आज सुबह रोज की तरह ही ६ बजे से कुछ सैकेंड पहले ही नींद खुली. हमेशा सुबह ६ बजे का अलार्म लगा होता है मगर एक आदत ऐसी बन गई है कि मैं उसके चन्द सैकेन्ड पहले उठकर अलार्म को बजने ही नहीं देता...साल में एकाध बार ही बजा होगा. जब यह लिख रहा हूँ तो मुझे लगता है कि बीच बीच यूँ ही चैक कर लेना चाहिये कि अलार्म काम कर भी रहा है या नहीं वरना किसी पर बहुत ज्यादा भरोसे में रहने से कभी धोखा ही न हो जाये.
कमरा तो हीटिंग से गरम था मगर बन्द खिड़की से झांक कर देखा तो हल्की हल्की बरफ गिर रही थी जो रात भर से गिरते गिरते पैर धंसा देने लायक तो इक्कठा हो ही गई थी. कुछ रोज पहले आईस स्ट्राम आया था, उसकी बरफ अब तक पूरी तरह से गली भी न थी और उसकी फिसलन जगह जगह बरकार थी. डर था आज की इस बरफ के फुओं के नीचे वो आईस की टुकड़े तो दिखेंगे भी नहीं और उस पर पैर पड़ा नहीं कि आप फिसले. और अगर आप फिसले तो हड्डी का टूटना लगभग तय है. बहुत संभलना होगा. बरफ का जूता ..थोड़ी मदद जरुर मिल जायेगी उससे मगर कितनी देर थामेगा वो भी भला... कदम तो अपने खुद ही संभालना होगा...जूते पर सीमित भरोसा ही किया जा सकता है!
यूँ तो घर से बस स्टॉप की दूरी मात्र पाँच मिनट पैदल की है मगर जब तापमान हो -२० और हवा के बहाव के संग विंड चिल को गिनते हुए -३५ तब ऐसे हालातों में बरफ के भारी भारी जूते पहने, सूट के उपर से लम्बा चौड़ा भारी भरकम जैकेट लादे,दस्ताने, टोपी, गले से नाक तक सब कुछ ढ़कता मफलर, चश्मा और चुल्लु भर पानी सोखकर मर जाने वाले मुहावरे वाली निकली चुटकी भर नाक कि सांस आती जाती भर रहे किसी तरह, ऐसे में इन सबके साथ सामनजस्य बैठाते धीरे धीरे कदम रखते १५ से २० मिनट तो लग ही जाते हैं स्टॉप तक पहुँचने में. तब तक नाक की चोंच जो खुली हुई थी वो बरफ हो चुकी होती है जिसे स्टॉप में घुस कर जब तक कुछ देर गरम न कर लो, पोंछना मना रहता है वरना स्नो बाईट से नाक ही कट कर अलग हो जायेगी. त्वचा के छिद्रों में भरा पानी बरफ बन जाता है तो और क्या आशा की जा सकती है, नाक का कटना हमारे यहाँ वैसे भी पूरे खानदान को एफेक्ट करता है और इसे शास्त्रों में बहुत बुरा माना गया है अतः मैं तो पौंछता ही नहीं जब तक दफ्तर पहुँच कर १० मिनट हीटिंग में न बैठ लूँ. किस किस को समझाऊँगा देश में कि यह नाक कर्मों से नहीं सर्दी से कटी है बस पौंछ देने के चक्कर में.
बस में चढ़कर, हालांकि हीटिंग होती है मगर बार बार रुकने और दरवाजा खुलने से जीत ठंड की ही होती है, दुबके सहमें से एक कोना थामे स्टेशन पहुँचते हैं तो फिर वही तीन मिनट और मौसम की बदौलत १० मिनट का खुले में पैदल सफर...स्टेशन भी कुछ दूर तक गरम और ढका होता है फिर वही खुला खुला सा...ढका हिस्सा भीड़ घेर चुकी होती है और आप -३५ में खुले में राम नाम जपते हुए ट्रेन के आने के इन्तजार में लग जाते हैं..कई बार आस पास खड़े इन गोरों को देखकर सोचता हूँ कि राम नाम न सही, ऐसी स्थितियों में ये भी तो कुछ न कुछ जपते ही होंगे..कौन जाने और करना क्या है,,,मगर वही जिज्ञासु स्वभाव ..हम हिन्दुस्तानियों का.
चार पांच मिनट बाद ट्रेन का आना ऐसा लगता है कि जैसे कोई जीवनरक्षक आ गया हो एकाएक.. ट्रेन में बैठते ही हीटिंग में एक एक करके टोपी, दस्ताने और जैकेट उतरना शुरु..वरना तो लू लग जाये उस हीटिंग में. ट्रेन के भीतर की गरमी से बाहर बरफ को गिरते देखना बहुत मनमोहक लगता है बिल्कुल बचपन से देखते आये कलेंन्डर में बनी बर्फ और मकानों की तस्वीर सा. मगर भीतर जिस चेहरे पर नजर पड़ जाये उसे ही देखकर लगे कि अभी अभी मौत के मूँह से निकल कर आया है और अब चैन मिला है उसे. ट्रेन की दो मंजिल, यूँ तो सभी ओर इतने सारे लोगों के बावजूद एकदम सन्नाटा होता हैं मगर ऊपर वाली मंजिल ऑफिसियली क्वाईट जोन होती है याने नो फोन, नो बातचीत...एकदम शांत..कई बार लगता है कि किसी की मय्यत में आये हैं. यही सोचकर आँसू गिरने को होते हैं कि तब तक ख्याल आ जाता है कि दफ्तर जा रहे हैं तो बस मुस्करा कर रह जाते हैं. वैसे तो देश में अब लोग मय्यत तक में भी ठठा कर हँसने से गुरेज नहीं करते मगर हम साथ वो पुराने वाले संस्कार जो लाये थे वो वैसे ही बरकरार है, बदल पाने का मौका ही नहीं लगा वक्त के साथ.
मैं अक्सर इस शांत समय और माहौल का उपयोग अपने आई-पैड पर कहानियाँ, पत्रिकायें आदि पढ़ने में करता हूँ. बीच बीच में थोड़ा इधर उधर भी नजर पड़ ही जाती है और पाता हूँ कि कुछ महिलायें और नवयुवतियाँ, जो कि मेरे समान ही आई पैड और आई फोन धारक हैं अक्सर कैमरे को फ्रंट मोड मे कर के उसमें देख देख कर मेक अप कर रही है. माना कि सुबह सुबह घर में सजने धजने का समय नहीं मिल पाता होगा मगर, जो काम दो रुपये का आईना कर दे उसके लिए ७०० डॉलर का आई पैड और आई फोन. लेकिन फैशन परस्ति के इस युग में मैं कौन होता हूँ उन्हें रोकने वाला. कई बार तो खीज कर मैने भी अपने आई पैड में देखकर कंघी कर डाली कि कोई मुझे कम न समझे हालांकि बाद में याद आया कि कंघी करने जितने तो बाल ही नहीं बचे सर पर...शायद इसीलिए वो पड़ोस की सीट पर बैठी लड़की हंसी होगी.
आज दफ्तर जाना टाल पाता तो टाल देता..एक तो १०२ बुखार..उस पर से जुकाम. ऑफिस जाना जरुरी था तो चल दिये. लेकिन दफ्तर में कुछ जरुरी मीटिंग वगैरह निपटा कर एक सरकारी कर्मचारी की तर्ज पर पहला मौका लगते ही घर की लिए निकल पड़ा. निकलने की जल्दी बाजी में, जो दफ्तर पहुँच कर बरफ का जूता उतार कर नार्मल वाला जूता पहन लेते हैं, वो ही नार्मल जूता पहने निकल पड़े. बिल्डींग के अन्दर चलते चलते जब स्टेशन पहुँचे तो ख्याल आया – अरे, जूता तो बदला ही नहीं. अब जूता बदलने वापस दफ्तर जाओ तो ट्रेन छूटे और फिर एक घंटे बाद की ट्रेन मिले या ऐसे ही निकल लो संभल संभल कर...तो समय पर घर पहुँच कर आराम किया जाये..सो निकल लिए संभल संभल कर,..कई बार गिरते गिरते बचे..कभी किसी को गिराते गिराते बचे मगर आ ही गये अपने घर वाले स्टेशन पर ट्रेन में सवार होकर,,आई पैड पर भटकते..कहानियों की दुनिया में खोये..कनखियों से अड़ोस पड़ोस का नजारा देखते..
घर वाले स्टेशन पर उतरे तो हवा जबरदस्त चल रही थी..घर ले जाने वाली बस अभी तक आई नहीं थी. पहली बार अहसासा कि लोग ठंड में कैसे मर जाते होंगे. वो तो समय रहते बस आ गई वरना जैकेट, टोपी, दस्ताने के बावजूद पैन्ट को भेदती ठंड ने तो लगभग प्राण ले ही लिए थे...बस...बच ही गये...आगे से थर्मल पहना करुँगा..आज तय ही कर लिया...उम्र के बदलते पढ़ाव को पहचानना भी तो जरुरी है.
बस ने घर के पास वहीं बस स्टॉप पर उतारा जहाँ रोज उतारती है मगर आज बस स्टॉप से घर आने में शरीर कुल्फी हो गया...क्यूँकि अबकी तो बरफ के जूते भी नहीं पहने थे. बस, चुनाव २०१४ पर चल रही नित नई खबरों को चल कर टीवी पर मोदी का भाषण तो केजरीवाल का नया आरोप आदि देख लेने की चाहत संबल बनी रही...तो घर तक खुद को घसीटते चले आये और किसी तरह एक हाथ से दूसरा हाथ पकड़ घंटी बजा दी.
घर में घुसे तो शरीर और आवाज दोनों लगभग जम चुके थी. पत्नी समझ गई तो हमें पिघलाने के लिए फायर प्लेस के सामने बैठाया गया, बैठाया तो क्या गया लगभग रखा ही गया ताकि हम होश में आ जायें तो वो अपनी बात कह पायें वरना तो कुल्फी बनो कि आइस क्रीम, किसी को क्या लेना देना...समय के साथ खुद ही पिघल लोगे.
आह!! प्यार मोहब्बत में वो इस तरह कहर ढाते हैं...
आज बदले बदले हुए से मेरे सरकार नजर आते हैं..
हमें फायर प्लेस के सामने पिघलवा कर पूछा गया कि ठीक तो हो? हम मंशा समझ ही न पाये और कह बैठे कि हाँ, ठीक हैं!!
बस, फिर क्या- घर के सामने की बरफ हटाने से लेकर अदरक वाली चाय बनाने तक का जिम्मा हम पर आ टिका क्यूँकि बाकी सबकी तबीयत खराब है. सब मौसमी बुखार और जुकाम से पीड़ित. हमसे किसी ने पूछा ही नहीं कि तुम्हारी तबीयत कैसी है और जल्दी क्यूँ आये?
बताया गया कि शाम का खाना पूरा बना रखा है, उसकी चिन्ता मत करना..बस, करेले वाली अपनी स्टाईल की सब्जी और बना लो. थोड़ा सा कुंदरु छौंक देना...चावल चढ़ा दो और दाल तो फट से बना ही लेते हो..उसे प्याज लहसून से बघार देना. रोटी तो वैसे भी इस मौसम में कौन खायेगा मगर आपको खाना हो तो बाजार की नान रखी है वो गरम कर लेना...मैं सोचता ही रह गया कि जब ये सब करना बाकी है तो फिर खाना कौन सा बना रखा है? जिसका जिक्र करके बात की शुरुवात की गई थी.
खैर, ये सब कुछ जीवनचर्या का हिस्सा है, इसमें बहस कैसी? बहस तो जब दिल्ली में नहीं होती इनसे उनसे समर्थन लेते तो हमने तो इनकी कभी खुले आम इत्ती बुराई भी नहीं की है कि बहस न करने में शरम आये!!
समय बलवान है,,,वक्त महान है..कल और ज्यादा ठंड की भविष्यवाणी है मगर परसों से सब सामान्य है!! सामान्य याने – १० वगैरह. -३० से -१० में आने पर वैसी ही राहत लगती है जैसे पैट्रोल का दाम ५ रुपये बढ़ा कर २ रुपये कम कर देने में.
वैसे इन सबके बीच एक बात सोचने वाली है कि न तो मुझे दिल्ली से कुछ लेना देना, न केजरीवाल से, न कांग्रेस से...न मोदी से...न लोकसभा २०१४ के चुनाव से- टोरंटो में रहता हूँ...कनाडा का नागरिक हूँ मगर मन है कि भारत भागता है हर पल...वहाँ क्या हो रहा है..किसकी सरकार बन रही है,,,किसकी सरकार गिर रही है,,,.किसी ने सही ही कहा है...कि आप एक भारतीय को तो भारत से बाहर निकाल सकते हो मगर भारत को उस भारतीय के बाहर कभी नहीं निकाल सकते!!