसमान..कहने को मुठ्ठी भर आसमान...

मगर सोचें तो चिड़िया की चोंच में सिमटा सारा जहां..न जाने कितनों का..

उस जहां में जहाँ अब इन्सानों के नाम बदले है नम्बरों में..मृतक क्रमांक ७७८... मृतक क्रमांक ९७१ ..मजहब ..न मालूम..और सरकारी इन्तजाम...सब एक साथ जले और राख हो गये!!

सड़कों पर सबके लिए एक सा कैंडिल लाईट विज़ल..एक से फूल..एक से आँसूं..और एक सी राजनीति..

 

कुछ गहरे उतर कर सोचो तो...

एक दौड़ क्यूँ..

अगर ठौर ये..

फिर कहर क्यूँ?

-रुको, सोचो...

कुछ पल को जी लो जरा!!

 

-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार मई 1, 2022 के अंक में:

https://www.readwhere.com/read/c/67763546


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शनिवार, अप्रैल 23, 2022

बचपन के दिन भुला न देना

 


ठीक ठीक तो याद नहीं किन्तु शायद दूसरी या तीसरी कक्षा में रहा हूँगा. सरकारी कॉलोनी का माहोल. सब अड़ोस पड़ोस के घर एक दूसरे के जानने वाले.

हमारे एकदम पड़ोस के घर में एक मेरी ही हमउम्र लड़की रहती थी. नाम था डॉली. सभी दोस्त दिन भर साथ खेलते, वो भी हमारे साथ खेलती थी. एकदम गोरी थी और सुन्दर भी. मुझे डॉली बहुत भाती थी. मैं उसके साथ अकेले में भी बहुत बात करता और खेलता.

उसकी तरफ मेरा खास रुझान और आकर्षण देख कर सब बड़े भी मेरा खूब मजाक बनाते.

सब बड़े पूछते कि तुम बड़े होकर किससे शादी करोगे और मैं नन्हा बालक सहज ही कहता कि डॉली से.

बड़ो का क्या है- बिना बालमन पर हो रहे आघात को विचारे वो कहते कि डॉली तो इतनी गोरी है, वो क्यूँ तुझ जैसे कल्लू राम से शादी करेगी?

मुझे बड़ा बुरा लगता और मैं परेशान हो उठता कि मेरा रंग काला क्यूँ हुआ? बच्चों की सोच ही कितनी होती है आखिर. दिन दिन भर इसी उधेड़ बून में रहता.

इसी सोच और परेशानी में एक दिन मैने डॉली से पूछ ही लिया कि वो आखिर इतनी गोरी कैसे है? क्या करती है अपने आपको इतना गोरा बनाने के लिए?

डॉली के घर का माहौल थोड़ा हाई स्टेन्डर्ड का था. उस जमाने में भी उसके घर में लोग चम्मच से चावल दाल खाते थे. वो खुद भी अंग्रेजी माध्यम में पढ़ती थी और घर में भी अंग्रेजों का सा माहौल था. उसके घर में जब सब सोने जाते थे तो एक दूसरे को गुड नाईट कहते थे और सुबह उठकर गुड मार्निंग. अपनी मम्मी से बाय करके डॉली स्कूल निकलती थी. यह सब बातें उस जमाने के मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए एक अजूबा सी थी.

मेरे प्रश्न पर उसने बताया कि वो रोज क्रीम खाती है, इसलिए गोरी है. 

हम सरकारी स्कूल के हिन्दी माध्यम से पढ़ने वाले नादान बालक. अपनी बुद्धि भर का समझ कर अपने घर लौट आये और शाम को ड्रेसिंग टेबल से उठाकर एक चम्मच अफगान स्नो क्रीम (उस जमाने में चेहरे पर लगाने के लिए यही क्रीम चला करती थी) गोरा होने की फिराक में खा गये. फिर तो बेहिसाब उल्टियाँ हुई. दीदी ने पूछा कि क्या हुआ? कैसे हुआ? तो उसको पूरा किस्सा बताया. 

वो हँस हँस कर पागल हो गई और उसने घर भर में सबको बता दिया. इधर हम उल्टी पर उल्टी किये जा रहे थे और घर वाले सब हँसते रहे. गरम दूध वगैरह पिलाया गया, तो तबीयत संभली और फिर दीदी ने बताया कि डॉली क्रीम खाती है का मतलब मलाई खाती है, ऐसा कहा होगा उसने और तुम अफगान स्नो खा गये. 

किसी बडे के द्वारा अनजाने में भी  की गई मजाक कोमल मन पर कितना गहरा असर कर सकती है और आहत बालमन अपने भोलेपन में क्या से क्या कर बैठता है. बच्चों से बात करते समय बड़े और समझदार इतना सा ख्याल रखें....काश!!! 

खैर, बचपन बीता, कौन जाने वो कहाँ गई? पिता जी की ट्रांसफर वाली नौकरी थी. शहर बदलते गये, दोस्त बदलते गये. 

मगर मेरे बहुत बड़े हो जाने तक याने यहाँ तक कि मेरी शादी हो गई, उसके बाद तक भी गाहे बगाहे यह बात निकाल कर कि ये गोरा होने के लिए एक बार अफगान स्नो खा गया था, खूब हँसी उड़ाई जाती रही और हम अपना सा मूँह लिये आजतक उसी रंग के हैं, जिससे भला कौन डॉली शादी करती. 

बालमन कहाँ जानता था कि पूछ सीरत की होती है, सूरत की नहीं. बीबी तो हमको भी गोरी ही मिली और सुन्दर भी.

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अप्रेल 17, 2022 के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/67497393


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शनिवार, अप्रैल 16, 2022

हज़ारों ख्वाईशें ऐसी कि हर ख्वाईश पे दम निकले

आज तो कुछ लिखने का मन ही नहीं है. रात हो गई है.अँधेरा घिर आया है. मैं घर के पिछवाड़े में निकल कर लॉन में बैठ जाता हूँ. शीतल मनोहारी हवा मद्धम मद्धम बह रही है. बिल्कुल सन्नाटा. अड़ोस पड़ोस सब सो गया है, ऐसा जान पड़ता है.

मैं आकाश में देखते हुये वहीं लॉन पर लेट जाता हूँ. विस्तृत आकाश. बिल्कुल साफ मौसम. एक कोने में खड़ा चाँद. ऐसा लगता मुझे बेमकसद ताकते देखकर मुस्करा रहा है. पूरा आसमान टिमटिमाते तारों से भरा अदभूत नजर आ रहा है. मानो किसी बड़े से ताल में दोने में तैरते असंख्य दीपक. मेरे मन में हरकी पौड़ी, हरिद्वार की याद सहसा जीवंत हो जाती है. गंगा में तैरते असंख्य प्रज्वलित दीप. यह याद भी क्या चीज है, शिद्दत से याद करो तो सब नजारा जैसे एकदम जीवित हो जाता है. मुझे हवा में घी और अगरबत्ती की मिली जुली खूशबू आने लगती है और कान में घंटों और घड़ियालों के संग बजती गंगा आरती साफ सुनाई देने लगती है:

ओम जय गंगा माता......

मैं डूब जाता हूँ. एकाएक एक कार की आवाज से तंद्रा भंग होती है. शायद पड़ोसी देर से लौटा है आज. मैं भी हरिद्वार से वापस कनाड़ा की लॉन में लौट आता हूँ.

फिर एक टक आकाश में दृष्टि विचरण. बचपन में जब छत पर सोया करते थे तब दादी उत्तर में ध्रुव तारा और फिर सप्तऋषि मंडल दिखाया करती थी और उनकी कहानी न जाने कितनी बार सुनाती थीं. मैं आज फिर उसी ध्रुव तारे को खोजने लगता हूँ और फिर वो सप्तऋषि मंडल दिखाई देता है. दादी की कहानी याद आती है कि कहाँ चंद्रशिला शिखर के नीचे, तुंगनाथ स्थित है. निकटवर्ती स्थलों से सर्वोच्च स्थल पर अवस्थित होने के कारण इसे तुंगनाथ कहा जाता है. केदारखंड पुराण में इसे तुंगोच्च शिखर कहा गया है. यहाँ पूर्वकाल में तारागणों यानि सप्तऋषि ने उच्च पद की प्राप्ति हेतु घोर तप किया था. सप्तऋषियों के तप से प्रफुल्लित हो भगवान शिव ने उन्हें आकाश गंगा में स्थान प्रदान करवाया था. बचपन फिर जीवित हो उठता है.

वापस लौटता हूँ आज में तो इस अथाह आकाश गंगा को देख यूँ ही टिटहरी चिड़िया की याद आ जाती है. सुनते हैं वो आकाश की ओर पैर उठा कर सोती है. सोचती है कि अगर आकाश गिरा तो पैर पर उठा लेगी और खुद बच जायेगी. अनायास ही अनजाने में मेरे पैर आकाश की तरफ उठ जाते हैं. तब ख्याल आता है टिटहरी की इस हरकत को लोग उसकी मुर्खता से जोड़ते हैं और मेरे चेहरे पर अपनी मुर्खतापूर्ण हरकत के लिये मुस्कान फैल जाती है और मैं पैर सीधे कर अपने आपको विद्वान अहसासने लगता हूँ. स्वयं को विद्वान अहसासने का भी एक विचित्र आनन्द है, जो इस पल मैं महसूस कर रहा हूँ. इस आनन्द को शब्दों में बाँधना शायद संभव नहीं.

तब तक अचानक ही एक तारा टूट कर गिरता है बड़ी तेजी से. दादी कहा करती थी कि जब तारा टूटे तो उसके बुझने के पहले जो भी वर मांग लो, वो पूरा हो जाता है. जाने क्या मान्यता रही होगी या शायद अंधविश्वास रहा होगा मगर मेरी दादी ने कहा था तो आज भी मेरा मन इस पर विश्वास करने का होता है. कारण मैं नहीं जानता. कभी कोशिश भी नहीं की जानने की.

मैं एकाएक सोचने लगता हूँ क्या मांगू?

हज़ारों ख्वाईशें ऐसी,कि हर ख्वाईश पे दम निकले,.......

मैं सोचता ही रह जाता हूँ और तारा बूझ जाता है.

सोचता हूँ कि हमारी कितनी सारी चाहतें हैं कि अक्सर ईश्वर कुछ पूरा करने का मौका भी प्रदत्त करता है मगर हम ही नहीं तय कर पाते कि कौन सी चाहत पूरी कर लें. हर वक्त बस एक उहापोह. शायद सभी के साथ ऐसा होता हो और फिर कोसते हैं अपनी किस्मत को कि हमारी तो कोई इच्छा ही नहीं पूरी हो पाती.

क्या हम कभी भी तुरंत तय कर पायेंगे, तारे के टूटने और बूझने के अंतराल में कि खुश रहने के लिये हम आखिर चाहते क्या हैं या यूँ ही हर आये मौके गंवाते रहेंगे?

असीमित चाह और सीमित समय और संसाधन. काश, हम सामन्जस्य बैठा पाते तो कितना खुशनुमा होता यह मानव जीवन.

मैं अनिर्णय की अवस्था में लॉन से उठकर घर के भीतर आ जाता हूँ.

-समीर लाल ‘समीर’


भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अप्रेल 3, 2022 के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/67226819


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सोमवार, अप्रैल 11, 2022

टिक्का मसाला- यमी यमी यम यम!!

 



कभी कभी लगने लगता था कि मांसाहारी भोजन करके शायद मैं हिंसा कर रहा हूँ. कोई बहुत बड़ा पाप. आत्म ग्लानि होने लगती है और एक अपराध बोध सा घेर लेता है खासकर तब, जब कि मांसाहार के साथ कुछ जाम भी छलके हों. अपराध बोध भी सोचिये कितना सारा होगा जो हम जैसी काया तक को पूरा घेर लेता है. कहते हैं पी कर आदमी सेंटी हो जाता है. वही होता होगा इस मसले में.
तीन चार दिन पहले टीवी पर एक अनोखा समाचार देखा. देखते ही मांसाहारी होने की पूरी ग्लानि और अपराध बोध जाता रहा. उस दिन से निश्चिंत हुआ. अब मुर्गे को कटते देख कोई हीन भावना नहीं आती बल्कि खुशी होती है. वो कौम, जिसकी जिस पर नजर पड़ जाये, उस पूरे गाँव, पूरे शहर, पूरे देश के निरपराध मानवों को मार कर खा गयी हो, उस पर कैसी दया और उस पर कैसा रहम. किस बात की आत्म ग्लानि? अच्छा ही हुआ-जब तुम्हारी कौम में हमको मारने की ताकत आई तो तुमने हमें अपना भोज बनाया और आज हममें ताकत है तो हम तुम्हें खा जायेंगे. खत्म कर देंगे.
टीवी ने बता दिया कि डायनासॉर के पूर्वज मुर्गे थे. टी वी दिन भर ढोल पीटता रहा कि मुर्गे डायनासॉर के बाप थे और उनके पूर्वज थे. टीवी वाले अंधो तक को दिखाकर माने और बहरों को सुना कर हर मसले की तरह.
मुझे तो पहले ही डाउट था कि जरुर कुछ न कुछ बड़ा पंगा किया होगा तभी तो मानव इन्हें खाने पर मजबूर हुआ. अभी बकरे की पोल खुलना बाकी है मगर जान लिजिये, उसकी पंगेबाजी भी जब खुलेगी तो ऐसा ही कुछ सामने आयेगा. पंगेबाजी का अंत तो ऐसा ही होता है चाहे किसी भी स्तर की पंगेबाजी हो. सिर्फ हिन्दी ब्लॉगजगत में पंगेबाजी जायज है और वो भी सिर्फ अरुण अरोरा ’पंगेबाज’ की.
अब तो शाकाहारियों को देखकर लगता है कि देखो, हम तुम पर कितना अहसान कर रहे हैं. वो मुर्गे जो डायनासॉर बन सकते हैं और तुम्हें और तुम्हारे समाज को पूरी तरह नष्ट कर सकते थे, उन्हें कनवर्जन के पहले ही खत्म करके हम तुम्हें भी बचा रहे हैं. काश, धर्म परिवर्तन जो कि इतना ही खतरनाक कनवर्जन है, के पहले भी ऐसी ही कुछ व्यवस्था हो पाती.
कल ही एक मुर्गा मिल गया था. पूछने लगा कि ऐसी क्या बात है, जो आप जैसी उड़न तश्तरी हमसे इतना नाराज हो गई?
हमने उसे साफ साफ कह दिया कि तुम हमसे बात मत करो, आदमखोर कहिंके. तुम तो वो बने जिसकी जिस पर नजर पड़ जाये, उस पूरे गाँव, पूरे शहर, पूरे देश के निरपराध मानवों को मार कर खा लिया. बर्बाद कर दिया. कहीं का नहीं छोड़ा. तुम पर क्या रहम, तुम्हारा तो यह अंजाम होना ही था.
हमारा खून तो तब से खौला है कि यह डायनासॉर आये कहाँ से, जबसे हमने जोरासिक पार्क फिल्म देखी थी. बस, भरे बैठे थे. जब पता चला कि यह तुम्हारा कनवर्जन हैं, तब से तुमसे नफरत सी हो गई है. मैं तो चाहता हूँ कि तुम्हारा नामो निशान मिट जाये इस धरती से.

मुर्गा मुस्कराया और बोला, " आपका साधुवाद, आप मानव प्रजाति के लिये कितना चिन्तित हैं. मगर हम मुर्गे जैसी ही एक आदमखोर प्रजाति ही तुम्हारी ही शक्ल में तुम्हारे बीच बैठी यही काम कर रही है, उसका क्या करोगे, मिंया. वो भी तो यही कर रहे हैं मगर अपनों के साथ ही कि जिस पर नजर पड़ जाये, उस पूरे गाँव, पूरे शहर, पूरे देश के निरपराध मानवों को मार दें, बर्बाद कर दें. कहीं का नहीं छोड़ें. "
मैं चकराया और पूछने लगा, ’कौन हैं वो?"
मुर्गा हँस रहा है. हा हा हा!! कहता है "तुम्हारे नेता और कौन!!"
बात में दम थी अतः मैं सर झुका कर निकल गया. इस मुर्गे पर न जाने क्यूँ मुझे रहम आ गया. नेता टिक्का मेरे आँखों के सामने तैर जाता है कि अगर उनका भी मुर्गों सा हश्र करने लगे मानव तब??
फिर पशोपेश मे हूँ कि मांसाहारी बने रहूँ या शाकाहारी हो जाऊँ?
-समीर लाल ‘समीर’


भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अप्रेल 10 , 2022 के अंक में:
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शनिवार, अप्रैल 02, 2022

रिंग टोन: खोलती है राज आपके व्यक्तित्व का

 


कनाडा से इतर भारत में हर दूसरा मोबाईल फोन, रिंग टोन में गाना बजाता और सुनाता है. अब की भारत यात्रा में तरह तरह की रिंग टोन सुनते और उससे जुड़े फोनधारक के व्यक्तित्व का अध्ययन करते जो परिणाम आये, वह जनहित में प्रकाशित कर रहा हूँ. पुनः आप जैसे अपवादों को छोड़ कर:

ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे

रिंग टोन रखने वाले लोग ऐसे लगे जैसे हजार पाप कर के गंगा जी में में डुबकी लगा कर समस्त पापों से मुक्ति पा लेने का आभास पाले पुनः नये पाप करने निकल पड़े हों. हर आने वाले फोन पर पिछले फोन काल पर किये पापों से मुक्ति और नये पाप करने का मार्ग सुद्दण होता नजर आता है इन्हें.

मेरे महबूब कयामत होगी, आज रुसवा तेरी गलियों में मोहब्बत होगी

ये वो फ्रस्टेटेड बन्दे हैं जिन्हें इस बात पर कोई भरोसा ही नहीं कि उनकी मोहब्बत भी कभी कामयाब हो सकती है. उन्होंने वैसे भी अपनी मोहब्बत कभी कामयाब होने की तमन्ना से की भी नहीं. मानो और कुछ न सूझा और पिता जी लतिया रहे हों तो एल एल बी कर ली. फिर कहते फिर रहे हों कि वकालत दिमाग नहीं दलाली का काम है और वो हम से न हो पायेगा. अपना इन्फिरियारीटी काम्पलेक्स छिपायें भी तो भला कैसे?

बहारों फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है

ये हर वक्त आलस्य की रजाई ओढ़े वो अलाल लोग हैं जो अपना काम दूसरों पर टालने में माहिर होते हैं. खुद कुछ करना नहीं. अरे प्रभु, महबूब तुम्हारा आ रहा है तो फूल भी तुम ही बरसाओ, बहारों को क्यूँ घसीटते हो. उनका काम फूल खिलाना और उसकी महक फैलाना है और तुम हो कि अपना काम उन पर डाले दे रहे हो.

सुन रहा है न तू, रो रहा हूँ मैं

ये महाराज अपनी प्रेमिका और पत्नी से झूठ बोलने में महारत हासिल कर चुके हैं. रो वो कुछ नहीं रहे हैं. दोस्तों के साथ ही बैठे बीयर पी रहे हैं और जैसे ही रिंग टोन बजी. बस, मानो कि किसी गायक को हारमोनियम पर किसी ने स्केल दे दिया हो. साआआ और फिर उसी स्केल पर इनका गीत शुरु. जानूं, सुन रही हो न, आई एम मिसिंग यू सो मच और यह बोलते हुए भी, पठ्ठा दोस्तों आँख मार कर बता रहा है कि उसका फोन है.

सीटी बजने की आवाज

सारी जिन्दगी सीटी बजाकर किसी को पलटवाने की ख्वाहिश पाले वो भयभीत इन्सान जिसे आजतक ठीक से सीटी बजाना भी नहीं आ पाया कभी. बस, इसे ऐसा समझे कि हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले. दम तो खैर क्या निकलता. हर काल पर अब सीटी जरुर निकल जा रही है.

पुराने जमाने वाले फोन की घंटी. ट्रिन ट्रिन.

काश!! कि वो दिन लौट आयें. हमारा जमाना ही कुछ और था, का नारा बुलंद करने वाले और नये जमाने से साथ कदम ताल न मिला सकने की वजह से पुराने जमाने के पल्लु में मूँह छिपाये उसी फोन की ट्रिंन ट्रिन सुन रहे हैं. इनके पास उस जमाने के किस्सों के सिवाय कुछ भी नहीं.

वाइब्रेशन मोड में हूम्म्म्म्म्म, हूम्म्म्म की आवाज करता फोन

न छिपा पाये, न बता पाये. बस यूँ ही हूम्म्म हूम्म में जिन्दगी बिता आये. अरे, इत्ता तो सोचो कि उपर जाकर क्या जबाब दोगे. न घंटी बजी और न ही चुप रहे. ये बड़े खतरनाक टाईप के लोग होते हैं मानो कि कोई निर्दलीय उम्मीदवार. क्या पता कब सरकार का समर्थन कर दे या कब विरोधियों के खेमे में जाकर सरकार गिरा दे.

साईलेंट मोड पर रखा हुआ फोन

अपने हक की भी तिलांजलि दिये हर हाल में कम्प्रोमाईज़ किये. बेवजह खुद को खुश दिखाने वाले और अन्दर से इतना मायूस कि कहीं कोई उनकी खुशी देख कर नाराज न हो जाये. इस हेतु आने वाले फोन को झुठलाते लोग. जो बाद में उन्हीं मिस हुये कॉलों को फोन करके माफी मांगेगे कि भाई, कहीं व्यस्त था जरा!! सॉरी!

अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में

ये रिंग टोन उन सब फोनों में बज रही है जिन्हें आज भी स्व विकास की उम्मीद सरकार से है. खुद तो वो बस आँख मूँदे भक्ति में लीन हैं अपना जीवन सरकार के हाथ में सौंप कर और सरकार भी जानती है कि इनकी आँखें ही नहीं दिमाग भी मूँदें है तो चला रही है अपनी मनमर्जी.   

खैर!! और अनेकों रिंग टोन सुनाई पड़ी, जैसे बेबी डॉल मैं सोने की.

उनका व्यक्तित्व आप आंकिये.

-समीर लाल समीर

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार मार्च  27, 2022 के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/67206068