उसकी आँखों में एक किताब रहती थी.
एक कहानी की किताब-- लाल डोरे वाली.
जिसकी कहानियों में होती थी एक खारे पानी की झील, जिसमें तैरती रहती थी कड़वी यादों की छोटी-बड़ी मछलियाँ. बड़ी मछली छोटी मछली का पीछा करती, तड़पाती और खा जाती.
लाल डोरे की पकड़ ढीली पड़ती और छलक जाती खारे पानी की झील से एक बूँद-बहने को- उन हालातों के मरुथल में जो आ-आ कर ठहर जाते तुम्हारे गालों पर छीनने उसकी रुमानियत और रंगीनी.
एक बूँद से- न मरुथल गीला होता और न समझ पाता कि कुछ बदला है.. सब कुछ पूर्ववत... दिन ब दिन बस ढलती जाती नूरानी चेहरे की रंगीनियत और रुमानियाँ. मानो जैसे कोई वस्त्र अत्याधिक बार धुल जाने से खो बैठा हो अपनी आभा और चमक.
जलते दहकते गमों और दुखों के शोले टकराते उस झील से और उठता धुँए का बादल. जैसे कोहरा सा छा गया हो. ओढ़ लेती तुम/वो उस कोहरे की चादर को परत दर परत, न जाने किससे क्या छुपाने को. नजर आता कांतिहीन और दूर कहीं गहराई में डूबा धुँधला सा चेहरा.. बाँध लेती अपने आसपास कटीलें अनुभवों की बाढ़... किसी को इजाजत नहीं कि उसे लाँध कर उसके आसपास भी पहुँचे और कर लेती खुद को नितांत अकेला...
अकेलेपन की दुश्वारियाँ और दर्द तो सिर्फ वही अहसास सकता है, जो अकेले रहने को मजबूर हुआ... भीड़ में एकाकीपन की तलाश वहीं सुख देती है जो पहाड़ पर घूमने आये सैलानियों के चेहरे पर देखी जा सकती है.... पहाड़ की जिन्दगी जीने को मजबूर,वहाँ के रहवासी ही उन तकलीफों और दुश्वारियों को समझते हैं- जो पहाड़ की जिन्दगी पेश करती है.....
वो उनसे जूझती. सब सहन करती- कोई उसे पागल कहता तो कुछ लोग कहते कि किसी प्रेतात्मा का साया पड़ गया उस पर. नंगे सर तालाब वाले बरगद के नीचे से देर रात गुजर गई थी. कोई नहीं समझ पाता कि किस-किस ने उसे कैसे-कैसे दुख दिये हैं. कितने ही साये, देर रात गये उसे रौंदते रहते और वो मजबूर ठीक से सिसक भी न पाती .... अगर इसको ही प्रेत कहते हैं, तब तो यह प्रेतों की नगरी कहलाई...
मेरी कोशिश रंग लाई थी-- एक बार ..जब मैंने अपनी नजरों को पैना किया...देखा तुम्हारे लिहाफ को.जिस पर देखी थी मैने एक कतार लाल चीटियों की..तुम्हें भक्षने को आतुर...और मैं सफ़ल हुआ था चीर पाने में तुम्हारा कोहरे वाला लिहाफ..... तुम तक पहुँचने के लिए.
और तुमने कहा था ...ये कैसी दीवानगी है....तुम मानोगे नहीं!! है न!!
.....न!!! --कहा था मैंने
तुम हँस दी थी खामोशी ओढे़...उफ़्फ़!!वो खामोश उदास-सी.. कैसी अजब हँसीं...
.क्या सच में...तुम पूछती..और मैं चुप हो झुका लेता सर अपना तुम्हारे काँधे पर -कि अब कुछ ऊँगलियाँ तैरेंगी मेरी बालों में? ...
एक सुकून की चाहत...
और पाता कि तुम ओढ़ रही हो एक और परत उस कोहरे वाली चादर की!!!
उन झील सी गहरी आँखों में
सजते कुछ ख्वाब
मिटते कुछ ख्वाब.
अजब है ये दुनिया...
कमबख्त!! इन ख्वाबों की!!!
-समीर लाल ’समीर’