किसी का मर जाना
उतना कष्टकारी नहीं होता जितना की उस मर जाने वाले के पीछे उसी घर में छूट जाना.
जितने मूँह, उतने प्रश्न, उतने जबाब और उतनी मानसिक प्रताड़ना.
सुबह सुबह देखा
कि बाबू जी, जो हमेशा ६ बजे
उठ कर टहलने निकल लेते है, आज ८ बज गये और अभी
तक उठे ही नहीं. नौकरानी चाय बना
कर उनके कमरे में देने गई तो पाया कि बाबू जी शान्त हो गये हैं. इससे आप यह मत समझने लगियेगा कि पहले बड़े
अशान्त थे और भयंकर हल्ला मचाया करते थे. यह मात्र तुरंत मृत्यु को प्राप्त लोगों का सम्मानपूर्ण संबोधन है कि बाबू जी
शांत हो गये और अधिक सम्मान
करने का मन हो तो कह लिजिये कि बाबू जी ठंड़े हो गये.
बाबू जी मर गये, गुजर गये, नहीं रहे, मृत्यु को प्राप्त हुये, स्वर्ग सिधार गये, वैकुण्ठ लोक को प्रस्थान कर गये आदि जरा ठहर कर
और संभल जाने के बाद के संबोधन हैं.
बाबू जी शांत हो
गये और अब आप बचे हैं तो आप बोलिये. रिश्तेदारों को
फोन कर कर के. आप बताओगे तो वो
प्रश्न भी करेंगे. जिज्ञासु भारतीय
हैं अतः सुन कर मात्र शोक प्रकट करने से तो रहे.
जैसे ही आप
बताओगे वैसे ही वो पूछेंगे- अरे!! कब गुजरे? कैसे? अभी पिछले हफ्ते
ही तो बात हुई थी... तबीयत खराब थी
क्या?
तब आप खुलासा
करोगे कि नहीं, तबीयत तो ठीक ही
थी. कल रात सबके साथ
खाना खाया. टी वी देखा. हाँ, थोड़ा गैस की शिकायत थी इधर कुछ दिनों से तो सोने के पहले अजवाईन फांक लेते थे, बस!! और आज सुबह देखा तो बस...(सुबुक सुबुक..)!!
वो पूछेंगे- डॉक्टर को नहीं दिखाया था क्या?
अब आप सोचोगे कि
क्या दिखाते कि गैस की समस्या है? वो भी तब जब कि
एक फक्की अजवाईन खाकर इत्मिनान से बंदा सोता आ रहा है महिनों से.
आप को चुप देख वो
आगे बोलेंगे कि तुम लोगों को बुजुर्गों के प्रति लापरवाही नहीं बरतना चाहिये. उन्होंने कह दिया कि गैस है और तुमने मान लिया? हद है!! हार्ट अटैक के हर
पेशेंट को यहीं लगता है कि गैस है. तुम से ऐसी
नासमझी की उम्मीद न थी. बताओ, बाबूजी असमय
गुजर गये बस तुम्हारी एक लापरवाही से. खैर, अभी टिकिट बुक
कराते है और कल तक पहुँचेंगे. इन्तजार करना.
ये लो- ये तो एक प्रकार से उनकी मौत की जिम्मेदारी आप
पर मढ दी गई और आप सोच रहे हो कि असमय मौत- बाबू जी की- ९२ वर्ष की अवस्था में? तो समय पर कब होती- आपके जाने के बाद?
अब खास
रिश्तेदारों का इन्तजार अतः अंतिम संस्कार कल. आज ड्राईंगरुम का
सारा सामान बाहर और बीच ड्राईंगरुम में बड़े से टीन के डब्बे में बरफ के उपर लेटा
सफेद चादर में लिपटा बाबू जी का पार्थिव शरीर और उनके सर के पास जलती ढेर सारी
अगरबत्ती और बड़ा सा दीपक जिसके बाजू में रखी घी की शीशी- जिससे समय समय पर
दीपक में घी की नियमित स्पलाई ताकि वो बुझे न!! दीपक का बुझ
जाना बुरा शगुन माना जाता था भले ही बाबू जी बुझ गये हों. अब और कौन सा
बुरा शगुन!!
अब आप एक किनारे
जमीन पर बैठने की बिना प्रेक्टिस के बैठे हुए- आसन बदलते, घुटना दबाते, मूँह उतारे कभी
फोन पर- तो कभी आने जाने वाले मित्रों, मौहल्ला वासियों और रिश्तेदारों के प्रश्न
सुनते जबाब देने में लगे रहते हैं, जैसे आप आप नहीं
कोई पूछताछ काउन्टर हो!!
वे आये -बाजू में
बैठे और पूछने लगे एकदम आश्चर्य से- ये क्या सुन रहे हैं? मैने तो अभी अभी सुना कि बाबू जी नहीं रहे? विश्वास ही सा
नहीं हो रहा.
आप सोच रहे हो कि
इसमें सुनना या सुनाना क्या? वो सामने तो लेटे हैं बरफ पर. कोई गरमी से परेशान होकर तो सफेद चादर ओढ़कर बरफ पर तो लेट नहीं गये होंगे. ठीक ही सुना है
तुमने कि बाबू जी नहीं रहे और जहाँ तक विश्वास न होने की बात है तो हम क्या कहें? सामने ही हैं- हिला डुला कर
तसल्ली कर लो कि सच में गुजर गये हैं कि नहीं तो विश्वास स्वतः चला आयेगा.
दूसरे आये और लगे
कि अरे!! क्या बात कर रहे हो – कल शाम को ही तो
नमस्ते बंदगी हुई थी... यहीं बरामदे में
बैठे थे...
अरे भई, मरे तो किसी समय
कल रात में हैं, कल शाम को थोड़े... और मरने के पहले
बरामदे में बैठना मना है क्या?
फिर अगले- भईया, कितना बड़ा संकट
आन पड़ा है आप पर!! अब आप धीरज से काम लो..आप टूट जाओगे तो परिवार को कौन संभालेगा. उनका कच्चा
परिवार है..सब्र से काम लो भईया...हम आपके साथ हैं.
हद है..कच्चा परिवार? बाबू जी का? हम थोड़े न गुजर
गये हैं भई..कच्चा तो अब हमारा भी न कहलायेगा..फिर बाबू जी का परिवार कच्चा???..अरे, पक कर पिलपिला सा
हो गया है महाराज और तुमको अभी कच्चा ही नजर आ रहा है.
यूँ ही जुमलों का
सिलसिला चलता जाता है समाज में.
कल अंतिम संस्कार
में भी वैसा ही कुछ भाषणों में होगा कि बाबू जी बरगद का साया थे. बाबू जी के जाने
से एक युग की समाप्ति हुई. बाबू जी का जाना हमारे समाज के लिए एक अपूरणीय क्षति है आदि आदि.
और फिर परसों से
वही ढर्रा जिन्दगी का......एक नये बाबू जी
होंगे जो गुजरेंगे..बातें और जुमले ये ही..
यह सब सामाजिक
वार्तालाप है और हम सब आदी हैं
इसके.
इस देश के पालनहार
भी हमारी आदतों से वाकिफ हैं. वो भी जानते हैं
कि काम आते हैं वही जुमले, वही वादे और फिर
उन्हीं वादों से मुकर जाना- किसी को कोई अन्तर नहीं पड़ता. हर बार बदलते
हैं बस गुजरे हुए बाबू जी!!
बाकी सब वैसा का
वैसा...एक नये बाबू जी के गुजर जाने के इन्तजार में..
जिन्दगी जिस
ढर्रे पर चलती थी, वैसे ही चल रही है और आगे भी चलती रहेगी.
बाकी तो जब तक ये
समाज है तब तक यह सब चलता रहेगा...हम तो सिर्फ बता
रहे थे...
-समीर लाल ’समीर’
टोरंटो, कनाडा
चित्र साभार: गुगल