सोमवार, फ़रवरी 23, 2009

काश!! हर दिन ऐसा ही हो !!!

सुबह सुबह ४ बजे मोहल्ले का कुत्ता भोंका और हम उठकर लगे खिड़की के बाहर झांकने. नित नियम से ४ बजे भोंकना उस कुत्ते की आदत है और नित नियम से ४ बजे उसके भौंकने पर उठकर चोर चैक करना हमारी. दोनों खुशी खुशी अपनी आदत का पालन करते हैं बिना नागा. फिर हम खिड़की से चिल्लाते हैं..धत..हूम्म्म...धत.. और वो भाग जाता है. हम तब जाकर मंजन इत्यादि निपटाते हैं और आकर अपने क्म्प्यूटर पर ४.१५ के आसपास स्थापित हो जाते हैं अगले ढाई घंटे के लिए. वो कुत्ता क्या करता है उसके बाद-इसकी तनिक भी जानकारी नहीं है और न ही कोई सारोकार. कईयों को रहता है कि जिससे कुछ लेना देना नहीं, उसे भी नापे हुए हैं बेमतलब मगर मेरी ऐसी आदत नहीं.

विद्युत मंडल नित नियम से ७ बजे बिजली उड़ा देता है. हम इन्वर्टर पर रहम रखते हैं क्योंकि वक्त जरुरत वो अपना काम मुस्तैदी से करता है. ऐसी चीजों के लिए हमारे दिल में खास जगह है. अत: गैर जरुरी इस्तेमाल, जो टाला जा सकता है, उसे टाल देते है और कम्प्यूटर बंद कर देते हैं.

यह वह समय है जब हम दालान में आकर झूले में बैठे हरियाली के बीच अखबार पढते हैं. पहले हिन्दी और फिर अंग्रेजी. भाषा से कोई छूआछूत या विरोध नहीं, जब तक संदेश मिल रहे हैं और हम उसे उसी रुप में ग्रहण कर पा रहे हैं.फिर भाषा तो मात्र एक माध्यम है अभिव्यक्ति का, उससे कैसी बैर. इस बीच दूध वाला आकर दूध के पैकेट नियत स्थान पर रख जाता है. बरतन धोने वाली बरतन धो कर चली जाती है. झाडू, पोछे, कपड़े वाली आ चुकी होती है. खाना बनाने वाली हमारी चाय बनवाकर हम तक भिजवा चुकी होती है और हम चाय के साथ साथ अखबार खत्म कर रहे होते हैं.
पूरे १.३० घंटे निकल जाते है इस मशक्कत में. साथ ही दोनों अखबारों के सुडुको भी हल कर मन ही मन अपने आप को बुद्धिमान मान कर पीठ भी ठोंक चुके होते हैं.

अब लगभग ८.३० या ९.०० के बीच का समय होना चाहता है और हाजिर हो जाता है हमारा मालिशिया, ’रामजस’ मानो अपने साथ बिजली लाता हो. बिजली भी ९ बजे वापस आ जाती है. फिर एक घंटा तख्त पर लूँगी पहने मालिश-खालिस सरसों के तेल से और उसके बाद आधे घंटे वैसे ही उंघाड़े बदन औंधे पड़े रहते हैं गुनगुनी धूप में. फोटो शरम में नहीं लगा रहे हैं हालांकि है हमारे पास. कहते हैं शरीर को तरोताजा रखने के लिये अच्छा होता है धूप में तेल मालिश करा कर लेटे रहना. एन्जिला जोली भी केलिफोर्निया में बीच पर हमारे जितने कपड़ों से भी कम में पड़ी फोटो खिंचवा कर बिना शर्म छपवा देती है, मगर हम न कर पायेंगे ऐसा. ठेठ हिन्दुस्तानी देहाती जो ठहरे.

१०.३० बज गया, अभी तक नहाये नहीं..पानी गरम है गीज़र में. नित नियम से लगभग इसी समय रोज यह आवाज आती है. सही पहचाना, हमारी पत्नी की. यानि वो उठकर स्नान ध्यान कर चुकी है. ११ से ११.१५ के बीच नहाने गये तो ११.३० तो आमूमन बज ही जाता है फुरसत होते. फिर तैयार होकर १२ बजे दिन में हल्का सा नाश्ता और कार में सवार चल दिये मित्र मंड्ली के बीच.

दुनिया जहान की गप्पे, किसे प्रधान मंत्री बनाना है इस बार से लेकर ऑस्कर किसे दिला दिया जाये. सब वहीं डिसाईड हो जाता है और एक दिन नहीं, नित नियम से यह कार्य संपादित किया जाता है.

२.३० बजे दो चार कप चाय, दो एक पान आदि के सेवन समाप्ति पर मित्र सभा समाप्त. सब अपने अपने घर चले खाना खाने. हम पागल तो हैं नहीं कि वहीं बैठे रहें सो चले आते हैं घर खाना खाने. भूख हो न हो, २.३० बजे घर लौट ही आते है खाना खाने जैसे यहाँ अक्सर देखता हूँ ठंड हो न हो-नवम्बर शुरु तो हॉफ स्वेटर, दिसम्बर शुरु तो फुल, दिसम्बर के अंत आते तक मफलर और कनटोपा भी और साथ में लैदर जैकेट...आदि. याने मौसम के मिजाज से नहीं महिने से कपड़े डिसाईड हो रहे हैं. मैं पूछ बैठता हूँ अपने मित्र से कि भाई, ठंड तो है नहीं, फिर काहे स्वेटर पहने हो? उनका सीधा सा जबाब होता है कि दिसम्बर में नहीं स्वेटर पहनेंगे तो आखिर कब पहनेंगे गोया कि साल में कभी न कभी स्वेटर पहनना अनिवार्य है.

३.३० बजे तक खाना खा कर चुकते हुए थकान से शरीर भर चुका होता है. नींद भी आ रही होती है आखिर ४ बजे सुबह के उठे हैं और इतनी देर दोस्तों के साथ गप्प सटाका-एनर्जी तो जाया होती ही है तो स्वभाविक है थकान हो जाये अतः २ घंटे के लिए सो जाता हूँ.

५.३० बजे उठकर छत पर से मोहल्ले का नजारा लेते हुए चाय पीने की आदत सी हो गई है. पत्नी भी इस समय साथ ही छत पर होती है-अडो़सी पड़ोसी से गपियाति. आज मन किया तो बहुत समय बाद नौकर से लट्टू (भौंरा) मँगवाया और पूरी शातिरी से चलाते हुए पत्नी से लोहा मनवाया. वो तो न भी लट्टू नाचता तो पत्नी की नजर में लट्टू ही की कुछ खराबी होती. यही तो फायदा है पत्नी के सामने कला प्रदर्शन करने में. अति आत्मविश्वास आ लेता है और यह आत्म विश्वास देने की और हौसला बढ़ाने की कला हर पत्नी को ईश्वरीय देन है जिसमें हम पति प्राणी शून्य है. हमसे तो बस हर बात में-अगर उससे नहीं बना तो अरे, तुमसे तो कुछ हो ही नहीं सकता और बन गया तो इसमें कौन सी बड़ी बात है, कहना आता है. कल ऐसे ही पतंग उडा़ई थी. फोटो आज के लट्टू नचाई का है जिसमें कल की पतंग और चकरी भी दृष्टवत है.

देखो: लट्टू नचाते


६.३० से ७ के बीच फिर नीचे घर में और तैयार होकर ये चले मित्रों के साथ पार्टी में या किसी रिश्तेदार या दोस्त के घर दावत पर. आखिर विदेश से आये हैं भारतीय दोस्त इतना तो करबे करेंगे. अब तो ११ के पहले क्या लौटेंगे. दिन खत्म. आकर तो सोना ही है. कुत्ता तो भौंक कर रहेगा ४ बजे और हम चोर चैक करेंगे ही ४ बजे तो जितनी जल्दी हो, सो लो. वैसे भी दावत के बाद अक्सर ज्यादा देर तक जागे रहने की स्थिति बची नहीं रहती. ज्यादा जो हो जाती है.. :) अधिकतर लोग हमारी तरह ही सुबह उठना है इसलिये सो जाते हैं मानो काल को जीत आये हों.

देखो: पतंग उड़ाते

क्या आराम है यार!!! ये आदमी कमाता कब होगा, काम पर जाने का तो रुटिन में समय ही नहीं है इसके पास? यही सोच रहे हैं न!!
तो सुन लो...अभी छुट्टी चल रही है. एक महिना और बचा है. ऐश कर लेने दो भाई. फिर तो गदहा मजदूरी में लगना ही है.

अरे हाँ, कहीं ये तो नहीं सोच रहे कि मैं ये सब आपको लिख बता क्यूँ रहा हूँ? अगर ऐसा सोच रहे हैं तो हिन्दी ब्लॉगजगत आपके लिए मुफीद जगह नहीं है. यहाँ अधिकतर पोस्ट पर यही सोचना पड़ता है. स्तरीय लेखन नहीं न होता है यहाँ. :)

गुरुवार, फ़रवरी 19, 2009

किसी ने देखा तो नहीं!

यादें: खट्टी खट्टी सी मगर मजेदार

कुछ दिन पहले बैठा बीते समय को टटोल रहा था. अक्सर खाली रहो, छुट्टियों की मौज हो, अपने पुराने घर, गली में लौटे हो तो ऐसा हो जाता है. बहुत स्वभाविक सी बात है. याद आया कि लोग कैसा व्यवहार कर बैठते हैं अनजाने में ही सही कि वह हमेशा के लिए दिलों दिमाग पर अंकित हो जाता है. ऐसे हादसे जब घटित होते हैं, तब हम सोचते रह जाते हैं कि कहीं किसी ने देखा तो नहीं, कहीं किसी ने सुना तो नहीं.

सोचता हूँ: हसूँ कि रोऊँ!!!

वाकिया-१

बहुत बचपन में, शायद ४थी या ५ वीं में रहा हूँगा. माता जी ने खीर बनाई और उस जमाने में, मोहल्ले में पहचान वालों के यहाँ इस तरह के व्यंजन बनाने पर पहुँचाने का रिवाज हुआ करता था. माँ ने आवाज लगाई और मैं घर के बाहर ही मैदान में खेल रहा था पूरा धील धूसरित, हॉफ पैन्ट भी धूल मिट्टी से रंगा और उस पर से भगवान का दिया रुप रंग. सब मिल कर कैसा लग रहा हूँगा, आप मेरी तस्वीरें देख कर अंदाज लगा लो. हमें एक डब्बे में खीर पकड़ा कर कहा गया कि वो आखिरी वाले घर में नये शर्मा जी आये हैं, उनके यहाँ दे आओ और कह देना कि 'पहले घर में जो लाल साहब रहते हैं, उनके यहाँ से खीर भिजवाई है.'

हम भी खेलते हुए पहुँच लिए. घंटी बजाई. उनकी प्यारी सी बिटिया निकली और हमने रटा रटाया वाक्य दोहरा दिया: "पहले घर में जो लाल साहब रहते हैं, उनके यहाँ से खीर भिजवाई है."

अंदर से उसकी मम्मी की आवाज आई: ’कौन है, पिंकी’

पिंकी ने वहीं से कहा:" वो पहले घर में जो लाल साहब रहते हैं, उन्होंने खीर भिजवाई है. उनका नौकर लेकर आया है."

हम तो सन्न!! क्या सफाई देते. चुप्पे लौट आये, रोनी सी सूरत लिए. किसी से कुछ बता भी नहीं सकते थे. बाद में पिंकी से पहचान भी हो गई. उसने कभी इस बारे में याद नहीं दिलाया और हम भी दिखावटी भूले भंडारी ही बने रहे. मगर, वो वाक्या समय बे समय दबे पाँव आकर कचोटता जरुर है.


वाकिया-२

कुछ समय हुआ था. कार खरीद ली थी. बैंक/अन्य संस्थाओं के अधिकारियों और साहबों की सेवा में हमेशा हाजिर कर दी जाती थी, काम जो निकलवाना होता था. एक बार एक अधिकारी के रिश्तेदार को उनके घर से लेकर साहब के घर छोड़ना था, अतः उनका फोन आया, हमने कह दिया कि अभी ड्राईवर को भिजवा देते हैं. पता चला कि ड्राईवर घर चला गया है, तबीयत खराब लग रही थी. कोई रास्ता न बचा, तो हम खुद ही पहुँचाने चले गये. वैसे भी उसी तरफ कुछ काम भी था. उनके रिश्तेदार के घर पहुँच कर उनके नौकर से अंदर खबर भिजवा दी और लगे इन्तजार करने.

५ मिनट बाद भीतर से आवाज आई: ’मोहन (शायद उनके नौकर का नाम), बाहर गाड़ी में ड्राईवर को ये चाय दे आ और कह देना कि बस, पाँच मिनट में चलते हैं."

हमने सुना अनसुना तो कर दिया मगर बिना हैंडिल की कप में कार में बैठे बैठे ही चाय पी. रईसों के घर में जब कप का हैंडिल टूट जाता है तो उसे फेका नहीं जाता बल्कि नौकरों, चपरासियों और ड्राइवरों को चाय पिलवाने के लिए जतन से रख दिया जाता है.

वो मियाँ बीबी आये. नमस्ते तक करना मुनासिब न समझा. गाड़ी में, जैसी कि रिवायत है, पीछे बैठ गये. हम भी क्या समझाते, उन्हें साहब के घर छोड़ कर आगे बढ़ गये.


वाकिया-३

एक साहब के यहाँ सुबह सुबह पहुँचे. दरवाजा बंद था. घंटी बजाई. अंदर से साहब ने अपने नौकर को आवाज दी, "छोटू, देख तो रे कौन है." पीछे कहीं आंगन की तरफ से उनकी पत्नी का स्वर उठा, "अरे वो जमादार होगा. उसे बुलवाया था अभी." "छोटू, उसको कह दे कि पीछे के दरवाजे से आ जाये."

इसके पहले की छोटू दरवाजा खोलता. हमने गाड़ी स्टार्ट की और घर भाग आये. साहब का फोन आया कि आप आये नहीं. हमने कह दिया कि साहब, तबीयत खराब है. देर से नींद खुली. आधे घंटे में आते हैं और फिर गये.


ऐसे ही अनेकों बातें/ हादसे याद हैं कि पूरी किताब लिख जाये. समय समय पर सुनाता रहूँगा. बस सोचता हूँ तो लगता है कि शायद सभी के साथ किसी न किसी मोड़ पर ऐसे प्रसंग आ जाते होंगे. माना कि रुप रंग और हरकतों के चलते हमारे साथ ज्यादा आये होंगे मगर फिर भी.

विचार इसलिये कर रहा हूँ कि लोग बोलने के पहले अगर वाणी नियंत्रित करें, विचारों को यूँ ही न बाहर निकाल दें, जरा अन्य पहलु पर भी नजर डालें तो शायद ऐसी स्थितियों से बचा जा सकता है कि कोई आहत न हो. न किसी के दिमाग पर ऐसी बात अंकित हो जाये जो जीवन भर पोंछे न पूछे.

बस, एक चिन्तन की आवश्यक्ता है और विवेक इस्तेमाल करने की दरकार.



आ. दिनेश राय द्विवेदी जी ने इस पोस्ट को और विस्तार दिया है एक टिप्पणी के माध्यम से. आवश्यक है कि इस पोस्ट का वो हिस्सा हो, अतएव यहाँ जोड़ा जा रहा है:

आप के ये संस्मरण बहुत कुछ कह रहे हैं। लेकिन ऊपर उदृत अंतिम हिस्से की सोच को कुछ आगे बढ़ा रहा हूँ।

वास्तविकता यह है कि हमने मनुष्य को समानता से अलग श्रेणियों के खांचों में बांट दिया है और उसी के अनुरूप व्यवहार करते हैं। एक नौकर काम करने के लिए नौकर है, वह व्यवहार के लिए भी नौकर हो जाता है। जब कि व्यवहार के लिए उसे मनुष्य होना चाहिए। जब तक प्रत्येक मनुष्य को व्यवहारिक रूप से मनुष्य समझने की संस्कृति विकसित नहीं होती तब तक ये सारी बातें होती रहेंगी।

गुरुवार, फ़रवरी 12, 2009

मस्त रहें सब मस्ती में...

इधर बिना किसी घोषणा के १५ दिन कुछ नहीं लिखा. किसी ने नहीं मनाया कि क्यूँ नहीं लिख रहे. कारण-बिना मार्केटिंग कुछ भी हासिल नहीं. नहीं लिखना हो तो भी बताना पड़ता है कि नहीं लिखूँगा अब से. तब तो लोग चेतते हैं कि काहे नहीं लिखोगे भाई..क्या हुआ..कहाँ चले..कब लौटोगे..किसी ने कुछ कहा क्या..आदि आदि. चुपचाप चले जाओ..किसी को कोई अंतर नहीं पड़ता. सब मस्त हैं..सब व्यस्त हैं. आप सोचो कि आपकी अहमियत है, तो आप ही गलत हो.

एक वेल्यू होती है जो सबसे पावरफुल होती है और उसे शुद्ध भाषा में कहा जाता है न्यूसेंस वेल्यू. बहुत पूछ है इसकी. नहीं क्रियेट करोगे तो वही होगा..जो हमारे साथ हुआ. १५ दिन नहीं लिखे..किसी ने नहीं पूछा कि क्यूँ नहीं लिखा.

वैसे तो मुझे खुद भी ख्याल न रहा कि १५ दिन हो गये, नहीं लिखा. कुछ पारिवारिक व्यस्तता और कुछ असंमजस..असमंजस भी ठीक वैसा ही जो बारात में बिन नाचे अलग थलग चलते बुजुर्गों के साथ होता है. नाचने वाले उन्हें खींच खींच कर नाचने बुलाते हैं और वो कभी मुस्करा कर, कभी खीज कर चुपचाप चलते जाते हैं. नाचने वाले उन्हें खूसट समझते हैं और वो बुजुर्ग या सज्जनवार उस बैण्ड बाजे में भी अपनी शांति तलाशते रहते हैं..कुछ शांत रहने की आदत जो पड़ जाती है.

एक बोध कथा याद आती है:

एक साधु गंगा स्नान को गया तो उसने देखा कि एक बिच्छू जल में बहा जा रहा है। साधु ने उसे बचाना चाहा। साधु उसे पानी से निकालता तो बिच्छू उसे डंक मार देता और छूटकर पानी में गिर जाता। साधु ने कई बार प्रयास किया मगर बिच्छू बार-बार डंक मार कर छूटता जाता था। साधु ने सोचा कि जब यह बिच्छू अपने तारणहार के प्रति भी अपनी डंक मारने की पाशविक प्रवृत्ति को नहीं छोड़ पा रहा है तो मैं इस प्राणी के प्रति अपनी दया और करुणा की मानवीय प्रवृत्ति को कैसे छोड़ दूँ। बहुत से दंश खाकर भी अंततः साधु ने उस बिच्छू को मरने से बचा लिया।

बिच्छू ने वापस अपने बिल में जाकर अपने परिवार को उस साधु की मूर्खता के बारे में बताया तो सारा बिच्छू सदन इस साधु को डसने को उत्साहित हो गया। जब साधु अपने नित्य स्नान के लिए गंगा में आता तो एक-एक करके सारा बिच्छू परिवार नदी में बहता हुआ आता। जब साधु उन्हें बचाने का प्रयास करता तो वे उसे डंक मारकर अति आनंदित होते। तीन साल तक यह क्रम निरंतर चलता रहा।

एक दिन साधु को ऐसा लगा कि उसकी सात पीढियां भी अगर ऐसा करती रहें तो भी वह सारे बिच्छू नहीं बचा सकता है इसलिए उसने उन बहते कीडों को ईश्वर की दया पर छोड़ दिया। बिच्छू परिवार के अधिकाँश सदस्य बह गए मगर उन्हें मरते दम तक उन्हें यह समझ न आया कि एक साधु कैसे इतना हृदयहीन हो सकता है।

तब से बिच्छूओं के स्कूल में पढाया जाता है कि इंसान भले ही निस्वार्थ होकर संन्यास ले लें वह कभी भी विश्वास-योग्य नहीं हो सकते हैं।

(आभार पिट्सबर्ग वाले शर्मा जी यानि ’स्मार्ट इन्डिय’ का इस कथा के लिए)


----तो यह तो हो गई आज की बोध कथा- किन्तु यह बिच्छूओं के लिए है. वो पढ़ लेंगे. अतः आपके किसी काम की नहीं.

अब रही अगली बात कि आज प्रेम दिवस है यानि वेलन्टाइन डे. अब इस उम्र में काहे का डे और काहे का सेंन्ट वेल्न्टाइन. मानो न मानो, बस अपनी बुजुरिया ही काम आयेगी-चाहे प्रेम प्रदर्शन करें या न करें. करें भी तो कैसे:

प्रेम दिवस का भूत देखिये, सबका मन भँवरा बोराय
हम बैठे हैं पांव पसारे, दोनों घुटनन रहे पिराये.

हम तो ठहरे बुढ पुरनिया, घर में भांग रहे घुटवाय
दूध जलेबी छान के दिन में, हुए टनाटन हम तो भाय.

सबकी बीबी फेयर लवली, माँग रही है खूब इठलाय
हमरी बीबी बाम रगड़ती, कहती है कि मर गये हाय.

नये लोग हैं नया गीत है, इलु पर दये कमर मटकाय,
हम तो बैठे तिलक लगा कर, आरत राम लला की गाय.

देखो उनकी कैसी मस्ती, पिकनिक पर खण्डाला जाय
बीबी हमरी धड़कन सुनके, ब्लड प्रेशर की दवा खिलाय.


-खैर जो है, सो है-सब दिन एक समान-सब दिन राम के:

आज एक गीत सुनवाता हूँ..ताकि एक बचा डोज़ भी पूरा ही हो ले: