कान में जूँ का रेंगना भी अजब सी घटना है. जाने किस बात पर रेंग जाये
और जाने किस बात पर न रेंगे. इसका बात की बड़ी या छोटी होने से कुछ लेना देना नहीं
है.
मंचों और माईकों से भाषण से लेकर प्रवचन तक सब दिये गये कि भ्रष्टाचार
मिटाओ. समझाया गया कि आप जब रिश्वत दोगे नहीं, तो कोई लेगा कैसे? मगर किसी की कान
में जूँ तक नहीं रेंगी.
और वहीं एक सेलीब्रेटी घर बैठे १४० से भी कम शब्दों में ट्वीट करता है
कि अज़ान की आवाज से उसकी नींद में खलल पड़ता है तो पूरा देश टूट पड़ता है. जूँ
रेंगने के बदले दौड़ पड़ती है सरपट सबके कानों में. कोई सेलिब्रेटी के साथ तो कोई
विरोध में.
१४० शब्दों के ट्वीट ने ऐसा हंगामा मचाया कि बात बत न रही..वह हिन्दु
मुसलमान हो गई. यही आजकल हर बात का चरम है. एक तरफ मंदिर की आरती, जगराता, गणपति
विसर्जन का हंगामा मुद्दा बनने लगा तो दूसरे तरफ लाऊड स्पीकर पर दी जाने वाली
अज़ान.
एक बात जरुर है ऐसे आड़े वक्तों में मीडिया अपनी यूजवल जलाई बुझाई के
साथ साथ आपको विषय विशेष में ज्ञानी ही नहीं विशेषज्ञ बना डालता है.
लगातार कार्यक्रम चला रहा है कि अज़ान क्या होती है? कौन सी दिशा में
देखकर कौन सी पंक्ति पढ़ी जाती है? हर पंक्ति का क्या अर्थ होता है? कितनी देर की
होती है? कितनी बार होती है? अज़ान लगाने वाला मुअज्जिन कहलाता है. अज़ान अरबी शब्द उज्न से बना है. डेसिबल क्या होता है? कितने डेसिबल तक लाउड
स्पीकर कोर्ट के आदेश के मुताबिक बजा सकते हैं? एडीसन कौन था? वो १८४७ में पैदा
हुआ था. ईस्लाम उसके पहले से है तो कुरान में तो लाउड स्पीकर का जिक्र आ ही नहीं
सकता और न जाने क्या क्या...
कभी जयललिता भर्ती हुई थीं तब उनके इतिहास से लेकर पूरी मेडिकल साईंस
पढ़ा डाली थी, तो कभी मंगलयान के साथ पूरा अंतरीक्ष ज्ञान तो कभी भूकंप आने पर एपिक
सेन्टर से लेकर रेक्टर स्केल और मेग्नीट्यूड का ज्ञान. मीडिया महान है..अपने आप
में एक विश्व विध्यालय है.
हमारे जमाने में तो ये इतने जागृत न थे मगर इतना सब कालेज में अगर कोई
पढ़ा देता तो आज हम कहीं किसी शहर के कलेक्टर होते.
ऐसे ही सीख सीख कर दिमाग ओवरलोड हो लिया है. कभी कभी तो पान ठेले की
तर्ज पर टीवी पर बोर्ड टांग देने का मन करता है: कृप्या यहाँ ज्ञान न बांटे, यहाँ
सभी ज्ञानी हैं.
धन्य हैं कि अभी वो स्तर नहीं हुआ है कि उस लेयर पर पढ़ाया जाये जहाँ
नींद में खलल के क्या क्या कारण हो सकते हैं और इससे स्वास्थय पर क्या प्रभाव पड़ता
है. अहसान ही कहलाया दर्शकों पर.
वरना इनका क्या- कह देते हवाई जहाज इतने बजे से इतने बजे न उड़ाया
जाये, उससे इतने डेसिबल का साउन्ड उठता है और कम्पन के रेडीयेशन का हार्ट पर इतना असर
पड़ता है. मुद्दा चाहिये बस्स!!
कहने लगेंगे कि एक एंटी रोमियों स्क्वॉयड की
तर्ज पर एंटी मुर्गा स्कवॉयड बनाई जाना चाहिये. जो भी मुर्गा सुबह सुबह बांग लगा
कर नींद में खलल डालेगा, उसे इस एंटी मुर्गा स्कवॉयड के स्वयंसेवक मुर्गा बना कर
सजा देंगे.
कोई ज्ञानी प्रश्न उठायेगा कि वो तो पहले से ही
मुर्गा है, उसको क्या मुर्गा बनाओगे?
जबाब तो सब जानते हैं, दारु के साथ जो मुर्गा
खाया जाता है वो भी तो मुर्गे से ही बनता है..तब काहे नहीं पूछते हो कि मुर्गे को
क्या मुर्गा बनाओगे?
खैर दहशत कहो या विकास या शहरीकरण!! मुर्गा
जमाने से मौन है..
सच सच बताना कि मुर्गे की बांग आखिरी बार कब
सुनी थी सुबह सुबह!!
१९८५ के बाद जन्में बच्चे इस प्रश्न के दायरे
के बाहर रखे जा रहे हैं..उनको तो शायद कोयल की कूंक और मुर्गे की बांग का अन्तर भी
न पता हो..तब तक देश उस तरक्की की राह पर चल पड़ा था..जिस पर आजतक चलता ही चला जा
रहा है...न जाने कहाँ पहुँचने को..
-समीर लाल ’समीर’
अप्रेल ३०, २०१७ के भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे में प्रकाशित
http://epaper.subahsavere.news/c/18697532