शनिवार, जुलाई 31, 2021

ये कैसा रिजल्ट है भाई?

 

१२ वीं के परिणाम घोषित हो गये. लड़कियों ने फिर बाजी मार ली – ये अखबार की हेड लाईन्स बता रही हैं. जिस बच्ची ने टॉप किया है उसे ५०० में से ४९६ अंक मिले हैं यानि सारे विषय मिला कर मात्र ४ अंक कटे.  बस! 4 नंबर कटे? ये कैसा रिजल्ट है भाई?

हमारे समय में जब हम १० वीं या १२ वीं की परीक्षा दिया करते थे तो मुझे आज भी याद है कि हर पेपर में ५ से १० नम्बर तक का तो आऊट ऑफ सिलेबस ही आ जाता था. अतः उतने तो हर विषय में घटा कर ही नम्बर मिलना शुरु होते थे. यहाँ आऊट ऑफ सिलेबस का अर्थ यह नहीं है कि किताब में वो खण्ड था ही नहीं. वो तो बकायदा किताब में था मगर मास्साब बता देते थे इसे छोड़ दो, ये नहीं आयेगा. क्या पता मास्साब को ही न आता हो। कौन जाने? वो कहते कि पहले भी कभी नहीं आया, तो अब क्या आएगा? हम लोगों की भी मास्साब में, कम से कम ऐसी बातों के लिए तो अटूट आस्था थी.  मगर अपनी किस्मत ऐसी कि हर बार ५ - १० नम्बर के प्रश्न उसी में से आ जाया करते थे. तब ऐसे में हम घर आकर बताते थे कि आज फिर आऊट ऑफ सिलेबस १० नम्बर का आ गया. घर वाले भी निश्चिंत रहते थे कि कोई बात नहीं ९० का तो कर आये हो न!!

तब आगे का खुलासा होता कि ५ नम्बर का रिपीट आ गया था, सो वो भी नहीं कर पाये. फिर आगे बात बढ़ती कि पेपर इत्ता लंबा था अतः समय ही कम पड़ गया. आखिरी वाला सवाल आधा ही हल कर पाये अब देखो शायद कॉपी जांचने वाले मास्साब अगर स्टेप्स के नम्बर दे दें तो दे दें वरना तो उसके भी नम्बर गये. अब आप सोच रहे होंगे कि ये ’रिपीट आ गया’ क्या होता है?

दरअसल हमारे समय में विद्यार्थी चार प्रकार के होते थे. एक तो वो जो ’बहुत अच्छे’ होते थे, वो थारो (Thorough) (विस्तार से)घोटूं टाईप स्टडी किया करते थे याने सिर्फ आऊट ऑफ सिलेबस को छोड़ कर बाकी सब कुछ पढ़ लेते थे. ये बच्चे अक्सर प्रथम श्रेणी में पास होते थे मगर इनके भी ७० से ८५ प्रतिशत तक ही नंबर आते थे. काफी कुछ तो आऊट ऑफ सिलेबस की भेंट चढ़ जाता था और बाकी का, बच्चा है तो गल्तियाँ तो करेगा ही, के नाम पर.

दूसरे वो जो ’कम अच्छे’ होते थे, वो सिलेक्टिव स्टडी करते थे. सिलेक्टिव यानि छाँट बीन कर, जैसे इस श्रेणी वाले आऊट ऑफ सिलेबस के साथ साथ जो पिछले साल आ गया है वो हिस्सा भी छोड़ देते थे. इनका मानना था की कोई वो ही चीज कोई बार बार थोड़ी न पूछेगा जबकि इतना कुछ पूछने को बाकी है. इसे यह प्रचुरता का सिद्धांत बताया करते थे जिसमें अनेकों की आस्था थी. अतः जो पिछले साल पूछा हुआ पढ़ने से छोड़ कर जाते थे, उसमे से अगर कुछ वापस पूछ लिया जाये तो उसे ’रिपीट आ गया’ कहा जाता था. उस जमाने के लोगों को ’रिपीट आ गया’ इस तरह समझाना नहीं पड़ता था, वो सब समझते थे. ये बच्चे गुड सेकेन्ड क्लास से लगा कर शुरुवाती प्रथम श्रेणी के बीच टहलते पाये जाते थे. गुड सेकेन्ड क्लास का मतलब ५५ से लेकर ५९.९ प्रतिशत तक होता था. ६० प्रतिशत से प्रथम श्रेणी शुरु हो जाती थी.

तीसरे और चौथे प्रकार वाले विद्यार्थी धार्मिक प्रवृति के बालक होते थे. उनका कोर्स की पुस्तकों, सिलेबस, मास्साब आदि से बढ़कर ऊपर वाले में भरोसा होता था. वे मानते थे कि अगर हनुमान जी की कृपा हो गई तो कोई माई का लाल पास होने से नहीं रोक सकता. इस श्रेणी के विद्यार्थी परीक्षा देने आने से पहले मंदिर में माथा टेक कर, तिलक लगा कर और दही शक्कर खाकर परीक्षा देने आया करते थे.  वे उत्तर पुस्तिका में सबसे ऊपर ’ॐ श्री गणेशाय नम:” लिखने के बाद प्रश्न पत्र को माथे से छुआ कर पढ़ना शुरु करते थे. ये धार्मिक बालक या तो १० प्रश्नों का गैस पेपर याने कि ’क्या आ सकता है’ और उनके सजेस्टेड आन्सर पढ़कर आते थे या फिर अमरमाला कुँजी. अमरमाला कुँजी जो हर विषय के लिए अलग अलग बिका करती थी। उसमें संभावित २० प्रश्न जिसे वो श्यूर शाट बताते थे और उनके जबाब होते थे, को थाम कर परीक्षा के एक रात पहले की तैयारी और भगवान के आशीर्वाद को आधार बना परीक्षा देते थे. ये बालक सेकेण्ड क्लास से पीछे की तरफ चलते हुए थर्ड क्लास या ग्रेस मार्क्स से साथ पास होते। इनमें से जिन पर हनुमान जी की पूर्ण कृपा न हो पाती, वो या तो सप्लिमेन्ट्री पा जाते या फिर फेल होकर पुनः उसी कक्षा की शोभा बढ़ाते. इन तीसरे और चौथे प्रकार वालों का भाग्य इस बात पर निर्भर किया करता था कि गैस पेपर और कुंजी में से कित्ता फंसा? ये ’फंसा’ भी तब की ही भाषा थी जिसका अर्थ होता था कि जो गैस पेपर मिला था उसमें से कितने प्रश्न आये. नकलचियों का शुमार भी इसी भीड में होता था.

अब उस जमाने के हम, इस जमाने के नौनिहालों को ९९.२% लाता देखकर आवाक न रह जायें तो क्या करें!!

-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अगस्त 1, 2021 के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/62172306

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 चित्र साभार; गूगल 



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शनिवार, जुलाई 24, 2021

जीवन में सफलता का अद्भुत रहस्य

 


तिवारी जी पान की दुकान की तरफ सर झुकाए चले आ रहे थे। हाथ में एक किताब थामे थे। किसी से कोई बात चीत नहीं। न जाने मन ही मन क्या सोच रहे थे। चेहरे की गंभीरता को देख कर अनुमान लगाया जा सकता था कि निश्चित ही किसी बड़ी योजना की उधेड़बुन में लगे हैं।

अभी सुबह का सात भी ठीक से नहीं बजा था। पान की दुकान अभी खोलने की तैयारी में चौरसिया जी लगे थे। तिवारी जी बेंच पर बैठ गए। नमस्ते बंदगी के बाद तिवारी जी अखबार में खो गए और किताब कंधे पर टंगे झोले में रख दी गई। बीच में बीच तिवारी जी झोलें में झांक लेते मानो किताब से पूछ रहे हों कि तुम ठीक से और आराम से तो हो न? कुछ चाय वगैरह तो नहीं पिओगी? ये तिवारी जी का नया सा स्वभाव था। पूर्व में कभी इतना चुप और इस तरह से बार बार झोले में झांकते उनको कभी नहीं देखा था।

याद आता है एक समय में तिवारी जी ने बिल्ली पाली थी। पाली तो क्या थी, न जाने कहां से आकर पल गई थी। सब उसे भगा देते थे और तिवारी जी ने भगाया नहीं तो उनकी होकर रह गई। तिवारी जी अकेले प्राणी – घर पर न खाना बनना और न चाय। सो दूध होने का सवाल ही नहीं, अतः बिल्ली के रह जाने से कोई नुकसान की भी संभावना नहीं थी। तिवारी जी स्वयं कभी मंदिर, कभी मित्र तो कभी रिश्तेदारी में खा पी कर मस्त रहते और चाय नाश्ता चौराहे पर कोई न कोई करा देता या कभी कदा मजबूरीवश खुद खरीद कर भी खा पी लेते थे। पिता जी कुछ दुकान मकान बनवा कर गुजरे थे अतः किराये से नित शाम की दारू और चखने का इंतजाम भी हो ही जाता था। तिवारी जी इसे बुजुर्गों का आशीष मान कर पूर्ण श्रद्धा से दारू ग्रहण करते। इसीलिए वो अक्सर पीकर भावुक हो जाते। नम आंखों से अपने बुजुर्गों को याद करते हुए कहते कि पहले के लोग कितने भविष्यदृष्टा हुआ करते थे। अब नई नस्लों में वो बात नहीं रही। बिल्ली भी मालिक का अनुसरण करते हुए अड़ोस पड़ोस में कहीं न कहीं दूध पर हाथ साफ कर ही लेती। ऐसा लगता था जैसे तिवारी जी और बिल्ली दोनों का यह मानना था कि ऊपर वाले ने जन्म दिया है तो भोजन पानी की व्यवस्था करना भी उसी की जिम्मेदारी है। कभी पड़ोसी बिल्ली की शिकायत करते भी तो तिवारी जी अव्वल तो यह कहते कि हमने उसे घर जैसी बड़ी चीज दे रखी है और तुम्हें उसको एक पाव दूध पिलाने तक में परेशानी है? तुममे कुछ मानवता बची भी है या नहीं? और अगर दान दक्षिणा से इतना परहेज है तो अपना घर बंद रखा करो। ये किसी और के घर खा पी आयेगी। प्रभु ने उसे धरती पर भेजा है तो उसके भोजन की व्यवस्था भी वो ही करता है। तुम नहीं तो किसी और का दरवाजा खुला छुड़वा देगा मगर अपने जीवों को भूखा नहीं रहने देगा। तिवारी जी तब उसे अपनी गोद में उठाये चौक आया करते थे और कोई कुत्ता उसे न झपट ले अतः उसे अपने झोले में डाल कर अखबार पढ़ने और बातचीत करने में मगन रहते। तब भी उनको बिल्ली के लिए झोले में बार बार झांकते कभी नहीं देखा था। बाद में वो बिल्ली मर गई थी मगर झोला कंधे पर बना रहा। अब बिल्ली की जगह किताब ने ले ली है मगर साथ ही तिवारी जी के व्यवहार में यह परिवर्तन भी आ गया है।

तब तक उनके मुंह लगे चेला घंसू भी चौक पर पधार चुके थे। आज उसने ठान ली थी कि वो तिवारी जी से किताब का रहस्य जानकर ही रहेगा। पहले तो तिवारी जी यह कर टालते रहे कि तुम नहीं समझोगे। मगर जब वो नहीं माना तो तिवारी जी को बताना पड़ा।

तिवारी जी ने बताया कि उन्हें व्हाटसएप से एक गहन ज्ञान की बात पता चली है कि यदि जीवन को सफल बनाना है तो किताब से दोस्ती करो। बस! तब से तिवारी जी एक बढ़िया किताब बाजार से खरीद लाए हैं। उसे एक अच्छे दोस्त की तरह साथ रखते हैं। दोस्ती और प्रगाढ़ हो जाए इस हेतु भले ही उसे झोले में रखे हों मगर कुछ कुछ समय में उसका ख्याल रखते रहते हैं। उनका विश्वास है कि जल्द ही यह दोस्ती यारी में बदल जाएगी और वे सफल हो जायेंगे।

कौन सी किताब है? पूछने पर उन्होंने बताया कि कौन सी तो नहीं पता किन्तु दुकान वाले ने बताया था कि अंग्रेजी की एक बेहतरीन किताब है। दोस्त बना ही रहे हैं तो हिन्दी की किताब को क्यूं दोस्त बनाना? वो तो खुद ही सफल नहीं हो पाती, मुझे क्या सफल बनाएगी?

अंग्रेजी किताब से दोस्ती निश्चित ही सफल बनाएगी – भले ही पढ़ न पायें उसको। मैसेज में भी तो साफ साफ लिखा था – सफल होने के लिए किताब से दोस्ती करो। पढ़ने के लिए तो कहीं न लिखा था।

व्हाटसएप का ज्ञान है- कोई मजाक थोड़े ही है।

-समीर लाल ‘समीर’

 भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जुलाई 25, 2021 के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/62022813

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शनिवार, जुलाई 17, 2021

आशीर्वादी जुमलों का एक सीमित संसार

 मानसिक रूप से तिवारी जी उम्र के उस पड़ाव में आ गए हैं जहाँ मात्र आशीर्वाद देने के सिवाय और कोई काम नहीं रहता। दरअसल उम्र से तो वह लगभग अभी 60 के आस पास ही पहुँच रहे होंगे। नेता होते तो युवा और ऊर्जावान कहलाते और अभिनेता होते तो किसी फिल्म में नई आई अभिनेत्री के साथ नाच रहे होते, मगर तिवारी जी ने उम्र का वो पड़ाव जल्दी इसलिए प्राप्त कर लिया क्यूंकि उनके पास वैसे भी कोई काम नहीं रहता है। काम न रहने को उन्होंने उम्र के पड़ाव से जोड़ दिया। यह उनके मानसिक उत्कर्ष का प्रमाणपत्र है।

अब वे अपने से बड़े उम्र की महिलाओं एवं पुरुषों को भी बेटा बेटी बच्चा आदि से संबोधित करने लगे हैं। पड़ोस में रहने वाली 70 वर्षीय महिला सुशीला ने जब नमस्ते किया तो बोले ‘अरे सुशीला बिटिया – खूब खुश रहो। बड़ा सुखद लगा सुनकर कि तुम अभी से इत्ती कम उम्र में ही नानी बन गई। प्रभु का बहुत आशीर्वाद है। अब नाती पोतों के साथ खूब खेलो। जुग जुग जिओ।’ अब सुशीला भी ठहरी महिला। कोई किसी भी उम्र में महिलाओं के इतने उच्चतम सम्मान ‘इत्ती कम उम्र’ से नवाज़ दे तो उसके लिए तो वह पद्म श्री से भी बड़ा सम्मान कहलाया। वो भी इसी सम्मान से लहालहोट हो तिवारी जी के चरण स्पर्श कर गई। तिवारी जी थोड़ा पीछे हटे और कहने लगे ‘अरे नहीं नहीं, हमारे यहां बच्चियों से पैर नहीं छुलवाते।‘ लेकिन तब तक सुशीला पैर छू चुकी थी, अतः सर पर हाथ धर कर पुनः आशीर्वाद देते हुए ‘सदा सुहागन रहो’ कहने जा ही रहे थे कि एकाएक याद आ गया कि सुशीला के पति को गुजरे तो सात साल हो गए हैं। अतः सदा के साथ खुश रहो लगा कर आशीर्वाद रफू कर दिया। रटे रटाए वन लाईनर वाले आशीर्वाद भी सतर्कता की दरकार रखते हैं। सही कहा गया है ‘सतर्कता हटी और दुर्घटना घटी’। अभी अभी तिवारी जी की फजीहत होते होते बच ही गई। 

आशीर्वादों का भी अपना एक वाक्य कोष होता है। सारे बुजुर्ग उसी में से उठा उठा कर आशीष दिया करते हैं। भाषा से भी यह अछूते हैं। लगभग सभी भाषाओं में आशीर्वाद का अंदाज और अर्थ एक सा ही होता है। चुनावी जुमलों की तरह ही आशीर्वादी जुमलों का एक सीमित संसार है मगर लुटाया दोनों को ही हाथ खोल कर जाया जाता है।

आशीर्वाद पाने वाला भी जानता है कि जेब खस्ता हाल में है। मंहगाई ऐसी कि निहायत जरूरत तक के सारे सामान नहीं जुटा पा रहे हैं। पेट्रोल भरवाने जाओ तो गैलन तो सोचना भी पाप हो गया है बल्कि लीटर की जगह मिली लीटर चलन में आने को तैयार हो रहा है। इस दौर में जब घर से मंहगाई और दुश्वारियों से जूझने निकलो और पान की दुकान पर बैठे तिवारी जी मुस्कराते हुए आशीर्वाद देने मे जुटे मिलें ‘खूब खुश रहो। दिनोंदिन ऐसे ही तरक्की करते रहो।‘ तब सिर्फ भीतर भीतर कोफ्त खाने के और क्या हो सकता है। बुजुर्ग की उम्र का लिहाज ऐसा कि कुछ कह भी नहीं सकते। बुजुर्ग भी अपनी उम्र का पावर जानता है। नेता भी तो अपने पावर के चलते जुमले पर जुमले उठाए रहते हैं और आम जानता भी सब कुछ जानते समझते भी सिवाय कुढ़ कर रह जाने के क्या कर सकती है।

घंसू, जिससे विगत में तिवारी जी का शराब पीने से लेकर गाली गलौज तक का करीबी नाता रहा, उसे भी आजकल वह ‘बेटा, सदा खुश रहो- ऐसे ही खूब तरक्की करते रहो ’ का आशीर्वाद देते हुए न थकते हैं। घंसू भी आश्चर्य चकित सा तिवारी जी का मुंह ताक रहा है। जब उम्र के पाँच दशक से ज्यादा समय में आजतक कुछ भी कर ही नहीं पाया और यह बात तिवारी जी भी जानते हैं तो ये ‘ऐसे ही तरक्की करते रहो’ में किस तरक्की का जिक्र कर रहे हैं?

अभी घंसू इस विषय में सोच ही रहा था की उसे याद आया कि कुछ साल पहले जब एक मंच से नेता जी का भाषण हो रहा था। नेता जी ने कहा था  ‘आप और आपका धर्म संकट में हैं। मैं जीतते ही आपको संकट से उबारूँगा।‘ तब भी जिन्हें वह संकट में बता रहे थे, उन लोगों को खुद ही नहीं पता था कि वो और उनका धर्म संकट में हैं। वो भी तो यही सोच रहे थे कि नेता जी किस संकट से उबारेंगे, जब कोई संकट है ही नहीं। तब उस वक्त के युवा और ऊर्जावान तिवारी जी ने ही बताया था कि इसे जुमला कहते हैं। चुनाव में काम आता है। याद कर लो और जब चुनाव लड़ोगे तो काम आएगा। तब तुम भी यही बोलना।‘

बस, घंसू भी अब तिवारी जी की बात ‘ऐसे ही खूब तरक्की करते रहो’ का भावार्थ समझ गया। यह बुजुर्गों का एक आशीर्वादी जुमला है। याद कर लो और जब बुजुर्ग हो जाओगे तो काम आएगा।

ऐसा ही पुश्त दर पुश्त ये सिलसिला चलता आया है और ऐसे ही आगे भी चलता

रहेगा।

-समीर लाल ‘समीर’  

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जुलाई 18, 2021 के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/61871028

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शनिवार, जुलाई 10, 2021

जाने कौन सा जुमला हकीकत में साहित्य सम्मान दिला जाये

 

आज फिर लिखने के लिए एक विषय की तलाश थी और विषय था कि मिलता ही न था, तब विचार आया कि इसी तलाश पर कुछ लिखा जाये.

वैसे भी अगर आपको लिखने का शौक हो जाये तो दिमाग हर वक्त खोजता रहता है-कि अब किस विषय पर लिखा जाये? उठते-बैठेते, सोते जागते, खाते-पीते हर समय बस यही तलाश. इस तलाश में मन को को यह खास ख्याल रहता है कि एक ऐसा मौलिक विषय हाथ लग जाये कि पाठक पढ़कर वाह-वाह करने लगे. .. पाठक इतना लहालोट हो जाये कि बस साहित्य अकादमी अवार्ड की अजान लगा बैठे..और साहित्य अकादमी वाले उसकी कान फोडू अजान की गुहार सुनकर अवार्ड आपके नाम कर चैन से सो पायें.

यूँ तो जब भी कोई पाठक आपके लिखे से अभिभूत होकर या आपसे कोई कार्य सध जाने  की गरज के चलते ये पूछता है कि- भाई साहब, आप ऐसे-ऐसे सटीक और गज़ब के ज्वलंत विषय कहाँ से लाते हैं? तो मन प्रफुल्लित हो कर मयूर सा नाचने लग जाता है. किन्तु मन मयूर का नृत्य पब्लिक के सामने दिखाना भी अपने आपको कम अंकवाने जैसा है. कौन भला अपनी पब्लिक स्टेटस गिरवाना चाहेगा...

तो अब सोचिये कि अगर आप तक यह प्रश्न पहुँचा है, इसका मतलब ही यह है कि सामने वाले ने आपको ज्ञानी माना हुआ है अन्यथा मूर्खों से भी भला कोई प्रश्न करता है कोई? अतः आपको गभीरता का लबादा चेहरे पर लादे हुए ज्ञान मुद्रा बनाये व्याख्यान कुछ इस तरह शुरु कर देना पड़ता है कि..

’देखिये, आप तो स्वयं ज्ञानी हैं (इसे नमस्ते के बदले नमस्ते वाले का संस्कार मानें कि उसने आपको ज्ञानी माना है अतः आप उसका उधार वापस कर रहे हैं ऐसा कह कर, वरना तो आप जानते ही हैं उसको), विषय तो आपके आस पास ही हजारों बिखरे होते हैं,,जैसे कि कंकड़ पत्थर.. बात आपकी सजगता और उन्हें पहचान लेने की है. आपका नित आचरण, मित्रों की गतिविधियाँ, समाज का व्यवहार और रीतियाँ, कुरितियाँ, सरकार और सरकारी तंत्र को चलाने के यंत्र और मंत्र आदि-आदि नित हजारों हजार विषयों के वाहक होते है, मगर जो हीरे को पहचान जाये, वो पारखी कहलाता है वरना तो मूरख उसे कंकड़ मान कर लात मार मार कर निकल ही रहे हैं. वैसे असल बात ये है कि मात्र हीरे को पहचान लेना ही पारखी को जोहरी नहीं बना देता..(इस बहाने आप सामने वाले के मन में आपके ही बयान से उपज आये उस भ्रम को नेस्तनाबूत भी कर देते हैं कि वो भी आस पास सजगता से देख कर विषय तलाश सकता है).

जैसे एक अच्छा जोहरी बनने के लिए जीवन में कुछ अलग सा कर जाने का संकल्प, इक हुनर सीख लेने की ललक, एक निष्ठ लगन, तराशने का सधा हुआ हुनर और एक इमानदार मेहनत की जरुरत होती है वैसे ही किसी भी विषय पर लिखने वाले एक अच्छे लेखक को शब्दकोश का धनी, विविध साहित्य का अपार पठन और मेहनत और लगन से अपने लेखन को अंजाम देने की जरुरत होती है. विषय निश्चित ही अपने आप में महत्वपूर्ण होता है. विषय कथानक की घूमती हुई धूरी होता है जिसके आस पास आपको, शब्दों का उचित चयन करते हुए एवं उनको गूथने के हुनर का जतन से इस्तेमाल करते हुए, एक ऐसे आभा मण्डल का निर्माण करना होता है कि पढ़ने वाला उसी आम से दिखने वाले विषय को एकदम खास सा विषय मान ’वाह वाह” कर उठे...’

 

और इतना सब कह कर भी इस बात को तय कर पाने के लिए, कि आप पूछने वाले पर अपने ज्ञानी होने की पूरी छाप छोड़ पाये या नहीं और उसे सदैव मूरखता से अभिशप्त रहने का अहसास दिला पाये या नहीं...., आप उससे यह पूछने से बाज नहीं आते कि ’क्या समझे? समझे कि नहीं?”

सामने वाला साहित्य का ज्ञान भले न रखता हो पर प्रश्नकर्ता भारतीय है और हर पान की दुकान पर खड़े से रेल में बैठे आम भारतीय की तरह उसे राजनीत का ज्ञान तो जरुर ही होगा....हर भारतीय पर इस हेतु विशेष ईश कृपा है और इस ज्ञान का होना तो उसके डी एन ए में शामिल है अतः उसी आधार पर वो ’क्या समझे? समझे कि नहीं?’ का जबाब देता है. और कहता है कि...जी, मैं समझ गया और मैं इसे ऐसे समझा कि जैसे राजनीत में तमाम मुद्दे आपके आस पास बिखरे पड़े होते हैं.. बस बात उन्हें पहचानने की है और इतना और जान लिजिये कि मात्र उन मुद्दों को पहचान जाने से भर आप राजनेता नहीं बन जाते...बात उन आम मुद्दों को शब्दों और जुमलों के मायाजाल में बाँध कर आमजन के सामने ऐसे पेश करने की है कि वो मुद्दे इतने खास हो जायें...कि आमजन महसूस करने लगे..’वाह, बस इस बंदे को चुनना है इस बार और फिर देखो...जल्दी ही अच्छे दिन आने वाले हैं!!’ और आमजन का यह इन्तजार आमजन वो ख्वाब बन जायेगा जो आपको राज गद्दी दिला जायेगा...

उसकी यह व्याख्या इस लेखक श्रेष्ठ के दिल को छू गई ..बस, पाठको में इसी तरह के इन्तजार को जगाना अब मात्र इस लेखक की तमन्ना बची है और लेखक की राजगद्दी यानि अकादमी का साहित्य सम्मान.वो तो फिर मिल ही जायेगा एक दिन...जुमले पर जुमले गढ़ते रहेंगे इसी इन्तजार को जगाने के लिए...कौन जाने कौन सा जुमला हकीकत में साहित्य सम्मान दिला जाये..

-समीर लाल ’समीर’

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जुलाई 11, 2021 के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/61727731

 

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शनिवार, जुलाई 03, 2021

हम अब वरिष्ट लेखक हो गये हैं

 डेश बोर्ड, रिपोर्ट कार्ड, पॉवर पाईन्ट डेक, स्कोर कार्ड की तरह ही न जाने कितने नाम हैं, जो कारपोरेट वर्ल्ड से निकल कर पॉवरफुल सरकारी दुनिया में राजनिति चमकाने के लिए आ गये. इनको बनाना, इनको दिखाना, इनके बारे में बताना ही अपने आप में इतना भव्य हो गया कि जिन कामों को दर्शाने के लिए यह सारे आईटम कारपोरेट वर्ल्ड में बनाये जाते हैं, वो यहाँ नगण्य होकर रह गये.

फलाने मंत्रालय का प्रेजेन्टेशन, सरकार का १०० दिन का रिपोर्ट कार्ड, स्मार्ट सिटी परियोजना का डेशबोर्ड, फलाने मंत्री का स्कोर कार्ड तो खूब सुनाई पड़े और दिखे मगर कार्य क्या हुए, विकास का क्या हुआ? वो ही न तो दिखाई दिया और न सुनाई पड़ा. धीरे धीरे इन प्रेजेन्टेशनों की ऐसी धज्जी उड़ी कि विकास और क्या किया दिखाने की बजाये, पिछले ७० सालों में क्या नहीं हुआ, वो दिखाने में ही मगन हो लिए. अब तो स्कोर कार्ड और रिपोर्ट कार्ड के नाम पर पिछली सरकारों की नाकामियों की रिपोर्ट ही आती है. इनसे पूछो कि चलो उन्होंने कुछ नहीं किया मगर तुमने क्या किया वो तो बताओ? इस पर वो कहते हैं कि हमने इतनी रिपोर्टें बना डाली वो ही क्या कम है?

प्रेजेन्टेशन और मार्केटिंग का जमाना है, फिर वो भले दूसरों की नाकामियों का ही क्यूँ न हो? जब खुद बड़ी रेखा न खींच पाओ तो दूसरे की खींची हुई रेखा को पोंछ कर छोटा करने के सिवाय और विकल्प भी क्या है, खुद को बड़ा दिखाने के लिए? अब तो हद यहाँ तक हो ली है कि पोंछ कर छोटा करना भी बड़ा दिख पाने के लिए काफी नहीं है क्यूँकि कुछ दिखाने को है ही नहीं, तो पूरा मिटा ही देने की कोशिश है. खुद उनके वरिष्ट कह गये कि कॉपी में कुछ लिखा हो, तब तो नम्बर दूँ.

ऐसा माना जाने लगा है कि अगर कुछ किया भी हो तो भी बिना प्रजेन्टेशन के आजकल नहीं दिख पाता. इस चपेट में हम लेखक वर्ग भी हैं. अखबार में छप भी गये तो संतोष नहीं है. हमें तो लगता है कि कैसे सबको बतायें कि अखबार में छप लिए हैं. फिर अखबार की कटिंग फेसबुक पर, ईमेल से, ट्वीटर पर, व्हाटसएप के सारे ग्रुपों पर, फेसबुक मेसेन्जर से, टेक्स्ट मैसेज से और फिर ब्लॉग पोस्ट से. पढ़ने वाला थक जाये मगर हम बताते बताते नहीं थकते. हमारा बस चले तो उसी अखबार में एक विज्ञापन भी लगवा दें कि देखो, हम फलाने पेज पर छपे हैं. सरकारों का बस चल जाता है तो लगवाती भी हैं विज्ञापन कि देखो, हमने फलाँ जगह यह किया, वो किया.

सोच की चरम देखो कि फेसबुक पर लगाने के बाद भी यह चैन नहीं कि सारे मित्र देख ही लेंगे अतः उनको टैग भी कर डालते हैं और ऊपर से छुईमुई सा मिज़ाज ऐसा कि कोई मित्र मना करे कि हमें टैग मत किया करो, हम यूँ ही देख लेते हैं तुम्हारे पोस्ट, तो उसको ब्लॉक ही कर मारते हैं कि हटो!! हमें नहीं रखनी तुमसे दोस्ती. वही तो होता है वहाँ भी कि वो बोगस विडिओ भेजें और आप उसका ओरिजनल विडिओ लगा कर बता दो कि तुमने बोगस डॉक्टर्ड विडिओ लगाया है. बस!! आप देशद्रोही हैं और पाकिस्तान जा कर बस जाईये के कमेन्ट के साथ आप ब्लॉक!!

वैसे सच बतायें तो अखबार में छ्प जाने से बड़े लेखक हो जाने की फील आ जाती है. जैसे की कोई सांसद सत्ता पक्ष का मंत्री बन गया हो वरना तो होते तो निर्दलीय सांसद भी हैं. हैं भी कि नहीं कोई जान ही नहीं पाता. मगर फिर भी निर्दलीय के सांसद होने और अनछपे के लेखक होने से इंकार तो नहीं ही किया जा सकता है.

फिर सत्ता पक्ष का मंत्री अपना चार छः गाड़ियों का असला लेकर सिक्यूरीटी के साथ लाल बत्ती और सायरन बजाते न चले तो कौन जानेगा कि मंत्री जी जा रहे हैं. शायद यही सोच कर हम भी हर संभव दरवाजे की घंटी बजाते हैं कि लोगों को पता तो चले कि हम अब वरिष्ट लेखक हो गये हैं.

देखो!! हम आज के अखबार में छपे हैं.

-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जुलाई 3, 2021 के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/61571543

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